चेनारी (रोहतास) : जिउतिया व्रत को लेकर तैयारी शुरू हो गयी है. महिलाएं नये वस्त्र, शृंगार सामग्री, पूजा सामग्री आदि की खरीदारी कर रही हैं. इसको लेकर मुख्य बाजार में चहल-पहल बढ़ गयी है. फुटपॉथ पर जिउतिया गुथनेवाले कारीगर भी अपनी दुकानें सजा दिये हैं. महिलाएं दुकानों पर जिउतिया लेकर लाल, पीला, हरा आदि रंग के धागा में उसे गथवा रही हैं. आभूषण दुकान पर जिउतिया खरीदने के लिए महिलाओं की भीड़ देखी जा रही है.
आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि तिथि के दिन महिलाएं जिउतिया व्रत रखेंगी. इस साल यह व्रत 10 सितंबर को है. औयह व्रत महिलाएं अपनी संतान की लंबी आयु के लिए रखती हैं. ऐसा कहा जाता है कि जो महिलाएं व्रत को रखती हैं उनके बच्चों के जीवन में सुख-शांति बनी रहती है और उन्हें संतान वियोग नहीं सहना पड़ता है. इस व्रत को निर्जला रखा जाता है. इस दिन महिलाएं पूजन कर उनकी लंबी आयु की भी कामना करती हैं. इस व्रत को करते समय सूर्योदय से पहले ही खाया-पिया जाता है. सूर्योदय के बाद पानी भी नहीं पी सकती हैं. इस व्रत में माताएं जीवित्पुत्रिका और राजा जीमूतवाहन दोनों की पूजा कर पुत्रों की लंबी आयु के लिए प्रार्थना करती हैं. अगले दिन भगवान सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही पारण किया जाता है. इस पर्व में मड़ुआ की रोटी, कंदा, सतपूतिया और नोनी की साग का खास महत्व है. महिलाएं 24 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं.
ज्योतिषाचार्य पंडित वागेश्वरी द्विवेदी बताते हैं कि जीवितपुत्रिका व्रत की कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं. महाभारत युद्ध के बाद अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अश्व्थामा बहुत ही नाराज था और उसके अंदर बदले की आग तीव्र थी, जिस कारण उसने पांडवों के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगों को पांडव समझकर मार डाला था.लेकिन, वह सभी द्रोपदी की पांच संतानें थीं. उसके इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्यमणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मशास्त्र का उपयोग किया, जिसे निष्फल करना नामुमकिन था. उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक था. इस कारण भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही. पुन: जीवित कियागर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना. तब ही से इस व्रत को किया जाता हैं.
एक समय की बात है. एक जंगल में चील और लोमड़ी घूम रहे थे. तभी उन्होंने मनुष्य जाति को इस व्रत को विधि पूर्वक करते देखा एवं कथा सुनी. उस समय चील ने इस व्रत व पूजा प्रक्रिया को बहुत ही श्रद्धा के साथ ध्यानपूर्वक देखा. लोमड़ी का ध्यान इस ओर बहुत कम था. चील की संतानों एवं उनकी संतानों को कभी कोई हानि नहीं पहुंची, लेकिन लोमड़ी की संतान जीवित नहीं बची. इस प्रकार इस व्रत का महत्व बहुत अधिक बताया जाता है.
posted by ashish jha