त्रासदी Â 1962 आते-आते दियरा काशीदत्त गांव सरयू नदी के गर्भ में विलीन हो गया
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नक्शे में तो है, पर धरातल नहीं
त्रासदी Â 1962 आते-आते दियरा काशीदत्त गांव सरयू नदी के गर्भ में विलीन हो गया आर्थिक रूप से कमजोर लोग बांध पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं इन्हें मताधिकार तक प्राप्त नहीं है दरौली : जिले के मानचित्र में एक ऐसा गांव नजर आता है,जो धरातल पर गुम है.साढ़े पांच दशक पूर्व जीवनदायनी कही जानेवाली […]
आर्थिक रूप से कमजोर लोग बांध पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं
इन्हें मताधिकार तक प्राप्त नहीं है
दरौली : जिले के मानचित्र में एक ऐसा गांव नजर आता है,जो धरातल पर गुम है.साढ़े पांच दशक पूर्व जीवनदायनी कही जानेवाली सरयू नदी की कोख में यह गांव समा गया. समय के साथ यहां से पलायन करनेवाले लोगों ने अन्य जगह शरण ली,जो लोग बाद में उन गांवों के वाशिंदे हो गये. इनमें से ऐसे भी दर्जनों परिवार हैं, जिन्हें खराब माली हालात के चलते नयी जगह कोई ठिकाना नहीं मिला.पुरखों के जमीन के लालच व उनसे जुड़ी यादों को दिलों में समेटे हुए आसपास ही ये पड़े रहे. किसी चमत्कार की उम्मीद में अपनी कई पीढ़ियों को गुजार चुके इन परिवारों का बाढ़ से बचाव के लिए बांध ही सहारा बना है.
जहां उनकी पूरी गृहस्थी बस गयी है. खास बात है कि उनकी किसी सरकारी महकमे ने सुध नहीं ली. लिहाजा सरकारी सुविधाओं की बात तो दूर इन्हें मताधिकार तक प्राप्त नहीं है. यह कहानी है प्रखंड के दियरा काशीदत्त गांव की.
13 हजार बीघे में फैला था: कभी यह गांव 13 हजार बीघे में फैला था, जिसकी उस समय आबादी लगभग तीन से चार हजार थी़ 22 टोले में बंटे इस गांव में लगभग सभी जाति के लोग निवास करते थे. तब सारण प्रमंडल के क्षेत्रफल की दृष्टि से यह सबसे बड़ा गांव था. आजादी से पूर्व इस गांव में सभी व्यवस्था मौजूद थी. कृषि उन्नत थी. पर समय ने करवट ली और धीरे -धीरे इस गांव के अस्तित्व का संकट मंडराने लगा. मोक्षदायिनी कही जाने वाली सरयू नदी के कटाव में गांव का गांव धीरे -धीरे समा गया. सन 1962 आते- आते पूरी बस्ती सरयू नदी के गर्भ में विलीन हो गयी. ऐसे में जो लोग धनी थे, वे दरौली, तियर, पटहेरा, सहित विभिन्न जगहों पर जाकर बस गये़ और आर्थिक रूप से कमजोर सैकड़ों परिवारों ने नदी के बांध पर अपना बसेरा बना लिया. आज भी ये लोग बांध पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं. मुंद्रिका, रामप्रीत, रामप्रसाद, सहित 500 से 600 परिवार प्रतिदिन मेहनत मजदूरी कर इसी बांध पर बनी झोंपड़ी में गुजर-बसर कर रहे हैं. विश्वनाथ तिवारी, राजमी तिवारी, विशुनदेव पांडेय, गौतम तिवारी आदि का कहना है कि हम लोगों को उस समय की हर बातें याद तो नहीं, परंतु जब नदी की धार ने अंतिम बार बस्ती का कटाव किया, तो चारों तरफ पानी-ही-पानी दिखायी दे रहा था़. गांव में जनमे शिक्षक श्यामबिहारी सिंह, जो तियर में अपना घर बनाकर रह रहे हैं, का कहना है कि अगर प्राकृतिक प्रकोप नहीं आया होता, तो आज दियरा काशीदत्त गांव का भौगोलिक स्थिति पूरे जिले में अच्छी होती़ क्योंकि जनसंख्या व घनत्व के हिसाब से लोगों के पास भूमि पर्याप्त थी़ साठ के दशक में सारण के कलक्टर एन नागमणि ने गंगा के कटाव को देखते हुए गांव का लगान माफ कर दिया था. आज नक्शे में दियरा काशीदत्त देखा जा सकता है़, परंतु धरातल पर नहीं.
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