कभी ‘पुरैनियां’ में एक सौम्य नदी बहती थी सौरा. कोसी की तरह इसकी केशराशि सामान्य दिनों में छितराती नहीं थी. जो ‘जट’ कभी अपनी ‘जटिन’ को मनटिक्का देने का वादा कर ‘पू-भर पुरैनियां’ आते थे, उन्हें यह कमला नदी की तरह दिखती थी. जटिन जब अपनी कोख बचाने के लिए खुद पुरैनियां आती थी, तो गुहार लगाती थी- हे सौरा माय, कनी हौले बहो… ननकिरबा बेमार छै… जट से भेंट के बेगरता छै… और दुख से कातर हो सौरा नदी शांत हो जाती थी. लेकिन थी वह एक ‘जब्बर नदी’. जब्बर ऐसी कि कभी सूखती ही नहीं थी. अब यह दुबली हो गयी है. दाना-पानी बंद हो गया है. हम इसे मरते देख रहे हैं. मजबूरी ऐसी कि हम शोकगीत भी नहीं गा सकते!
सौर्य संस्कृति की संवाहक सौरा पर कंक्रीट के जंगल
अखिलेश चन्द्रा
पूर्णिया : पूर्णिया शहर को दो हिस्सों में बांटने वाली सौरा नदी को सौर्य संस्कृति का संवाहक माना गया है. पिछले कुछ वर्षों से इस पर जमीन के कारोबारियों की काली नजर लग गयी है.
जो कभी कल-कल ध्वनि के साथ अनवरत बहती रहती थी, वहां कंक्रीट के जंगल फैल गये हैं. पहले विभिन्न जगहों से सैकड़ों धाराएं सौरा से मिलती थी और इसके प्रवाह को रफ्तार देती थी, लेकिन अब ऐसी धाराएं गिनती की रह गयी हैं. कारी कोसी से निकलनेवाली धारा भी पूर्णिया कॉलेज के पिछले हिस्से से होकर सौरा से मिला करती थी, लेकिन इसमें भी जगह-जगह पक्के के मकान खड़े कर दिये गये. नतीजतन सौरा की चौड़ाई कम होती जा रही है.
सौरा को संजीवनी देनेवाली धाराओं के मुंह इसी तरह बंद किये जाते रहे, तो अगली पीढ़ी सौरा को ‘सरस्वती’ के रूप में याद करेगी और उसके अस्तित्व की तलाश करेगी. जिस तरह सूर्य से हमें ऊर्जा मिलती है, उसी तरह नदियां जीवन की प्रवाह हैं.
सौरा नदी पूर्णिया की कुछ इसी तरह सींचती रही है. यहां का अतीत जितना समृद्ध रहा वर्तमान उतना ही कष्टदायक प्रतीत हो रहा है. बुजुर्ग भी कहते हैं कि कभी न सूखने वाली सौरा नदी ने पिछले साल पहली बार अपना रौद्र रूप दिखाया और ग्रामीण इलाकों में सैलाब बन कर तबाही भी मचायी.
सांस्कृतिक महत्व से भरी-पूरी है सौरा : सौम्य-सी दिखने वाली सौरा नदी का इस इलाके में सांस्कृतिक महत्व भी रहा है. हालांकि इसके नामकरण को लेकर अब भी शोध किये जा रहे हैं. लेकिन, यह माना जाता है कि सूर्य से सौर्य और सौर्य से सौरा हुआ, जिसका तारतम्य जिले के पूर्वी अंतिम हिस्से से सटे सुरजापुर परगना से जुड़ा रहा है.
पूर्णिया-किशनगंज के बीच एक कस्बा है सुरजापुर, जो परगना के रूप में जाना जाता है. बायसी-अमौर के इलाके को छूता हुआ इसका हिस्सा अररिया सीमा में प्रवेश करता है. यह इलाका महाभारतकालीन माना जाता है, जहां विशाल सूर्य मंदिर का जिक्र आया है. पुरातत्व विभाग की एक रिपोर्ट में भी सौर्य संस्कृति के इतिहास की पुष्टि है. वैसे यही वह नदी है, जहां आज भी छठ महापर्व के मौके पर अर्घ देने वालों का बड़ा जमघट लगता है.
गिधवास के समीप लेती है आकार
अररिया जिले के गिधवास के समीप से सौरा नदी अपना आकार लेना शुरू करती है. वहां से पतली-सी धारा के आकार में वह निकलती है और करीब 10 किलोमीटर तक उसी रूप में चलती है. श्रीनगर-जलालगढ़ का चिरकुटीघाट, बनैली-गढ़बनैली का धनखनिया घाट और कसबा-पूर्णिया का गेरुआ घाट होते हुए सौरा जब बाहर निकलती है, तो इसका आकार व्यापक हो जाता है और पूर्णिया के कप्तानपुल आते-आते इसका बड़ा स्वरूप दिखने लगता है.
यह नदी आगे जाकर कोसी में मिल जाती है. एक समय था, जब सौरा इस इलाके में सिंचाई का सशक्त माध्यम थी. मगर, बदलते दौर में न केवल इसके अस्तित्व पर संकट दिख रहा है, बल्कि इसकी महत्ता भी विलुप्त होती जा रही है.
आज पुल भी है प्यासा
नदी के आसपास के हिस्से पर आज कंक्रीट के जंगल खड़े हो गये हैं.पूर्णिया में सौरा नदी के पानी केसभी लिंक चैनल बंद हो गये. अंग्रेजों के समय सौरा नदी का पानी निकलने के लिए लाइन बाजार चौक से कप्तान पुल के बीच चार पुल बनाये गये थे. ऊपर से वाहन और नीचे से बरसात के समय सौरा का अतिरिक्त पानी निकलता चला जाता था. आज पुल यथावत है, पर उसके नीचे जहां नदी की धारा बहती थी, वहां इमारतें खड़ी हैं. इधर मूल नदी का आकार भी काफी छोटा हो गया है. नदी के किनारे से शहर सट गया है.