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शिक्षा के जरिये ही जनसंख्या नियंत्रण संभव कानून लाकर तो हम बागी तैयार कर बैठेंगे

जनसंख्या नियंत्रण पर छिड़ी चर्चा के बीच शिक्षा के जरिये ही जनसंख्या नियंत्रण संभव है. कानून बनाने से इसका समाधान नहीं निकलेगा. कानून लाने से हमारे ही लोग हमसे बागी हो जायेंगे. वर्तमान परिदृश्य में उत्तर प्रदेश ऐसा पहला राज्य नहीं है, जहां जनसंख्या नियंत्रण बिल लाया गया है.

बशिष्ठ नारायण सिंह

जनसंख्या नियंत्रण पर छिड़ी चर्चा के बीच शिक्षा के जरिये ही जनसंख्या नियंत्रण संभव है. कानून बनाने से इसका समाधान नहीं निकलेगा. कानून लाने से हमारे ही लोग हमसे बागी हो जायेंगे. वर्तमान परिदृश्य में उत्तर प्रदेश ऐसा पहला राज्य नहीं है, जहां जनसंख्या नियंत्रण बिल लाया गया है. इससे पहले राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा और हरियाणा जैसे राज्यों में भी कवायद की जा चुकी है. असम ने तो दो वर्ष पूर्व कानून बनाकर इस वर्ष इसे लागू करने का एलान भी किया था. जनता ने इस कानून को अपने पर थोपा हुआ जबरिया कानून माना और इन राज्यों में यह कानून फिसड्डी साबित हुआ.

सबसे पहले साल 2000 में राजस्थान सरकार ने ऐसा कानून लागू किया था, लेकिन 2018 में उसे इस कानून को लचीला बनाना पड़ा. राज्य के लोगों और खासकर सरकारी कर्मचारियों में इस कानून का जबरदस्त विरोध था. लिहाजा वसुंधरा राजे सरकार ने 2018 में इस कानून के कई प्रावधानों को खत्म कर दिया. ऐसा ही कुछ मध्य प्रदेश में भी हुआ. वहां भी लोगों के एतराज को देखते हुए कानून के कई प्रावधानों को बदला गया.

जनसंख्या-नियंत्रण सीधे तौर पर एक व्यक्ति के निजी जीवन के मसलों से जुड़ा हुआ संदर्भ है. इसमें व्यक्ति, परिवार, समाज और उसकी सुरक्षा सभी एक चक्र की भांति काम करते हैं. हमें बेटियों को सर्वाधिक शिक्षित करना होगा, तभी जाकर हम जनसंख्या को नियंत्रित कर सकेंगे. बाबा साहेब आंबेडकर ने भी इससे इतर सभी संभावनाओं को वर्षों पहले नकार दिया था. बीते कुछ दशकों में भारत में साक्षरता दर बढ़ने के साथ प्रजनन दर में कमी दर्ज की गयी है.

साल 2000 में प्रजनन दर 3.2 फीसदी थी, जो 2016 में 2.4 फीसदी पर आ गयी. भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर 1990 में 2.07 फीसदी थी, जो 2019 में एक फीसदी पर आ चुकी है. चीन के अतिरिक्त ईरान, सिंगापुर, वियतनाम, ब्रिटेन और हांगकांग सहित कई अन्य देशों ने भी दो बच्चों की नीति को लागू किया. बाद में उन्हें इस नीति को बदलना पड़ा क्योंकि इससे उम्मीद के मुताबिक कामयाबी नहीं मिली और सामाजिक समस्याएं अलग से खड़ी हो गयीं.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी कहना है कि इस तरह की समस्याओं को आप कानून के भय से नहीं अपितु सामाजिक-शैक्षणिक स्तर को उठाकर दूर कर सकते हैं. बिहार जैसे राज्यों में इसका सीधा असर देखने को मिला है. बुद्धिजीवियों का समूह भी इसी बात की ओर इशारा कर रहा है कि जनसंख्या नियंत्रण कानून के जरिए संभव नहीं है. यह जन-जागरूकता और स्त्री शिक्षा से जुड़ा हुआ मसला अधिक है.

पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में वर्ष 2015-16 में जहां दसवीं पास महिलाओं का प्रतिशत 22.80 फीसदी था, उस स्थिति में स्थिति में प्रजनन दर 3.4 फीसदी थी. जब 2019-20 में दसवीं पास महिलाओं का प्रतिशत 28 फीसदी हुआ तो प्रजनन दर घटकर तीन फीसदी पर पहुंच गयी. जब बारहवीं पास युवतियों के बीच सर्वे हुआ तो यह बात सामने आयी कि दसवीं पास महिलाओं के बनिस्पत परिवार-नियोजन के आंकड़ों और सामग्रियों के प्रति यह वर्ग और अधिक गंभीर है.

बिहार जैसे राज्यों में बिना शिक्षा के प्रचार-प्रसार के जनसंख्या पर नियंत्रण संभव नहीं है. इसलिए बिहार में लड़कियों की शिक्षा के लिए राज्य सरकार दिन-रात कम कर रही है. साइकिल योजना, पोशाक योजना, अलग-अलग परीक्षाओं को पास करने के बाद पुरस्कार योजना, ये सभी स्त्री-शिक्षा से जुड़ी हुई योजनाएं हैं, जिसका सकारात्मक परिणाम भी राज्य को मिल रहा है. इस क्रम में मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना की जितनी भी प्रशंसा की जाये उतनी कम होगी.

(लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं.)

Posted by Ashish Jha

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