राजीव कुमार, मोहिउद्दीननगर : भारतीय परंपरा में झूले सदियों से शौक, उत्सव, विलासिता, प्रत्याशा, प्रेम और प्रजनन क्षमता से जुड़ा एक रूपक माना गया है. झूले भारतीय संस्कृति में रचे बसे हैं. एक समय था कि बरसात के चार महीने में बचपन भींगता और गाता था. बच्चों का भींगना उसके मानसिक स्वरूप को तृप्त करता था. लेकिन बदलते समय के साथ आपसी प्रतिस्पर्द्धाएं हुईं कि बच्चों ने बरसात का आनंद उठाना छोड़ दिया. अब पेड़ों की डालियां से झूले नहीं लटकते. बच्चों ने पेंगे मारकर ऊंचाई तक उछलने का हौसला छोड़ दिया. झूले की रस्सियां इस पीढ़ी के लिए कोई अनजानी सी वस्तु हो गई. बच्चे अपना भविष्य बनाने के लिए इस प्रकार जद्दोजहद में जुटे हुए हैं कि अब न तो झूले लगते हैं और न ही वर्षा की रिमझिम फुहारों के बीच भींग वे इठलाते हैं. वह समय था जब हर एक बच्चा कृष्ण मुरारी था और झूले वाले पेड़ कदम के पेड़ थे. बाग-बगीचों में झूले, चौमासे, बारहमासे और कजरियों की गूंजे सुनाई पड़ती थी…… झूला लगे कदम की डारी, झूले कृष्ण मुरारी न. वयोवृद्ध शिक्षक चंद्रशेखर प्रसाद सिंह व रामदयाल राय का बताना है कि खासकर सावन महीने में झूले झूलने से मानसिक तनाव से बाहर निकलने में, मांसपेशियों को दृढ़ता प्रदान करने में, कंसंट्रेशन पावर को बढ़ाने में, आत्मविश्वास को जगाने तथा शारीरिक संतुलन सुधारने में मदद मिलती है. आज बड़े-बड़े घरों में लोहे के झूले लग गये हैं. परिवार इतने संकुचित हो गये हैं कि उनका प्रकृति से नाता भी टूट गया है. बच्चे किताबों और मोबाइल में गुम हो गये हैं. प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने की होड़ में बचपन न जाने कहां छूट गया है. अब झूले के गीत रेडियो और लोक संस्कृति के संग्रहालयों में सुरक्षित रह पाये हैं. नई फिल्मों में भी झूले गीत सुनाई नहीं पड़ते. फिल्म सारंगा का वह गीत सुनकर भी आज के बच्चे झूले का स्वरूप नहीं समझ पाते…..वो अमवा का झूलना वो पीपल की छांव. प्रकृति और लोक संस्कृति से दूर होता हुआ बचपन मनोरंजन के दूसरे विकल्पों की तलाश में भाग दौड़ भी नहीं कर पाता. किताबों का बोझ, भविष्य की चिंता व झूले की संस्कृति से उन्हें बहुत दूर लेकर चली गई है. इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.
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