अजब पूसा यूनिवर्सिटी के फार्म में 1951 से चली आ रही परंपरा
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जानवर समझते हैं इनसानों की भाषा
अजब पूसा यूनिवर्सिटी के फार्म में 1951 से चली आ रही परंपरा भले ही भरोसा न हो, लेकिन पूसा विश्वविद्यालय के फार्म में जानवर भी इनसानों की भाषा को समझते हैं. उनकी रखवाली करनेवाले कर्मचारी उन्हें नंबर से बुलाते हैं और वे तुरंत आ भी जाते हैं. हर गाय व बछड़े को एक खास नंबर […]
भले ही भरोसा न हो, लेकिन पूसा विश्वविद्यालय के फार्म में जानवर भी इनसानों की भाषा को समझते हैं. उनकी रखवाली करनेवाले कर्मचारी उन्हें नंबर से बुलाते हैं और वे तुरंत आ भी जाते हैं. हर गाय व बछड़े को एक खास नंबर दिया जाता है. पढ़िए यह रिपोर्ट.
पूसा (समस्तीपुर) : भले ही भरोसा न हो, लेकिन पूसा विश्वविद्यालय के फार्म में जानवर भी इनसानों की भाषा को समझते हैं. उनकी रखवाली करनेवाले कर्मचारी उन्हें नंबर से बुलाते हैं और वे तुरंत आ भी जाते हैं. हर गाय व बछड़े को एक खास नंबर दिया जाता है. पढ़िए यह रिपोर्ट.
दु ख या परेशानी होने पर हमारे मुंह से अक्सर ये जुमला निकल जाता है- क्या जानवर हो, जो इतना तक नहीं समझते. लेकिन, जब आप पूसा यूनिवर्सिटी की फार्म में जायेंगे, तो आपकी ये धारणा बदल जायेगी. यहां गायों के बच्चे (बछड़े), जिनकी उम्र कुछ दिनों से लेकर महीनों की होती है, वो इनसान की भाषा समझते हैं. दूध दुहने (निकालने) के समय उन्हें नंबर के हिसाब से बुलाया जाता है. अपना नंबर सुनते ही बछड़े बाड़े में कहीं भी हों, निकल कर सामने आ जाते हैं.
यह बात भले ही हमें-आपको अजूबा लगे, लेकिन सौ फीसदी सच है. बछड़ों की इस समझदारी के बारे में जब यूनिवर्सिटी के सूचना पदाधिकारी दिव्यांशु शेखर ने बताया, तो पहले विश्वास नहीं हुआ. लेकिन, जब मौके पर जाकर खुद देखा, तो जानवरों की समझदारी का एहसास हुआ. फार्म से जुड़े प्रमोद कहते हैं कि 1951 से ये परंपरा चल रही है. उसी साल फार्म की शुरुआत हुई थी. इसके पीछे वजह भी है कि अगर नंबर नहीं होगा, तो बछड़ों को हमलोग कैसे खोजते रहेंगे. इसीलिए गायों का नंबर तय है. उन्हीं के नंबर से उनके बछड़ों की पहचान होती है. फॉर्म के इंचार्ज डॉ वीके गोंड बताते हैं कि जन्म के बाद से बछड़ों को नंबर की आदत डाली जाती है और एक सप्ताह में वो खुद को नंबर के हिसाब से ही पहचानने
जानवर समझते हैं…
लगते हैं, जब दूध निकालना होता है, तो नंबर से ही उन्हें बुलाया जाता है. बाड़े में कही भी बछड़ा रहे, अपना नंबर सुन कर आगे आ जाता है और अपनी मां के पास पहुंच जाता है. कई बार ऐसा भी देखा गया है कि अगर कोई बछड़ा नंबर पुकारे जाने पर आगे नहीं आता है, तो आसपास के बछड़े उसे धक्का देकर आगे की ओर बढ़ा देते हैं.
पूसा के फार्म में इस समय 250 गायें हैं, जिनमें 55 दूध दे रही हैं. रोज लगभग पांच सौ लीटर दूध का उत्पादन होता है. सुबह पांच बजे के आसपास दूध निकाला जाता है और शाम के समय चार बजे से ये प्रक्रिया शुरू होती है. फार्म में एक दर्जन कर्मचारी काम करते हैं, जिस कर्मचारी की भी ड्यूटी रहती है. वो बछड़ों का नंबर पुकारता है, ये भी नहीं है कि सीरियल के हिसाब से नंबर बुलाया जाता है. एक के बाद छह और छह के बाद 16 बोला जाता है और बछड़ा हाजिर. बछड़ों को बुलाते हुए देखना भी सुखद एहसास कराता है, क्योंकि जैसे ही कर्मचारी 16 नंबर बुलाता है. बाड़े में हलचल होने लगती है. कुछ ही देर में गेट के पास खड़े बछड़े हट जाते हैं और 16 नंबर का बछड़ा सामने आ जाता है.
यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक दूध निकालने की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती है. ये क्रम रोज दिन में दो बार होता है. इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं. जानवरों की ये समझदारी भले ही हैरान करनेवाली है, लेकिन यहां काम करनेवालों के लिए ये रूटीन की बात है. वो कहते हैं, जैसे नवजात बच्चे, हमारी बात समझ जाते हैं. वैसे ही गायों के बच्चों के साथ भी होता है. हम लोगों के व्यवहार से उनमें समझदारी विकसित हो जाती है.
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