फूल मरै पै, मरै न बासु..
– धनंजयपाठक – प्रसिद्ध नाटककार रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ लोहा सिंह की पुण्यतिथि आज सासाराम : ‘फाटक बाबा, खदेरन की मदर हरदम हमारा साथ हाइ क्वालटी (क्वालिटी) का कनेक्शन आऊर बदरेशन करती है. हमारा इज्जत का साइन बोर्ड पर कऊआ के माफिक लोल चलावती है, आऊर इन्सलेट (इंसल्ट– बेआबरू) करती है. काबुल के मोरचा पर […]
– धनंजयपाठक –
प्रसिद्ध नाटककार रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ लोहा सिंह की पुण्यतिथि आज
सासाराम : ‘फाटक बाबा, खदेरन की मदर हरदम हमारा साथ हाइ क्वालटी (क्वालिटी) का कनेक्शन आऊर बदरेशन करती है. हमारा इज्जत का साइन बोर्ड पर कऊआ के माफिक लोल चलावती है, आऊर इन्सलेट (इंसल्ट– बेआबरू) करती है.
काबुल के मोरचा पर हम एक से एक हाइ क्वालटी का लाफ्टेनेंट का मेम आऊर सारजेंट का मेमिन देखा, बाकी इसके डिजैन का एको नहीं मिला. जानते हैं फाटक बाबा! मरद आपन मगज (दिमाग) को इस्तेमाल करता है, एही से उसके कपार का बार उड़िया जाता है, मेहरारू हरदम अपना मुंह से चर–चर करती है, एही से ऊ सबके दाढ़ी मोछ नहीं होखता है.’
अब इन शब्दों को रचने व अपनी कड़क आवाज देनेवाले हमारे बीच नहीं हैं. एक जमाना था, जब रोहतास जिले के इस सपूत द्वारा लिखित नाटक का रेडियो पर आनंद लेने के लिए बच्चे से लेकर बूढ़े व आम से खास तक बेसब्री से इंतजार करते थे. साहित्य की अनूठी लेखनी के मालिक रहे लोहा सिंह ने सासाराम के सेमरा गांव के एक कुलीन परिवार में 12 अगस्त 1927 को जन्म लिया था. उनका असली नाम था रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ लोहा सिंह.
उन्होंने साहित्य के साथ–साथ राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभायी थी. कश्यप जी को आज प्राय: लोग भूल गये हैं. भले ही अब वह हमारे बीच नहीं हैं और रेडियो पर प्रसारित होनेवाला ‘लोहा सिंह’ नाटक का प्रसारण भी बंद है, लेकिन लोगों की जुबान पर अब भी नाटक वाले फाटक बाबा के संवादों के प्रमुख अंश मौजूद हैं. उनकी कृति अब भी जीवित है.
यह वैसे ही है, जैसे फूल के मुरझा जाने के बाद भी उसकी महक कायम रहती है. ‘फूल मरै, पै मरै न बासु’. हालांकि यह जरूर है कि लोहा सिंह का नाम लोगों की जेहन से धीरे–धीरे दूर हो रहा है. बहरहाल, सरकार ने भी देश कौन कहे, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाट्य विधा में अमिट पहचान बनानेवाले इस शख्स को मानो बिसार ही दिया है.
ज्वलंत उदाहरण है जिला मुख्यालय स्थित पोस्ट ऑफिस चौक पर उनके आवास तक जानेवाले संपर्क पथ की खस्ताहाली.
पद्मश्री लोहा सिंह के नाम पर बने इस पथ को अब एक तारणहार की जरूरत है. पद्मश्री, बिहार गौरव व बिहार रत्न से विभूषित लोहा सिंह, सरकार को काफी समय बाद बिहार शताब्दी समारोह में याद आये थे. उनके नाम सम्मान की एक नयी योजना शुरू कर उनके योगदान को जीवित रखने का प्रयास किया गया.
कश्यप जी शिक्षा पूरी करने के बाद 1950 में बीएन कॉलेज पटना के प्राध्यापक बने. उसके बाद 1989 में शांति प्रसाद जैन कॉलेज सासाराम में प्राचार्य के पद पर आसीन हुए. 1989 में ही लोहा सिंह भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष भी चुने गये. कश्यप जी का पहला भोजपुरी नाटक 1948 में ‘तसलवा तोर कि मोर’ व ‘मछरी’प्रसारित हुए थे, जो काफी लोकप्रिय रहे.
फिर ‘खदेरन की मदर’ वाले लोहा सिंह नाटक ने तो लोगों को उनका दीवाना ही बना दिया. गांव की चौपाल की बात कौन कहे, शहर के आलीशान फ्लैट्स में रहनेवाले लोग भी बस समय का इंतजार करते थे कि रेडियो पर कब लोहा सिंह नाटक का प्रसारण होनेवाला है. उनके नाटक ‘आंवले का मुरब्बा, लोहा सिंह नया मोरचा व लोहा सिंह’ चर्चित रहे. ‘बैयार में जम्हाई पसीज रहल बा. देह के पोर– पोर में टटइनी के लहर कांप जात बा. मन में कुछ अइसन बिछलहरी भइल बा कि बिचार में टंगरी छहल छहल जाता.
कुछुओ मन पर टिकत नईखे.
कवनो चीज पर चित जमत नईखे, कतहूं तबीयत रमत नईखे. जीव गुलाबी धुआं में डूब रहल बा, ऊतरा रहल बा, कान सुनत नईखे, बाकी लऊक जाता. नियरा पंजरा के चीज भी दूर हो गईल बा. मन केहु के खोजे चल गइल बा’. फागुन नामक उनका ललित निबंध भी लोगों को काफी प्रभावित किया. नाट्य व निबंध विधा के इस महारथी ने 24 अक्तूबर, 1992 को लोगों से अंतिम विदाई ले ली.