गया. (डॉ.राकेश कुमार सिन्हा ) सामान्यत मेला का अभिप्राय पर्व-त्योहार, धार्मिक समागम, सांस्कृतिक उत्सवादि से जुड़े विशेष जनसमूह के आगमन से उपस्थित उस लोक महासंगम से है. इसमें हास-परिहास,आनंद- विहार और उत्साह-उमंग की बातें जुड़ी होती है लेकिन इनसे विअलग अपने देश में एक ऐसा मेला भी है. जहां पूर्वजों की स्मृति में विशाल धार्मिक समागम का आयोजन होता है जिसमें भारत ही क्या, विश्व रहने वाले सनातन धर्मी भी अपने समय और सुविधा के अनुसार इस अवधि में जरूर आते हैं. चर्चा पितृ मोक्ष धाम गया की कर रहा हूं. यहां प्रत्येक वर्ष भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक की अवधि में पितरों की पुण्यतिथि में पितृपक्ष मेला का आयोजन होता है. निरंजना और मोहाने जैसे दो पठारी नदियों में गुप्त सरस्वती ‘विशाला’ के महासंगम के उपरांत उद्गमित अंत: सलिला फल्गु के किनारे गयाजी में पितृपक्ष मेला युग पिता ब्रह्मा जी द्वारा प्रारंभ किया गया बताया जाता है और इस तरह यह संसार के सर्वप्राचीन मेला में एक है.
पितृपक्ष का या 15 दिवसीय मेला मैं सिर्फ गया अथवा समिति खंड मगध कारण पूरे बिहार के प्रसिद्ध धार्मिक सन ऑफ समागम में एक है. बिहार में सोनपुर का मेला, श्रावणी मेला, मलमास का मेला, मंदार महोत्सव, छठ पूजा मेला जैसे प्रसिद्धि प्राप्त मेला की भांति गया के पितृपक्ष मेला का दूर देश तक नाम है. आस्था, विश्वास और जनसरोकार, से जुड़े गया पितृपक्ष मेला को वर्ष 2014 में राजकीय मेले का दर्जा दिया गया. कई अर्थों में गया का पितृपक्ष मेला न सिर्फ धार्मिक वरन् सामाजिक, आर्थिक और जन- जन की भावनाओं से जुड़ा हुआ है. पितृपक्ष मेले के हरेक दिन अलग-अलग वेदियों पर अनुष्ठान का विधान है. इन पंद्रह दिनों में गया धाम के सभी पिण्ड वेदियों का पितृ कर्म किया जाता है और इसकी पूर्णाहुति अक्षयवट में होती है. कभी गया जी में 360 वेदियां थी पर वर्तमान में इनकी संख्या 50 के करीब है. इनमें श्री विष्णु पद,फल्गु जी और अक्षय वट का विशेष मान है और इन्हीं तीनों स्थानों पर श्रद्धालुओं की सर्वाधिक जमवाड़ा होती है. पितृपक्ष मेले में ज्यादातर पचास के पार आयु वाले व्यक्ति देख सजा सकते हैं. ऐसे अब तो महिलाओं की उपस्थिति खूब रहती है. कुल मिलाकर मोक्ष प्राप्ति की भावना से ओत प्रोत गया जी का पितृपक्ष मेला स्वर्गारोहण के द्वार का मार्ग प्रशस्त करता है तभी तो गया में सालों भर पितृ भक्तों का आगमन बना रहता है.
गजाधर लाल पाठक ने बताया कि जब गया सूर भगवान विष्णु चरण को अपने शरीर पर मांगा था. तब वहां के तीर्थ पुरोहित गयपाल पंडा से आज्ञा लेकर पिंडदान करने व सुफल देने की शर्त गया सूर ने भगवान विष्णु के समक्ष रखी थी. इस वरदान के बाद यहां पिंडदान करने के लिए देश-विदेश से आने वाले श्रद्धालु पहले गयापाल पंडा से आज्ञा लेते हैं तब पिंडदान शुरू करते हैं. इसके बाद कर्मकांड पूरा होने पर पंडा जी से सुफल लेकर अपने घर जाते हैं. इस परंपरा से ही पिंडदान का कर्मकांड आज भी श्रद्धालु निर्वहन करते आ रहे हैं. उन्होंने बताया कि वायु पुराण सहित अन्य हिंदु धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है कि ब्रह्मा जी के कुश से चौदह गोत्रीय गयापाल पंडा तीर्थ पुराेहितों की उत्पत्ति हुई थी.
अयोध्या के राजा दशरथ अपने बेटे श्रीराम के सपने में आकर मुक्ति के लिए उन्हें पिंडदान करने का आवाह्न किया था. श्रीविष्णुपद मंदिर प्रबंधकारिणी समिति के सचिव गजाधर लाल पाठक ने बताया कि इसके बाद ही पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ रामजी पिंडदान करने गया आये थे. श्रीराम व लक्ष्मण के पिंडदान सामग्री लाने में देरी होने के कारण माता सीता ने अपने श्वसूर राजा दशरथ को बालू का पिंडदान कर उनके आत्मा को तृप्त किया था. इस पौराणिक कथा की चर्चा करते हुए श्री पाठक ने बताया कि तब सीता कुंड क्षेत्र आरण्य वन के रूप में जाना जाता था. रामजी पिंडदान सामग्री लेकर पहुंचे, तो माता सीता ने अपनी स्वबीती घटना बतायी. उन्होंने बताया कि राजा दशरथ स्वयं हाथ बढ़ाकर पिंडदान का आवाह्न करने लगे. शुभ मुहूर्त को देखते हुए बालू का पिंड दे दिया. जब उन्होंने साक्षी के रूप में फल्गु नदी, ब्राह्मण, गाय, अक्षवट व केतकी क फूल गवाही देने के लिए कहा. अक्षयवट छोड़ कर सभी मुकर गये. इसके बाद सीता ने फल्गु नदी को अंत:सलिला होने का श्राप दिया. जिसकी चर्चा आज भी लोगों की जुबानी सुनी जाती है
दैत्य राज गया सूर के नाम पर मोक्षधाम यानि गयाजी पूरी दुनियां में जाना जाता है. पौराणिक धर्म ग्रंथों में गया श्राद्ध को सबसे उत्तम माना गया है. यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गयाजी प्रत्येक वर्ष पितृपक्ष मेले का आयोजन प्राचीन काल से होता आ रहा है. यहां आने वाले श्रद्धालु अपने पितरों के मुक्ति के लिए शहर के अलग-अलग जगहों पर स्थित 54 पिंडवेदियों पर पिंडदान, श्राद्ध कर्म व तर्पण का कर्मकांड अपने पुरोहित के निर्देशन में संपन्न करते हैं. विष्णुपद मंदिर प्रबंधकारिणी समिति के सचिव ने बताया कि सभी 54 वेदियों पर पिंडदान से पिंडदान करने वाले श्रद्धालुओं के पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. वैसे कुछ वेदी स्थलों पर पिंडदान का अलग-अलग महत्व बताया गया है.
गजाधर लाल पाठक ने बताया कि गोदावरी में पिंडदान से तीर्थ करने के समान फल मिलता है. फल्गु में स्नान व तर्पण करने से सभी पितर एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं. ब्रह्मकुंड, प्रेतशिला, रामशिला, रामकुंड व कागवली वेदी स्थलों पर पिंडदान से पितरों को प्रेत योनि से मुक्ति को फल मिलता है. उत्तर मानस वेदी पर उत्तर दिशा में पिंडदान करनेवाले श्रद्धालुओं के पितर प्रसन्न होते हैं. उदिचि श्राद्ध, कनखल श्राद्ध, दक्षिण मानस श्राद्ध, जीह्वालोल श्राद्ध व गदाधर जी का पंचामृत स्नान कराने वाले श्रद्धालुओं के अनजान पितरों को भी मुक्ति मिल जाती है. सरस्वती स्नान, पंचरत्न दान, मातंग वापी श्राद्ध, धर्मारणय कूप में श्राद्ध करनेवाले पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है.
उन्होंने बताया कि वेदी स्थलों पर धर्मराज युद्धिष्ठिर ने भी पिंडदान किया था. ब्रह्मसरोवर, कागवली, तारकब्रह्म, विष्णुपद, ब्रह्मपद, कार्तिकपद, दक्षिणाग्नि पद,गार्हपत्यान्गि पद, आह्वानीयाग्निपद, सूर्यपद, चंद्रपद, घाणेशपद, संध्याग्निपद, आवसंध्याग्निपद, दघीचिपद, कण्वपद, मातंगपद, क्रौंचपद, अगस्तयपद, इंद्रपद, कश्यपद, अधिकरणपद वेदी स्थलों पर पिंडदान का कर्मकांड करनेवाले श्रद्धालुओं को मोक्ष की प्राप्ति होती है. रामगया, सीताकुंड पर सुहागिन सामग्रियों के दान करने से श्रद्धालुओं के उम्र वृद्धि व उनके पितरों को मोक्ष गति की प्राप्ति होती है. गयासिर, गयाकूप, मुंड पृष्ट, आदिगदाधर मे पिंडदान से पितरों मोक्ष मिलता है. घौतपद, भीमगया, गौप्रचार वेदी पर चांदी व गदालोल वेदी पर स्वर्ण दान से पितरों को मोक्ष मिलती है. विष्णुपद तर्पण व संध्या में दीपदान से पितरों प्रसन्नता होती है. अक्षयवट में पिंडदान कर पितृविसर्जन का कर्मकांड करने की मान्यता है. इससे पितरों को मुक्ति मिल जाती है. इसके बाद पंडा जी से सुफल लेकर पिंडदानी का श्राद्धकर्म संपन्न होता है. नाना-नानी के आत्मा के शांति के लिए 17 दिवसीय त्रिपाक्षिक पिंडादान के अंतिम दिन फल्गु नदी के गायत्री घाट पर दही-चावल का पिंडा करने से ननिहाल के सभी कुलों के पितरों का उद्धार हो जाता है. अंति आचार्य को दक्षिणा देकर पिंडादान यज्ञ को सफल बनाया जाता है.