बदलती तकनीक से परंपरागत कलाकारों के छिन गये रोजगार
वह भी एक जमाना था, जब चुनाव की घोषणा होते ही कलाकारों के घर प्रत्याशी व समर्थकों का जमावड़ा लगने लगता था.
बदलती तकनीक से परंपरागत कलाकारों के छिन गये रोजगार
चुनावी मौसम. कलाकारों के घरों, छापाखाने की दुकानों से चुनावी लड़वैये हैं गायब
प्रचार के लिए ऑटो भी नहीं खोज रहे प्रत्याशीरंजन कुमार, नोखा
वह भी एक जमाना था, जब चुनाव की घोषणा होते ही कलाकारों के घर प्रत्याशी व समर्थकों का जमावड़ा लगने लगता था. कपड़े पर बैनर लिखने वाले पेंटर रात-दिन एक कर देते थे. गायकों की मंडली प्रत्याशी के प्रचार में घूमने लगती थी. छापाखाने की मशीनें दिन-रात खटर-पटर करती थीं. पोस्टर साटने वाले युवा भी रोजगार पा जाते थे. पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों को प्रशासन पकड़ लेता था, तो रिक्शा बैलगाड़ी व टमटम वालों की बहार हो जाती थी. यानी चुनावी मौसम में लगभग हाथों को रोजगार मिल जाता था. पर, अब बदलती तकनीक और उस पर बढ़ती निर्भरता ने इन रोजगारों को लगभग समाप्त कर दिया है. यह बात नोखा के बुजुर्ग सीता राम प्रसाद ने आह भरते हुए कहा. उन्होंने कहा कि अब वह दौर कहां? आप ही बताएं. चुनाव की घोषणा हो चुकी है. प्रत्याशी घूमने भी लगे हैं. पर, बाजार में कहीं देखने से महसूस हो रहा है कि चुनाव हो रहा है? वाकई सीता राम प्रसाद की बात सही थी. इंटरनेट के इस युग में सर उठाकर बैनर पोस्टर देखने की किसी को फुर्सत नहीं है. सभी की निगाहें नीचे हाथ के मोबाइल पर हैं. सब कुछ नयी तकनीक पर सिमटता जा रहा है. इन तकनीक ने बड़ी संख्या में लोगों का रोजगार छीन लिया है. वहीं निर्वाचन आयोग की बंदिशों ने चुनाव के वक्त रोजगार पाने वालों को हताश और निराश कर दिया है.
बदलते गये प्रचार के तरीके
दशक पहले तक चुनावी मौसम में पेंटरों की चांदी रहती थी. नामी पेंटर प्रमुख दलों के लिए पहले ही बुक हो जाते थे. अब कपड़े वाले बैनर की जगह डिजिटल फ्लैक्स ने ले लिया. चुनाव प्रचार के बदले हुए तरीकों से कारोबारियों को जो नुकसान हो रहा है, वह उन्हें चुनाव के प्रति अरुचि भी पैदा कर रहा है. हालांकि, प्रत्याशियों के खर्च में कमी नहीं आयी है, वह दूसरी वस्तुओं पर ज्यादा बढ़ गयी है.