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बदल रही बिहार की राजनीति, पुरानी पीढ़ी की जगह स्थापित होने को है नयी पीढ़ी

लालू प्रसाद हों या नीतीश कुमार या रामविलास पासवान, सुशील मोदी हों या नंदकिशोर यादव, अलग-अलग राजनीतिक धाराओं से जुड़े ये लोग आंदोलनों से निकले. अपनी मंजिल तय की. इनके पास कोई बना-बनाया कारवां न था. पर आज की राजनीति में स्थापित होने वाली नयी पीढ़ी के पास सीधे विरासत की सीढ़ी मिली.

बिहार के राजनीतिक परिदृश्य पर पुरानी पीढ़ी के रहते नयी पीढ़ी के आगमन की दिलचस्प कहानी जब तब घटित होती रही है. मौजूदा राजनीतिक पटल पर तीन युवा नेता आ चुके हैं और पुरानी पीढ़ी को पीछे करने की हैसियत बना रहे हैं. ये तीनों नेता हैं तेजस्वी यादव, सम्राट चौघरी और चिराग पासवान.

1990 के दशक में कांग्रेस या समाजवादी धारा की राजनीति में कई स्थापित चेहरे थे. कांग्रेस में रामलखन सिंह यादव थे. राम जयपाल सिंह यादव थे. समाजवादी धारा में थे अनूप लाल यादव, महावीर प्रसाद यादव. ऐसे स्थापित नेताओं के बीच समाजवादी धारा से ताल्लुक रखने वाले लालू प्रसाद का उदय हुआ. 1990 के मार्च में वह मुख्यमंत्री बने थे. मंडल राजनीति के उफान के बाद वह न सिर्फ यादव बल्कि पिछड़ावाद की राजनीति के भी केंद्र में आ गये.

राजनीतिक गतिशीलता का चक्र देखिए. उन्हीं दिनों एक और युवा नेता की धमक सुनायी देने लगी थी. वह थे नीतीश कुमार. उनकी सामाजिक समझ ने उन्हें राजनीति में स्थापित करने में भूमिका निभायी. उनकी पृष्ठभूमि भी समाजवादी वैचारिकी पर टिकी थी.

राज्य की राजनीति पर नजर रखने वाले सामाजिक चिंतक प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि सत्तर और अस्सी के दशक में जो स्थापित नेता थे, उनकी जगह लालू-नीतीश की जोड़ी ने दस्तक दे दी थी. खासकर नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों में ये दोनों राजनीति के केंद्र में आ चुके थे. दोनों नेताओं की दोस्ती के उदाहरण दिये जाते थे. इसी दशक में लालू प्रसाद की सत्ता को चुनौती दी थी नीतीश कुमार ने. 1995 से लेकर 2005 तक वह लगातार लालू प्रसाद से टकराते रहे और 2005 में उन्हें सत्ता की कमान हासिल हुई.

उधर, भाजपा पर नजर डालें, तो कैलाशपति मिश्र, ताराकांत झा, जगदम्बी प्रसाद यादव, जगबंधु अधिकारी, जनार्दन यादव जैसे मंझे नेताओं के सामने सुशील कुमार मोदी, नंद किशोर यादव, नवीन किशोर प्रसाद सिन्हा जैसे नेता पार्टी की राजनीतिक कमान लेने को रंगमंच पर आ चुके थे. ये भी जेपी आंदोलन में शामिल थे. ये सभी विधायक, मंत्री और उप मुख्यमंत्री तो बने ही अपने राजनीतिक दृष्टिकोण का विस्तार भी किया.

1990 से लेकर इस सदी के तीसरे दशक का मध्य आते-आते अब राजनीतिक रंगमंच पर नयी पढ़ी अपनी पहचान गढ़ने को आ चुकी है. इसे संयोग ही कहा जायेगा कि जब लालू प्रसाद और नीतीश कुमार राजनीति में स्थापित होने को बढ़ रहे थे, तो उनके मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थे चचा गफूर. दोनों नेता उन्हें चचा कहकर ही पुकारते थे.

1977 में जब छात्र आंदोलन चल रहा था तब बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर थे. उनकी सत्ता को छात्र आंदोलन की ओर से चुनौती मिल रही थी. बाद में अब्दुल गफूर नीतीश कुमार की समता पार्टी से भी जुड़े. प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि इमरजेंसी के दौरान गफूर साहब राज्य के मुख्यमंत्री थे. उनके खिलाफ आंदोलन के दौरान अनेक आक्रामक नारे गढ़े गये. लेकिन उनकी पहचान एक बेहद ईमानदार नेता के तौर पर रही.

इत्तेफाक देखिए कि आज तेजस्वी जब राजनीति में खुद को मजबूती से स्थापित करने की ओर बढ़ रहे हैं, तो उनके सामने भी ‘चाचा’ हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तेजस्वी चाचा ही संबोधित करते हैं. तेजस्वी अपने पिता के बनाये राजद का नेतृत्व कर रहे हैं. लोकसभा के इस चुनाव में उनकी दो सौ से अधिक सभाएं हो चुकी हैं.

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी की राजनीतिक यात्रा राजद से शुरू हुई. उनके पिता शकुनी चौधरी कांग्रेस, राजद से होते हुए समता पार्टी और जदयू तक में रहे. वह नीतीश कुमार की सरकार में उप मुख्यमंत्री भी हैं. तेजस्वी यादव भी नीतीश कैबिनेट में उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं. इन दोनों नेताओं के साथ चिराग पासवान अपने पिता रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत को संभाल रहे हैं.

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