मोहनपुर. नदी देवी मान गयीं, उनका जी पसीज गया. स्त्री हैं, ममत्व जाग ही जाता है. अब चली जा रही है, वैसे ही जैसे आयीं थी. उन्हें मोहनपुर की स्त्रियों ने मना ही लिया, भाखड़ा सिंदूर, दूब, अक्षत और बताशा होमाद पर ही रीझ गयीं. ऐसे ही रिझती रही है गंगा. नदी के तटवर्ती जनजीवन का समूचा सानिध्य है गंगा का आंगन, इसी आंगन में खेलकूद कर यहां के परिवारों के बच्चे बड़े होते हैं. खेतों में यही लरजती है. फसले और यहीं बनाये जाते हैं खलिहान. गंगा पर स्थानीय लोगों का पूरा भरोसा है. बाढ़ आती है तो अपने साथ नदी मिट्टी का स्वाद लेकर आती है. जलोढ़ मिट्टी से यहां की धरती और उर्वरा हो जाती है. कम लागत में तरह-तरह की फसलें उपजती है. यदि बाढ़ नहीं आयी, तो धरती की नमी चली जाती है. बरसात का मौसम बिना बरसे ही निकल गया. धरती के कल्ले में यदि कुछ बोया जाता तो डिभिया निकलने से पहले ही सूख जाती. वैसे में यह बाढ़ भी जरूरी थी. गंगा नदी अपने बाढ़ से आयीं तो निचले स्थानों से आगे नहीं. लोगों ने मिट्टी का बांध बांधकर जहां-था वहीं रुक गयी. कहते हैं सालों सालों के बाद गंगा का जी छटपटाता है. वह अपने अन्य छह बहनों के साथ बरैला भाई से मिलने निकल पड़ती है. गंगा में यदि एक साथ छह नदियों का संयोग हो जाये, तो प्रलय आ सकती है. लेकिन नदियां संयम रखना भी जानती हैं. इस बार भी गंगा की धारों से सिर्फ सोन नदी जुडी. महज कुछ क्वेसिक पानी जुडा, तो गंगा का मन बरैला की ओर बढ़ गया. लेकिन मोहनपुर के स्त्रियों ने गीत गा-गा कर गंगा को मना लिया. लेकिन जब स्त्रियों ने बार-बार मनाया तो गंगा मान गयी. अब नदी देवी के पाव तेजी से दक्षिण की ओर बढ़ चले हैं. पानी उतरता जा रहा है.
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