सहरसा से कुमार आशीष
भारत साधु-संत एवं लोकदेवताओं का देश रहा है. सौभाग्य से बिहार के कोसी का इलाका लोकदेवताओं के लिहाज से समृद्ध रहा है. उन्हीं लोकदेवताओं में से 17वीं सदी के एक बाबा कारू खिरहर का नाम भी प्रमुखता से शामिल है. कहते हैं कि पशुओं के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण ने इन्हें देवताओं की श्रेणी में खड़ा का दिया. आज ये लाखों-करोड़ों लोगों की आस्था के प्रतीक है. मान्यता है कि कारू बाबा स्थान में मांगी जाने वाली सभी मनोकामनाएं निश्चित रूप से पूरी होती है.
कोसी के गर्भ में बना है भव्य मंदिर
सहरसा जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर पश्चिम पूर्वी कोसी तटबंध से सटे नदी के गर्भ में बाबा कारू खिरहर का विशाल व भव्य मंदिर है. मंदिर की विशेषता यह है कि कोसी नदी में हर साल आने वाली बाढ़ आसपास भारी तबाही मचाती है. लेकिन कोसी की मचलती धारा मंदिर से सटकर पूरी तरह शांत हो जाती है. नदी के उतावलेपन ने आज तक मंदिर या मंदिर के भूभाग को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया है. यहां प्रत्येक दिन श्रद्धालुओं का आना लगा रहता है. मान्यता है कारू स्थान में बाबा से मांगी जाने वाली हर मुराद पूरी होती है. मनोकामना पूर्ण होने के बाद लोग बाबा का आभार जताने व चढ़ावा चढ़ाने दोबारा जरूर आते हैं.
दिनभर बनता और बंटता रहता है खीर
बाबा कारू खिरहर पशुपालक से पशु चिकित्सक बने थे. आज भी पशुपालकों की मान्यता है कि मवेशियों के किसी भी तरह की परेशानी को दूर करने के लिए बाबा कारू का नाम, उनकी आराधना ही काफी है. इसीलिए पशुपालक अपने मवेशी का पहला दूध बाबा को अर्पण करते हैं. आज भी प्रत्येक दिन बाबा को सैंकड़ों क्विंटल दूध, चावल और चीनी का चढ़ावा चढ़ाने की परंपरा बनी हुई है.
इसी चढ़ावे से कारू खिरहर मंदिर में दिनभर खीर का प्रसाद बनता और बंटता रहता है. आश्विस मास में मनाये जाने वाले दुर्गापूजा की सप्तमी को हजारों की यह भीड़ लाखों में तब्दील हो जाती है. उस दिन बाबा को इतने अधिक लोग दुग्धाभिषेक करते हैं कि बहते हुए दूध से पीछे बह रही कोसी नदी का जल पूरी तरह सफेद हो जाता है और लोग दूध की नदी का साक्षात दर्शन करते हैं.