पटना. “मैडम सर” एक महिला की आंखों से आईपीएस के भीतर का चित्रण है. बिहार की पहली महिला आइपीएस अधिकारी मंजरी जरुहार की आत्मकथा “मैडम सर” दिलों दिमाग को आंदोलित करनेवाली पुस्तक है. इस पुस्तक को उन्होंने स्वयं लिखा है. आत्मकथा ‘‘मैडम : सर ’’ पेंगूइन रैंडम हाउस इंडिया ने प्रकाशित की है. भागलपुर घटना, 1984 के सिख विरोधी दंगों और बिहार में लालू प्रसाद के शासनकाल जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं की पृष्ठभूमि में लिखी गई, “मैडम सर” रूढ़िवादी व्यवस्था में पली बढ़ी मंजरी जरूहार के संघर्ष की कहानी है.
नयी दिल्ली में रह रहीं जरुहार सीआईएसएफ की विशेष महानिदेशक पद से सेवानिवृत्त हुई हैं और फिलहाल टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज (टीसीएस) में सलाहकार के पद पर हैं. पुस्तक लेखन के संबंध में वो कहती हैं कि लोग मुझसे अकसर मेरी कहानी लिखने को कहते थे. मैं आशा करती हूं कि मेरी कहानी सभी लड़कियों और कामकाजी महिलाओं को अपनी दिल की बात पर भरोसा करना सिखाएगी और उन्हें तमाम परेशानियों के बावजूद जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी.’’ मंजरी जरुहार ने पुस्तक के माध्यम से बताया गया है कि किस प्रकार रास्ते की तमाम बाधाओं को पार करते हुए न केवल भारतीय पुलिस सेवा में शीर्ष पद पर पहुंची, बल्कि इस सेवा में शामिल होने वाली वह बिहार की पहली महिला भी हैं.
भारत की पहली पांच आईपीएस अफसरों में से एक, और बिहार की पहली महिला आईपीएस अधिकारी 1976 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास करके भारतीय पुलिस सेवा में शामिल हुईं. अपने कार्यकाल में उन्होंने बिहार और झारखंड में विभिन्न पदों पर काम किया. वह राष्ट्रीय पुलिस अकादमी (एनपीए), केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) और केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में भी रही हैं.
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अपने शुरुआती दिनों के संबंध में वो लिखती हैं कि एएसपी की जिम्मेदारी मिलने के बाद वापस कैडर में आने पर मेरी फील्ड पोस्टिंग से पहले जो शंकाएं उठी थीं, उन्हें फिर से चर्चा का विषय बनाया गया. हम एक महिला अधिकारी को कहाँ पोस्ट कर सकते हैं? वह किस तरह का काम कर सकती है? उसके लिए क्या सुरक्षित रहेगा?
वो लिखती हैं कि मेरे सभी बैचमेट्स को फिल्ड का प्रभार दिया गया, उनके पति को भी एएसपी टाउन, पटना के पद पर तैनात किया गया, लेकिन उन्हें आईजी राजेश्वर लाल ने एएसपी, सीआईडी (आपराधिक जांच विभाग) के पद पर तैनात किया. यह मूल रूप से एक डेस्क जॉब था, जबकि मेरा प्रशिक्षण फिल्ड जॉब के लिए था. वो कहती हैं कि हमारे समय में, सेवा में शामिल होने के चार साल के भीतर लोग एसपी के पद पर पदोन्नत हो जाते थे.
वो लिखती हैं चूंकि मैं 1976 बैच की थी, इसलिए 1980 के अंत में मुझे एसपी के रूप में पदोन्नत किया जाना था, लेकिन एएसपी के रूप में फील्ड पोस्टिंग के बिना, मुझे पता था कि एसपी के रूप में जिला प्रभार मिलना मुश्किल होगा. मैं फाइलों को आगे बढ़ाऊंगी और जीवन भर यूं ही रिपोर्ट तैयार करूंगी. अपने साथियों की तरह कठोर एनपीए और जिला प्रशिक्षण से गुजरने के बाद, मैंने खुद को ठगा हुआ महसूस किया. मेरे मन में यह सवाल था कि आखिर मुझमें क्या कमी थी? एक बार तो ऐसा लगा कि मेरा कॅरियर खत्म कर दिया गया है.
उस वक्त तक बिहार में किसी IPS अधिकारी के CID में ASP के पद पर तैनात होने का कोई इतिहास नहीं था. मेरे लिए लकड़ी से विभाजित उस कक्ष में शोरगुल के बीच बैठना, मनोबल गिराने वाला पदस्थापन था. मेरा एक काम विशेष रिपोर्ट (एसआर) फाइलें पढ़ना था और जांच पर टिप्पणियां देनी थीं, जिन्हें बाद में वरिष्ठ सीआईडी अधिकारियों को उनके अवलोकन और निर्देश के लिए प्रस्तुत किया गया था. पर्यवेक्षण नोट बिहार के सभी जिलों से आते थे, कभी-कभी तो एक दिन में तीस तक. हालांकि मैं सीआईडी में फंसने से निराश थी, लेकिन मैं मामलों को पूरी लगन से पढ़ती थी और अपनी टिप्पणियां फाइलों पर दर्ज करती थी.
कई माह यूं ही गुजर गये. एक दिन अपनी मेज पर बैठ कर मैं अपने आप से पूछ रही थी कि कोई नहीं था जिससे मैं मदद के लिए संपर्क कर सकूं. प्रशिक्षण के लगभग छह महीने हो चुके थे, अगले छह महीनों में हम एसपी बन जाएंगे. मैं काफी हताश थी. उस वक्त राजेश्वर लाल रिटायर हो रहे थे और एसके चटर्जी ने आईजी का पदभार संभाला था. उनकी चार बेटियाँ थीं, जिनमें से एक पलाश मेरे साथ स्कूल और कॉलेज में थी. मैंने हिम्मत जुटाई और मिस्टर चटर्जी के ऑफिस गयी.
‘सर, मेरा करियर खत्म हो जाएगा,’ मैंने प्रस्तावना के बिना उनसे कहा. मैं उन्हें ‘अंकल’ कहकर बुलाती थी, इसलिए थोड़ी सहज थी. मैंने उन्हें बताया कि कैसे, अपना फील्ड प्रशिक्षण पूरा करने के बावजूद, मुझे जिला पोस्टिंग से दूर रखा गया. वह यह जानकर बहुत अचंभित हुए कि मैं सीआईडी में पड़ी हुई हूं. उन्होंने मुझसे आश्चर्य से पूछा- ‘क्यों, क्यों?’. उन्होंने वादा किया कि वो मुझे फिल्ड में भेजेंगे. जल्द ही मुझे एएसपी दानापुर के रूप में पोस्टिंग मिल गयी. मैंने राहत की सांस ली.
जनवरी 1980 में जैसे ही मुझे एएसपी दानापुर के रूप में तैनात किया गया, मुझे पता था कि मुझे अपने वरिष्ठों, स्थानीय थानों के साथ-साथ अधीनस्थ रैंकों को भी साबित करना होगा कि मैं किसी भी पुरुष आईपीएस अधिकारी की तरह ही फील्ड जॉब करने में सक्षम हूं. मंजरी जरुहार कहती हैं कि मेरा वर्दी में गांवों में जाना, छापेमारी करना जैसे काम जहां एक सख्त पुलिस अधिकारी के रूप में मेरी छवि बनाने में सहायक रही वहीं मेरे अंदर के आत्मविश्वास को भी बढ़ाने का काम किया. कार्यभार संभालने के पहले दिन से कैरियर के अंतिम दिन तक के सभी अनुभव मेरे लिए मूल्यवान रहे. उस वक्त भी मैं महसूस कर रही थी कि मेरी टीम मेरी ओर देखने लगी है और मुझे एक अधिकारी और एक लीडर के रूप में स्वीकार कर रही है.