Ramdhari Singh Dinkar Birthday: रामधारी सिंह दिनकर का आज जन्मदिन है. ऐसे में सभी उन्हें याद कर रहे हैं. रामधारी सिंह दिनकर के बारे में बता दें कि उन्हें जिस पुस्तक के लिए साहित्य अकादमी सम्मान मिला था. उस पुस्तक की पांडुलिपी ही खो गई थी. बता दें कि यह सर्वविदित है कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को उनकी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था. लेकिन, कई लोगों को इसकी जानकारी नहीं है कि उनकी इस किताब की पांडुलिपि ही खो गयी थी. पांडुलिपि के खोने की खबर रेडियो से भी प्रसारित की गयी थी और पुलिस में इसके गुम होने की रिपोर्ट भी दर्ज करायी गयी थी.
संयोग से उन्हें इस किताब के तीन अध्याय की दूसरी प्रतिलिपि उनके पास कहीं पड़ी थी. फिर बाद में उन्होंने इस किताब का चौथा अध्याय लिखा था. पांच साल के जी तोड़ मेहनत के बाद लिखी गयी इस किताब की भूमिका तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी. दिनकर की पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ छपी तो उस पर काफी चर्चा हुई. कई लोगों को यह किताब पसंद आई. लेकिन, व्यकरणाचार्य किशोरी दास वाजपेयी को दिनकर की इस किताब पर आपत्ति दर्ज की थी. साथ ही उन्होंने उसके जवाब में ‘संस्कृति के पांच अध्याय’ नामक पुस्तक लिखी. सबसे दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने अपनी उस किताब की भूमिका दिनकर से ही लिखवायी थी. इस भूमिका का किस्सा भी काफी दिलचस्प है.
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सुधांशु रंजन ने अपनी किताब में लिखा है कि दिनकर ने नेहरू जी से जबरदस्ती यह भूमिका लिखवाई थी. नेहरू जी का कहना था कि उनके पास इतना समय कहां कि वह इतनी मोटी किताब पढ़ें और भूमिका लिखें. दिनकर नेहरू के प्रशंसक थे और नेहरू के दृष्टिकोण से उनकी काफी हद तक समानता है. इस्लामिक आक्रमण को लेकर यह संभव है कि नेहरू से भूमिका के लिए उन्हें अपनी बेबाकी छोड़नी पड़ी हो. इसका थोड़ा आभास दिनकर के अपने शब्दों से ही मिलता है- ‘संस्कृति के चार अध्याय” की भूमिका मैंने उनसे जबर्दस्ती लिखवायी थी. इस बात के लिए मुझे उन्हें कई बार टोकना पड़ा. एक बार तो जब मैंने उन्हें टोका, तो इंदिरा जी पास ही खड़ी थीं. इस दौरान इंदू जी की ओर मुखातिब होकर रुआंसी आवाज में बोले, ‘देखो इंदिरा, दिनकर भी कितनी ज्यादती पर उतर आया है. भला मेरे पास इतना वक्त कहां है कि उतनी मोटी किताब को देखूं और उसकी भूमिका लिखूं!”
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उस दिन तो दिनकर चुप रह गये, लेकिन दोबारा संसद की गैलरी में नेहरू से टकरा गये और उन्हें प्रसन्न मुद्रा में देखकर कहा- “भूमिका आपको लिखनी ही पड़ेगी. मैं आपके काम को आसान बनाये देता हूं.’ वह बोले, आसान कैसे बना सकते हो? इस पर दिनकर ने जवाब दिया- ‘भूमिका लिखने से भागने का असली कारण समयाभाव नहीं है, गरचे कौन कह सकता है कि आपको दम मारने की भी फुरसत मिल सकती है? असली बात यह है कि संस्कृति के विषय में आपके घोषित मत हैं और आपको भय होता है कि मैं आपको किसी विवाद में न फंसा दूं. अतएव, जहां-जहां मेरे मत आपके मतों से भिन्न हैं, वहां मैं ध्वज लगा देता हूं. आप उन अंशों को पढ़ जाइए. बाकी पुस्तक भर में ऐसी कोई बात नहीं है, जिसके कारण भूमिका लिखकर आपको पछताना पड़े.’ दिनकर ने वैसा ही किया और चार दिनों में ही नेहरू ने लंबी-सी भूमिका अंग्रेजी में भेज दी. यह भूमिका नहीं, भारतीय संस्कृति पर उनका निबंध था. पुस्तक के छपते ही पूरी दुनिया में उस भूमिका की चर्चा होने लगी और उस पुस्तक को छापने के लिए विदेशों से तार-पर-तार आने लगे.
रामधारी सिंह दिनकर पर बहुत लोगों ने लिखा है. लेकिन, सुधांशु रंजन की किताब ‘रामधारी सिंह दिनकर मन्यु एवं माधुर्य का संग’ किसी भी पूर्वाग्रह से रहित लिखी गयी है. साथ ही इसमें सभी तथ्यों को रखा गया है. इसमें महिमामंडन का प्रयास नहीं किया गया है. ऐसा कहा जाता है कि दिनकर को समझने के लिए यह किताब जरुर पढ़नी चाहिए.