Interview: 16 साल की उम्र से महादलित परिवारों की मसीहा बनीं सुधा वर्गीज
आज हम एक ऐसी महिला की कहानी बताने जा रहे हैं, जो 16 साल की उम्र से ही महादलित परिवारों की मसीहा बन गयीं. उन्होंने अपनी आरामदायक जीवन शैली त्याग कर उस समुदाय की बेहतरी के लिए काम करने का फैसला किया, जिन्हें तमाम तरह के सामाजिक भेदभावों का सामना करना पड़ता है.
Sudha Varghese Interview: केरल के कोट्टायम की रहने वाली सुधा वर्गीज महज 16 साल की उम्र में ही केरल से पटना पहुंच गयीं और कभी पैदल घूम-घूम कर, तो कभी साइकिल से गरीब बच्चों के बीच शिक्षा की लौ जलाती रहीं. तब से लेकर आज तक वे अपनी परवाह किये बिना नि:स्वार्थ भाव से बिहार के मुसहर समाज के लोगों के उत्थान के लिए काम करती हैं. इनकी मेहनत का ही नतीजा है कि आज मुसहर समाज के बेटे व बेटियां शिक्षित हो रही हैं.
Q. आप केरल से हैं और बिहार में काम कर रही हैं, यहां कैसे आना हुआ?
मैं मूल रूप से केरल के कोट्टायम की रहने वाली हूं. जब मैं आठवीं में थी, तब कोर्स की किताब में बिहार की गरीबी के बारे में पढ़ा था. इंटर करने के बाद मैंने अपने पिताजी से कहा कि मुझे बिहार जाना है. फिर ‘द सिस्टर्स ऑफ नोट्रेडेम’ संस्थान के जरिये मैं बिहार आ गयी. यहां आने के बाद सबसे पहले मैं बिहार में ‘जमालपुर’ पहुंची. इसके बाद मैं यहां के नोट्रेडम स्कूल में पढ़ाने लगी, पर मैंने यहां देखा कि ज्यादातर बच्चे अफसरों और संपन्न घरों से हैं, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं तो बिहार आयी हूं गरीबों की मदद के लिए. इसलिए कुछ समय यहीं रहकर मुसहरों के लिए कार्य किया फिर मैं पटना आ गयी. इन्हें समाज में उचित स्थान मिले, इसके लिए मेरी आज तक लड़ाई जारी है.
Q. इस समुदाय के लिए उस वक्त सबसे क्या जरूरी था?
शिक्षा के जरिये बड़ी-बड़ी बाधाओं को पार किया जा सकता है. इस बात को मैं अच्छे से जानती थी. लिहाजा सबसे पहले मैंने इस जाति की लड़कियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया. इसके लिए गांव के हर घर में लड़कियों को शिक्षित करने के लिए बात की और परिवारों को समझाने का काम किया. इस दौरान ही मैंने खुद भी कानून की पढ़ाई की और साल 1987 में ‘नारी गुंजन’ नाम का एक एनजीओ खोला. इसके जरिये मैंने महिलाओं को उनके कानूनी अधिकारों के प्रति जागरूक कर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. शिक्षा और स्किल्स सीखने की वजह से महिलाएं रोजगार करने में सक्षम होने लगीं. इस समुदाय की महिलाओं का अब दो ‘महिला बैंड’ भी है.
Q. कोई ऐसी घटना या चुनौतियां, जो आपको आज भी याद है?
इस समुदाय के लोगों के लिए आवाज उठाने के लिए मुझे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. मैं एक ऐसी घटना के बारे में बताती हूं, जो पुलिस प्रशासन में भी जाति को लेकर व्याप्त भेदभाव को दर्शाती है. एक बार मैं यौन हिंसा की एक पीड़िता को पुलिस स्टेशन लेकर गयी. वहां तैनात पुलिसकर्मी की प्रतिक्रिया चौंकाने वाली थी. उसने कहा कि ऐसे गंदे कपड़े पहनने वाली लड़की के साथ कौन बलात्कार करेगा? इसके लिए मैंने कई जगह बात की. जब एफआइआर नहीं हुआ, तो उस वक्त 500 महिलाओं ने दानापुर रोड को जाम कर नारे लगाये. पेशे से एक वकील थी, तो कानूनी अधिकारों के बारे में पता था. आखिर में हार कर डीआइजी के आदेश पर केस दर्ज हुआ. मामला उच्च जाति के लोगों के खिलाफ था, तो मुझे जान से मारने की धमकी भी मिली. बावजूद इसके मैं न्याय के लिए डटी रही और मुझे वहां की महिलाओं का भरपूर सहयोग मिला.
Q. 57 साल से आप लगातार इस समुदाय के लिए कार्य कर रहीं है. ऐसे में अब तक का यह सफर कैसा रहा ?
जब मैं अपने सफर को देखती हूं, तो लगता है अभी और काम करना है. हां! आज इनकी स्थिति बदली है. बेटियां शिक्षित हो रही हैं. दानापुर और पुनपुन में दो महिला बैंड है, जिसकी संख्या और बढ़ाने की सोच रही हूं. फुलवारी, पुनपुन और बिहटा के ब्लॉक में 4000 महिलाएं खेती से जुड़कर आर्थिक तौर पर संपन्न हुई हैं. 36 क्रिकेट टीम है, जिसमें 500 से ज्यादा युवा हैं, लेकिन अब इन्हें रोजगार से जोड़ने का कार्य करना है. 20 लड़कियों के पास फोर व्हीलर का लाइसेंस है, जिसके लिए अभी नौकरी की तलाश की जा रही है.