अरूण कुमार, पूर्णिया: यूं तो अपने देश में क्रिकेट का चारों तरफ बोलबाला है. देश के किसी गली-मोहल्ले चले जाइए, आपको क्रिकेट खेलते बच्चे मिल जायेंगे. लेकिन हम एक एसे गांव लिये चलते हैं, जहां क्रिकेट का नहीं बल्कि फुटबॉल का सिर्फ रोमांच देखने को मिलता है. फुटबॉल का जोश, जुनून और दीवानगी इस हद तक है कि यहां हर दूसरे घर में एक फुटबॉलर है. जो नहीं हैं वो फुटबॉलर बनने के लिए दिन रात मेहनत कर रहा है.
गांव के लड़कों की हर सुबह दौड़ से शुरू होती है. शाम ट्रेनिंग के साथ खत्म होती है. यहां की मिट्टी की खुशबू ही है, जो उन्हें खिलाड़ी बनने के लिए प्रेरित करती है. बात हो रही है पूर्णिया के झील टोला की. पूर्णिया शहर से महज तीन किलोमीटर दूर बसा है यह टोला. नाम भले ही झील टोला हो पर यहां अब न तो झील है और न पक्षी. अब यह टोला फुटबॉलर गांव के नाम से जाना जाता है. झील टोला का इतिहास बहुत पुराना नहीं है. दो सौ आबादी वाले इस गांव में अधिकांश आदिवासी समाज के ही हैं.
फुटबॉल के प्रति युवकों की दीवानगी को देखते हुए 1980 के दशक में गांव के कुछ लोगों ने सरना फुटबॉल का गठन किया था. तब से लेकर अब तक एक से बढ़ कर एक फुटबॉल खिलाड़ी यहां से निकले. पिछले 40 सालों से यह सिलसिला यूं ही जारी है. यहां के खिलाड़ी अंडर-14, अंडर-17 और अंडर-19 के साथ ही नेशनल टीम में हिस्सा ले चुके हैं.
गांव के पास बने मैदान में बारह मास यहां के युवक फुटबॉल का प्रैक्टिस करते हैं. यहां से कई खिलाड़ी राज्य और देश स्तर पर अपनी पहचान बना चुके हैं. इसी गांव के सुमन कुजुर राष्ट्रीय स्तर तक खेल चुके हैं. फुटबॉल का जुनून ऐसा कि उनका दो बार पैर भी टूट गया. लेकिन फुटबॉल खेलना उन्होंने कभी बंद नहीं किया. पांच साल पहले अमित लकड़ा जूनियर नेशनल सुब्रतो कप में खेलने जम्मू गये थे. इसी गांव के राहुल तिर्की और सौरव तिर्की दोनों सगे भाई हैं. अभी हाल ही में संतोष ट्राफी के कैंप में शामिल हुए हैं. सरना क्लब के सचिव शुभम आनंद ने बताया कि फुटबॉल यहां की दिनचर्या में शामिल है. कोई पढ़ाई के साथ-साथ खेलता है तो कोई काम के बाद खेलता है.
झील टोला का आदिवासी समाज फुटबॉल टूर्नामेंट को किसी उत्सव से कम नहीं मानते. जब कभी कोई टूर्नामेंट होता है, तो पूरे गांव को लोग जुटते हैं. हर साल यहां अगस्त माह में अंतर जिला टूर्नामेंट होता है. सरहुल में लोग आयें या नहीं पर इस टूर्नामेंट को देखने के लिए लोग खास तौर से छुट्टी लेकर यहां आते हैं. पंद्रह दिनों तक चलनेवाले इस टूर्नामेंट का फाइनल हर साल 15 अगस्त को होता है. उस दिन गांव के जवान से लेकर बूढ़े तक सभी मैदान में मैच देखने के लिए व्याकुल रहते हैं.
गांव वाले बताते हैं कि यहां के अधिकांश युवक फौज में हैं. फुटबॉल उनके लिए मददगार साबित हो रहा है. यही वजह है कि यहां हर घर के युवा बचपन से ही फुटबॉल में रम जाते हैं. इस गांव के एक दर्जन युवक आज देश की सरहद पर हैं. वे सभी पहले सरना क्लब से फुटबॉल खेलते थे. गांव के हरि कुजूर बताते हैं कि इन लोगों की प्रेरणा से आज की युवा पीढ़ी भी खेल में दिलचस्पी ले रहे हैं. उनका असली मकसद सिर्फ और सिर्फ फौजी बनना है. अमूमन हर साल यहां से कोई न कोई युवक फौज में भर्ती होता है.
गांव के लोग बताते हैं कि सरकार की ओर से कभी कोई मदद नहीं मिलती. आज भी कई खिलाड़ी बेहतर खेल रहे हैं लेकिन उचित प्रोत्साहन और संसाधन के अभाव में अपनी मुकाम तक नहीं पहुंच पा रहे हैं. गांव के सीनियर खिलाड़ियों और समाज के लोगों की मदद से यह क्लब चलता है. खासतौर से जो खिलाड़ी बाहर जॉब में हैं, वे काफी सहयोग करते हैं. खेलों के प्रति युवाओं के रूझान से अच्छी बात यह है कि इस गांव का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं रहा है.
यहां के युवाओं पर फीफा वर्ल्ड कप का फीवर सर चढ़कर बोल रहा है. क्रिकेट के दो-तीन नामचीन खिलाड़ियों के बाद भले ही उन्हें अन्य का नाम याद न हो पर फुटबॉल विश्व कप के अधिकांश खिलाड़ियों का नाम उन्हें कंठस्थ है. रोनाल्डो, नेमार और मेस्सी उनके आदर्श खिलाड़ी हैं. संजीव सोरेन बताते हैं कि क्रिकेट भले ही न देखें पर फुटबॉल देखना नहीं भूलते. मैच देखने से बहुत कुछ सीखने को मिलता है. नयी तकनीक की तो जानकारी मिलती ही है साथ ही अच्छे खिलाड़ियों को देखकर प्रेरणा भी मिलती है.