सामूहिक सपोर्ट सिस्टम से बचायी जा रहीं जिंदगियां
दलसिंहसराय (समस्तीपुर) से लौट कर अजय कुमार
Ajay.kumar@prabhatkhabar.com
रानी देवी बच गयीं. अजमेरी खातून को नयी जिंदगी मिली. स्कूल जानेवाली आरती जब हंसती है, तो गरीबों का यह टोला जैसे निहाल हो जाता है. वह भी मरते-मरते बची. सामूहिक भागीदारी से जिंदगी बचाने का अद्भुत प्रयोग इस पंचायत के गांवों में चल रहा है. समस्तीपुर के दलसिंहसराय के बंबइया हरलाल गांव के ये लोग हैं. दलसिंहसराय से करीब छह किलोमीटर दूर. कच्ची सड़क होते हुए हम गांव में पहुंचे. पछुआ हवा बलुआही मिट्टी को उड़ा कर आसमान ढंक लेती है. चारों ओर धूल-ही-धूल. खेतों में मक्के की फसल तेज हवा में जमीन लोटने लगती है.
रानी की आंखों में झूमता मक्का है. पर, वह उसे छू भी नहीं सकती. यह खेत उसका है. पर, फसल उसकी नहीं है. खेत भरना (बंधक) है. रानी को बीमारी हो गयी थी. टीबी की बीमारी. इलाज कराते-कराते घर की जमा पूंजी खत्म हो गयी. लेकिन, बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी. खाट की तरह वह भी सूख गयी थी. जान के खखन में 10 कट्ठा जमीन बंधक रखनी पड़ी. उससे 15 हजार रुपये मिले. वे भी इलाज में खत्म हो गये. पति दिल्ली कमाने गये हैं. गांव की आशा (हेल्थ वर्कर) निर्मला बताती हैं : हमने रानी की नये सिरे से जांच करायी. टीबी की दवा का डोज नियमित दिया
जाने लगा. पर, गरीबी ऐसी कि केवल दवा से बीमारी ठीक नहीं हो सकती थी. फिर गांव के लोगों ने तय किया कि टीबी से जूझ रहे मरीजों को दूध-फल का इंतजाम अलग-अलग घरों के लोग करेंगे. खुद टीबी के मरीज रहे महेश कुमार बताते हैं : मेरे पास गाय है. हमने रानी को हर दिन आधा किलो दूध देना शुरू किया. रानी अब पूरी तरह ठीक हो गयी हैं. मरते-मरते बची रानी कहती हैं : दूसरा जीवन मिल गया, अब जमीन की वापसी का इंतजार है.
गांव गढ़ रहे नयी परिभाषा
दलसिंहसराय में 17 पंचायतें हैं. यहां के दर्जनों गांवों में सामूहिकता की नयी परिभाषा गढ़ी जा रही है. इन गांवों में जहां भी टीबी के मरीज हैं, उन्हें गांव के लोग ही मदद करते हैं. मनोज कुमार साह कहते हैं : ऐसे मरीजों को पौष्टिक खुराक की जरूरत होती है. केवल दवा से काम तो चलेगा नहीं. दलसिंहसराय की 17 पंचायतों में टीबी के 174 और विद्यापति पंचायत में 40 मरीजों का इलाज चल रहा है. खुराक देने का सपोर्ट सिस्टम दलसिंहसराय में ज्यादा है. विद्यापति पंचायत में अभी इसकी शुरुआत हुई है. अजमेरी खातून, बिंदु पासवान को निर्मला ने सपोर्ट किया, तो अजित राम को मदन श्रीवास्तव ने. टुन्नी कुमारी को मनोज साह ने मल्टी विटामिन देकर मदद की. ऐसे बहुत नाम हैं.
दुग्ध उत्पादन समितियां गरीबों के साथ
असीमचक दुग्ध उत्पादक सहयोग समिति के अध्यक्ष विजय नारायण चौघरी कहते हैं : बीमारी की असली वजह गरीबी है. कुपोषण के चलते गरीब लोग न सिर्फ टीबी, बल्कि दूसरी बीमारी के ग्रास बन रहे हैं. हमें यह समझ में आयी, तो पहले टीबी मरीजों को दूध देना शुरू किया. अब हमने सभी कुपोषित लोगों को दूध या अन्य जरूरी पौष्टिक आहार देने का प्रस्ताव किया है. मिथिला डेयरी में भी इस पर चर्चा हुई है. उनके मुताबिक सलखनी, मोख्तियारपुर, केवटा, बसढ़िया, रामपुर-जलालपुर दुग्ध उत्पादक सहयोग समितियां ऐसे मरीजों के हक में काम कर चुकी हैं.
डॉक्टर राजस्थान के, तो ट्रस्टी पंचकुला के
मनीष भारद्वाज मूल रूप से पंचकुला के रहनेवाले हैं और जगदीप गंभीर उदयपुर के. उन्होंने दलसिंहसराय में इसकी शुरुआत की, 2010 में. दोनों अमेरिका में रहते हैं. दलसिंहसराय के ही मनीष कुमार भी इसके ट्रस्टी में से एक हैं. वह अफगानिस्तान में नौकरी करते थे. फिर सब छोड़-छाड़ कर इस संगठन से जुड़ गये. वह आइआइटी, पटना में हेल्थ एजुकेशन पर पीएचडी कर रहे हैं. इससे जुड़े डॉक्टर तुषार गर्ग मूलत: राजस्थान के भिवाड़ी से हैं. उनके पैरेंट डॉक्टर हैं.
तुषार कहते हैं : मैं लोगों के बीच काम करना चाहता था. इसलिए यहां चला आया. चाहता तो मैं भी किसी कॉरपोरेट अस्पताल में नौकरी कर सकता था. लेकिन, मुझे पता है कि मैं वहां टिक नहीं सकता था. इस संस्था से जुड़े पीतांबर सोरेन ने टीस से पब्लिक हेल्थ पर पढ़ाई की. वह ओड़िशा के रहनेवाले हैं. स्थानीय स्तर पर जुड़े करीब डेढ़ दर्जन कार्यकर्ताओं की अपनी ही कहानी है. कोई निखालिस किसान था, तो कोई मेकैनिक. ऐसे लोग दूसरों का जीवन बचा रहे हैं. मिथिलेश, राज कुमार, अनिल चौधरी, सिकंदर जैसे नौजवानों की इन गांवों में खास पहचान बन गयी है. संगठन के लोग प्रचार से परहेज करते हैं. जब हमने उनकी तसवीर लेनी चाही, तो उन्होंने मना कर दिया.
इस कहानी की शुरुआत ऐसे हुई
‘इनोवेटर इन हेल्थ’ एक ट्रस्ट है. कुछ साल पहले इसने दलसिंहसराय में काम शुरू किया. टीबी मरीजों के बीच. उसने देखा कि टीबी के मरीजों का इलाज कई वजहों से बाधित हो रहा है. उसने गांव में काम करनेवाली आशा में से सामाजिक रूप से सक्रिय महिलाओं को अपने साथ जोड़ा. मरीजों के दवा खाने पर उनकी निगरानी बढ़ा दी. खुद वे ऐसे मरीजों के घर जाकर दवा खिलाने लगीं. इससे एक नया रिश्ता बनने लगा. दलित परिवार की सातवीं में पढ़नेवाली आरती कहती है : दादी मुझे दवा खिलाती थी. वह दादी गांव की आशा हैं.
मोबाइल से मरीजों की होती है निगरानी
माइक्रोसॉफ्ट में काम कर रहे बिल्लटीस ने 99 डॉट्स नामक मोबाइल आधारित ट्रैक सिस्टम तैयार किया है. दलसिंहसराय में इसका पायलट प्रोजेक्ट चल रहा है. दवा के पॉकेट पर कुछ नंबर होते हैं और मरीज को एक कॉमन नंबर के साथ पॉकेट वाले नंबर को लेकर रिंग कर देना होता है. इससे यह ट्रैक हो जाता है कि किस मरीज ने दवा खायी और किसने नहीं? यह पता चल जाने के बाद संबंधित गांव की आशा को भी संदेश मिल जाता है. जिसने दवा नहीं खायी, उसके दरवाजे पर आशा पहुंच जाती हैं. यह प्रयोग सफल रहा, तो इसे देश के पैमाने पर अपनाने की बात है. डब्ल्यूएचओ की टीम हाल ही में इस प्रोजेक्ट का मुआयना कर चुकी है.