मिटने लगा है पारंपरिक जल श्रोत का अस्तित्व

मिटने लगा है पारंपरिक जल श्रोत का अस्तित्व

By Prabhat Khabar News Desk | May 20, 2024 8:47 PM

लोगों की आधुनिक जीवनशैली के कारण जगह-जगह मृतप्राय बन चुका है कुआं पतरघट. कभी गांव की शान समझा जाने वाला कुआं लोगों की आधुनिक जीवनशैली के कारण जगह-जगह मृतप्राय बन चुका है. पारंपरिक जल श्रोत का अस्तित्व अब मिटने लगा है. शुद्ध पेयजल उपलब्ध करवाये जाने के लिए पूर्व में निजी स्तर से अपने-अपने दरवाजे के सामने बनाया गया कुआं पूरी तरह से सूख चुका है. जलश्रोत की कमी के कारण तालाब भी अब किसी काम का नहीं रह गया है. पहले लोग खाना बनाने से लेकर पानी भी इसी से पीते थे. चूंकि कुआं के पानी में आयरन की मात्रा नहीं के बराबर रहती है. लेकिन बदलते परिवेश में उचित जल संरक्षण तथा रख रखाव के अभाव में ज्यादातर कुआं बेकार बनकर रह गया है. और तो और अधिकांश कुआं को मिट्टी से भरकर लोगों ने उस पर पक्का मकान बनाना शुरू कर दिया है. जबकि पर्यावरणविदों के अनुसार तालाब ओर कुआं का अस्तित्व समाप्त होने की वजह से भूमिगत जल संरक्षण में भारी कमी होगी. जो आने वाली नयी पीढ़ी के लिए शुभ संकेत नहीं होगा. भूमिगत जलस्तर के लगातार गिरावट तथा लोगों द्वारा की जा रही लगातार अनदेखी से भविष्य के इस धरोहर को हमसबों को किताबों के पन्नों में पढ़ने को मिलेगी. कुआं को धार्मिक आस्था का केंद्र भी माना जाता है. लेकिन आज के आधुनिक दौर में हैंड पंप, नल, मोटर, नलकूप के साथ-साथ अनेक जल श्रोत होने के कारण कुंए के धार्मिक महत्व को भूल गये हैं. गांवों में पहले जब नवविवाहिता का गृह प्रवेश होता था या नवजात शिशु का जन्म होता था तो सबसे पहले कुआं पूजन का आयोजन होता था. शादी विवाह की रस्म अदायगी भी वर्तमान समय में की जाती है, लेकिन मात्र कोरम पूरा किया जाता है. अभी भी अगर गांव के किसी कुएं के पास गौर से देखा जाये तो बेजोड़ वास्तुकला की शैली देखने को मिलेगी. पुराने दौर में बुजुर्गों तथा राजा महाराजाओं द्वारा कुआं तथा पोखर को खुदवाना पुण्य के साथ-साथ शान समझा जाता था. जिसका उल्लेख वेदों तथा पुराणों में भी किया गया है. कुएं का जल होता है मीठा व निरोगी ठंड के मौसम में गर्म व गर्मी में ठंडा रहता है कुआं का पानी. बुजुर्गों का कहना है कि कुएं का जल मीठा तथा निरोग माना जाता है तथा ठंड के मौसम में गर्म तथा गर्म के मौसम में बिल्कुल ठंडा होता है. प्राचीनकाल में आधुनिक जीवनशैली से कोसों दूर रहकर लोग कुएं का जल पीकर बिल्कुल स्वस्थ तथा निरोग रहा करते थे. लेकिन बदलते परिवेश में लोग बोतलबंद पानी पीने में अपनी शान समझते हैं, जो शरीर तथा स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बिल्कुल गलत है. पहले के दौर में गांव की महिलाएं समूह में कुएं के पास इकठ्ठा होकर गीत गाकर अपने-अपने सिर पर पानी भरकर घर को जाती थी. लेकिन बदलते परिवेश के कारण सब कुछ धीरे-धीरे बदलता चला गया. बुजुर्गों ने बताया कि सरकार को चाहिए कि पुराने एवं जर्जर कुएं की अविलंब मरम्मत करवाकर इनको फिर से पेयजल योजनाओं के तौर पर विकसित किया जा सके. ताकि कम लागत पर शुद्ध पेयजल आपूर्ति किए जाने के साथ-साथ प्राचीन विरासत व धरोहरों को बचाया जा सके. ताकि पुरानी परंपरा एवं रीति-रिवाज जिंदा एवं अक्षुण्ण रह सके.

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