कहां गायब हो रही हैं देसी नस्ल की मछलियां

पूर्णिया: देसी नस्ल की प्राय: सभी प्रकार की मछलियां लुप्त हो रही हैं, जिससे मछली खाने के शौकीनों में भारी निराशा देखने को मिल रही है. यदा-कदा देसी नस्ल की मछली कहीं दिख भी जाती है तो बाजार तक नहीं पहुंच पाती है. घाट पर ही मुंह मांगी कीमतों में बिक जाती है, जो साधारण […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 16, 2015 11:17 AM
पूर्णिया: देसी नस्ल की प्राय: सभी प्रकार की मछलियां लुप्त हो रही हैं, जिससे मछली खाने के शौकीनों में भारी निराशा देखने को मिल रही है. यदा-कदा देसी नस्ल की मछली कहीं दिख भी जाती है तो बाजार तक नहीं पहुंच पाती है. घाट पर ही मुंह मांगी कीमतों में बिक जाती है, जो साधारण लोगों की जेब पर काफी भारी बैठता है.
लुप्तप्राय मछलियां
सिंघी, मांगूर, सौरा, कबई, बुआरी, रेबा, पपता, कपटी, दढ़ही, दांती पोठी सहित तमाम मछलियां लुप्त होने के कगार पर हैं. इन मछलियों के खाने के शौकीन हाथ मल कर रह जाते हैं. इनमें से कई मछलियों को डॉक्टर रोगियों को खाने की सलाह देते थे. लुप्त होने के कगार पर इन मछलियों को खाने की सलाह देने के बावजूद भी मरीज खा नहीं पाते हैं.
कीटनाशकों का प्रयोग पड़ रहा भारी
इन मछलियों का उत्पादन प्राय: जलाशयों, जलकरों सहित जल जमाव वाले स्थानों में होती थी. बताया जाता है कि खेत खलिहानों में सर्वाधिक रसायनों एवं कीटनाशकों का प्रयोग होने के कारण इन देसी नस्ल की मछलियों को नुकसान पहुंचा है, जिसके कारण धीरे-धीरे मछलियां लुप्त होने के कगार पर है.
काफी महंगी बिकती हैं देसी मछलियां
कभी-कभार बाजार या घाटों पर ये मछलियां दिख भी जाती है तो इसकी कीमत आम आदमी की पहुंच से काफी दूर होती है. सिंघी मछली पांच सौ रुपये प्रति किलो, मांगूर छह सौ, सौरा चार सौ, कबई चार सौ प्रति किलो बिकता है, जिसे खरीदने में सांस फूलने लगती है.
विभाग प्रयासरत
लुप्त प्राय इन मछलियों में से कुछ मछलियां यथा सिंघी, मांगूर एवं कबई के उत्पादन पर विभाग विचार कर रही है. इन मछलियों के बीज निर्माण की प्रक्रिया में विभाग सक्रिय है. विभाग का दावा है कि प्रयोग सफल हो गया तो वह दिन दूर नहीं जब देशी नस्ल की समस्त मछलियों की किल्लत स्वत: समाप्त हो जायेगी.
कृष्ण कन्हैया प्रसाद, जिला मत्स्य पालन पदाधिकारी, पूर्णिया

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