Saharsa news : बाढ़ ने लोगों का सबकुछ छीन लिया. घर-द्वार, फसल सब नष्ट हो गया, लेकिन कहते हैं कि कुछ भी हो जाये जीवन रुकता नहीं है. उम्मीद की लौ के सहारे लोगों का जीवन चलता रहता है. दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए यहां के बच्चे बड़े होते ही दूसरे प्रदेशों के लिए ट्रेन पकड़ लेते हैं. घर में रह जाते हैं, तो बूढ़े माता-पिता, पत्नी और बच्चे. बाहर में मजदूरी कर ये घर पैसे भेजते हैं, तो जीवन की गाड़ी जैसे-तैसे चलती रहती है. दशहरा बीत गया और अब दीवाली व छठ महापर्व सामने है. परदेस गये लोग छठ पूजा के लिए घर लौटने लगे हैं. माता-पिता, पत्नी और बच्चे परदेसियों की राह देखने लगे हैं. इनके घर आते ही कुछ दिन के लिए परिजन बाढ़ का जख्म भी भूल जाते हैं. पर, त्योहार बीतते ही एक बार फिर से पलायन शुरू हो जाता है, जिसका समाधान निकट भविष्य में होता नहीं दिख रहा है. लोगों का कहना है सरकार को इस समस्या पर गंभीरता से काम करना चाहिए.
उम्मीद बेटे से, दूर परदेस से भेजेगा पैसे
पानी के उतरने के बाद भी न कोसी शांत होती है और न ही तटबंध के अंदर के पीड़ित लोग. कटनिया, नये जगह में गाद, घरों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना जैसी कई समस्याओं से लोगों को रूबरू होना पडता है. सरकार द्वारा प्राप्त राहत की राशि नाकाफी होती है, फिर भी जैसे-तैसे काम चलता है और परिवार के दूसरे सदस्यों का दूर परदेस जाकर कमाने का सिलसिला शुरू हो जाता है. वह परदेस जाते हैं और वहां से पैसा अपने परिवार को भेजते हैं. इससे उनका भरण-पोषण और जीवन को पटरी पर लाने का काम शुरू हो जाता है. कहते हैं कि 65 वर्ष बाद भी कोसी में बाढ़, बदहाली, विपदा और पलायन की दास्तां एक से दो वर्ष के अंतराल पर दुहरा जाती है. जिंदगी ने मानो समझौता कर लिया है. रसलपुर के अनिल यादव कहते हैं कि बाबू हमरा त बेटे से उम्मीद छै कि ऊ भेजते पैसा त हम सब जिबैए और घर बनैबै, फेर कोसी मैया जहिया आबै.
ट्रेनों में भर-भर कर दूसरे प्रदेश जाने की विवशता
दर्द की सिलवटों से कोसी को कभी निजात नहीं मिली. राजनीतिक धुरंधरों ने जब 65 साल पूर्व बांध बनाया, तो सोचा कि कोसी को हमने तटबंधों के बीच में कैद कर लिया. अब समस्या नहीं होगी. जमीन सोना उगलेगी और इस क्षेत्र में रहनेवाले लोग स्थायी जीविका प्राप्त कर सकेंगे. पर, सोचा क्या, हुआ क्या. बरसों बाद भी कोसी पीड़ित सरजमीं पर क्या देख रहे हैं. बाढ़ की विभीषिका खत्म नहीं हुई. एकड़ों में फैली मकई, धान की फसलें समाप्त हो गयीं. जिन्होंने किनारे पर और बाहर मखाना और मछली का कारोबार किया, वह भी समाप्त हो गया. विपदा के बाद फटेहाल परिवार राहत के लिए दौड़ते-भागते नदी में गिरते रहे. विपदा के मारे लोगों की तस्वीर और कहानियों ने मीडिया में जगह ले ली. यह कोई नयी बात नहीं है. दर्द की दास्तान जो बनी है, उसके बाद फिर शुरू हो जाता है पलायन. कोसी के इलाकों से लोग दूर परदेस जाकर मजदूरी कर यहां रह रहे अपने परिवार के भरण पोषण के लिए संघर्ष करते हैं. बाढ हर बार सब छीन लेती है और आशियाना बसाने की तैयारी फिर से शुरू करनी पड़ती है. वे परदेस जाते भी इसीलिए हैं. ट्रेनों से भर-भर के दूर राज्यों में नौकरी के लिए जाने का सिलसिला शुरू हो जाता है, जो यह बताने के लिए काफी है कि सरकार का गरीबी उन्मूलन प्रोग्राम का क्या कुछ हुआ. समाधान के लिए अब भी उतने ही सवाल पूछे जा रहे हैं.
कहां गया कोसी का विकास प्राधिकरण
भारत और नेपाल से होकर बहनेवाली कोसी का प्रभाव क्षेत्र 61788 वर्ग किलोमीटर है. दोनों देशों में कई बड़े इलाके इस नदी के बहाव क्षेत्र से प्रभावित होते हैं. लोगों के जीवन स्तर में सुधार के लिए परियोजना तैयार की गयी. कोसी बेसिन प्रोग्राम भी इन्हीं में से एक था, जिसे गरीबी उन्मूलन और इकोसिस्टम को ध्यान में रखकर बनाया गया. पर, गरीबी उन्मूलन तो नहीं हो सका, समस्याओं के मकड़जाल में जलजमाव बांध से बाहर के लोगों के लिए भी एक अलग मुसीबत बन गया. 1987 में भी कोसी तटबंधों के बीच बसे लोगों की सुरक्षा व उनके आर्थिक विकास और अन्य समस्याओं के समाधान के लिए तत्कालीन मंत्रिमंडल ने कई निर्णय लिये थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दूबे ने इस निर्णय के आलोक में ही कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार का गठन किया था. तत्कालीन कृषि मंत्री और महिषी विधानसभा क्षेत्र के लहटन चौधरी, सांसद, पांच विधायक के अलावा योजना विकास आयुक्त, कृषि विकास आयुक्त, समाज कल्याण आयुक्त, भूमि सुधार आयुक्त, सहाय्य एवं पुनर्वास सचिव, प्रमंडलीय आयुक्त सहरसा, प्रमंडलीय आयुक्त दरभंगा, सहरसा डीएम, सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता सहित सचिव स्तर के कुछ और अधिकारी इसके पदेन सदस्य बनाये गये. कई वर्ष पूर्व तक इसके ऑफिस व सदस्यों को लेकर यह कहा जाने लगा कि यह कागजी अभियान बनकर रह गया है.
समाधान भविष्य के गर्भ में
जानकार कहते हैं कि वर्ष 2009 में इससे संबंधित एक मीटिंग सहरसा के शंकर चौक स्थित विवाह भवन में भी हुई थी. पर, बाद में सरकार ने इस प्राधिकार को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया. अब फिर से इसे पुनर्जीवित करने की मांग उठ रही है. गौरतलब यह है कि कोसी के तटबंध और उससे जुड़ी सभी परियोजनाओं को लोग खाओ-पकाओ वाली योजना ही मानते हैं. कोसी जीवनदायिनी नदी है, जिसे बिहार के शोक से नवाजा गया. अब कोसी मेंची नदी परियोजना से बाढ़ की समस्या से निजात की बात भी बतायी जा रही है, लेकिन सारी समस्याएं सामने हैं और इसका समाधान भविष्य के गर्भ में अब तक छिपा हुआ है.