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कभी रहा है मखाना मिथिलांचल की पहचान आज सीमांचल के किसानों में फूंक रहा जान

किसी जमाने में मिथिलांचल की पहचान बना मखाना आज सीमांचल के किसानों में जान फूंक रहा है. बदलते दौर में मखाना ने मिथिलांचल से निकलकर सीमांचल की राह पकड़ ली है.

पूर्णिया : किसी जमाने में मिथिलांचल की पहचान बना मखाना आज सीमांचल के किसानों में जान फूंक रहा है. बदलते दौर में मखाना ने मिथिलांचल से निकलकर सीमांचल की राह पकड़ ली है. पिछले एक दशक में पूर्णिया के भोला पासवान शास्त्री कृषि काॅलेज ने न केवल मखाना खेती की नयी तकनीक विकसित की बल्कि इसकी पढ़ाई के साथ किसानों को भी प्रेरित किया. इसी का नतीजा है कि पूर्णिया के मखाना की गूंज विदेशों तक पहुंच गयी है. समझा जाता है कि आने वाले दिनों में औषधीय गुणों से परिपूर्ण मखाना का निर्यात भी संभव हो पायेगा.गौरतलब है कि मखाना की खेती की शुरुआत मिथिलांचल से हुई थी. कहते हैं सत्रहवीं शताब्दी के पूर्व से ही मिथिलांचल में इसकी खेती होती थी.

पौराणिक तथ्यों की मानें तो राजा जनक के राज क्षेत्र में पड़ने वाले नेपाल के कुछ हिस्सों में भी मखाना की खेती की बातें आ रही हैं. मिथिलांचल में मखाना का सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठानों में एक विशिष्ठ स्थान प्राप्त है. बदलते दौर में मखाना उत्पादन को आर्थिक विकास से जोड़ा जाने लगा है. कम लागत, अधिक उत्पादन और बेहतर मुनाफा के तथ्य को कृषि काॅलेज के वैज्ञानिकों ने अपने शोध से किसानों के सामने रखा और देखते-देखते मखाना ने सीमांचल की राह पकड़ अपना दायरा बढ़ा लिया. वैसे यह इलाका भी किसी जमाने में मिथिलांचल का हिस्सा रहा है.

कीट व व्याधि प्रबंधन तकनीक विकसित कृषि काॅलेज की पहल पर यहां न केवल मखाना में कीट व व्याधि प्रबंधन तकनीक विकसित की गयी बल्कि अनुसंधान कर उन्नतशील प्रभेद सबौर मखाना-1 का प्रयोग शुरू किया गया. भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय के प्राचार्य डा. पारसनाथ और कृषि वैज्ञानिक डा. अनिल कुमार के साथ डा. पंकज कुमार व अन्य वैज्ञानिकों ने के कुशल मार्गदर्शन में निरंतर प्रयास से मखाना के सर्वांगीण विकास को गति दे गयी. इस दौरान 200 से अधिक कार्यशाला, प्रशिक्षण, प्रक्षेत्र दिवस आदि कार्यक्रम आयोजित कर किसानों को जागरूक कर मखाना उद्योग में व्याप्त एकाधिकार को काफी हद तक कम किया गया.

कहते हैं प्राचार्य मखाना उत्पादन को बढ़ावा देने में वैज्ञानिकों की मेहनत तो रही ही है पर इसमें हमें बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर के कुलपति डा. अजय कुमार सिंह व प्रसार शिक्षा के निदेशक डा. आर के सोहाने का भी मार्गदर्शन मिलता रहा है. मिथिलांचल में अभी भी मखाना का उत्पादन हो रहा है पर सीमांचल भी मखाना के बड़े हब के रूप में विकसित हो रहा है. डा. पारसनाथ, प्राचार्य, कृषि कालेज, पूर्णिया

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