जातिगत राजनीति में ओझल हो गयी विकास की राह

सतहत्तर वर्षों के लोकतंत्र के सफर में सीवान की माटी के साथ राजनीतिक उठापटक के अनेकों खिस्से जुड़े हुए हैं. कभी रोजगार के सवाल यहां के चुनावाें में अहम मुद्दा हुआ करता था.हालांकि समय के साथ रोजगार व विकास के सवाल चर्चा के केंद्र में बने रहने के बजाय गायब हो गया.

By Prabhat Khabar News Desk | May 5, 2024 9:22 PM

जितेंद्र उपाध्याय, सीवान: सतहत्तर वर्षों के लोकतंत्र के सफर में सीवान की माटी के साथ राजनीतिक उठापटक के अनेकों खिस्से जुड़े हुए हैं. कभी रोजगार के सवाल यहां के चुनावाें में अहम मुद्दा हुआ करता था.हालांकि समय के साथ रोजगार व विकास के सवाल चर्चा के केंद्र में बने रहने के बजाय गायब हो गया.यहां कभी तीन चीनी मिलें व एक सूता फैक्ट्री हुआ करती थी.इन फैक्ट्रियों के चिमनियों से निकलते धुएं औद्योगिक विकास की राह को आगे बढ़ा रही थी. समय के साथ इसे विस्तार देने के बजाय यह बंद होते चले गये.लिहाजा रोजगार व विकास का सवाल समय के साथ ओझल हो गये. अब चुनावों में जातिगत समीकरण ही अहम हो गये हैं.ऐसे ही अंकगणित में एक बार फिर सीवान सीट का चुनाव उलझा हुआ है.जिसके चलते मतदान के दिन करीब आने के बाद भी विकास के मुद्दों पर चर्चा नहीं हो रही है. तकरीबन चार दशक पूर्व तक पचरूखी में एक और सीवान में दो चीनी मिलें हुआ करती थी. समय के साथ मिलों के आधुनिकीकरण न होने से ये उद्यम घाटे में चलते लगे.लिहाजा धीरे धीरे ताले लटकते गये.सत्तर के दशक में पचरूखी सुगर मिल में ताला लटक गया. 1980 में राज्य सरकार ने सभी खस्ताहाल चीनी मिलों का अधिग्रहण किया, लेकिन यह प्रयोग सफल नहीं हुआ. बाजार में चीनी की कीमत से यहां की उत्पादित चीनी का मूल्य अधिक होने से लगी. नतीजा हुआ कि सीवान की एसकेजी सुगर मिल व न्यू सीवान सुगर मिल भी स्थायी रूप से बंद हो गयी. लंबे समय से बंद चीनी मिलों को चालू कराने के मामले को वर्ष 2005 में नयी सरकार गठित करने के बाद शुरू करने की कवायद चली.राज्य की सोलह मिल में से मात्र पूर्वी चंपारण के दो मिलों को चालू कराया जा सका.स्थानीय चीनी मिल को चालू कराने के लिए यहां की संपत्ति का आकलन किया गया.जिसमें अनुमान से काफी कम आकलन आने से सरकारी पहल अधर में लटक गया. चीनी मिल के चलते हजारों किसान गन्ने की खेती करते थे. हर साल करीब 75 लाख क्विंटल गन्ने का उत्पादन होता था. 1980 तक जिले में पंद्रह हजार हेक्टेयर में गन्ने की खेती होती थी. इसका औसत उत्पादन 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर था. मिलों की बंदी के बाद किसानों ने गन्ने की खेती से भी मुंह मोड़ लिया. चंद वर्षों में ही बंद हो गयी सूता फैक्ट्री सीवान सूता मिल 6 अक्टूबर 1982 में स्थापित की गई थी. वहीं इसको वर्ष 1985 में चालू कर उत्पादन शुरू हो गया था. उस वक्त करीब साढ़े तीन सौ से अधिक कर्मी काम में लगाए गए थे. मिल में करीब बीस करोड़ की लागत से नवीनतम तकनीक की मशीन एवं आधारभूत संरचना तैयार की गई थीं. उत्पादन भी शुरू हुआ. अच्छी उपलब्धि एवं सही उत्पादन की चर्चा सर्वत्र होने लगी, लेकिन सरकार व प्रशासन की उदासीनता के कारण उत्पादन ठप होने से करीब तीन दशक पूर्व मिल बंद हो गयी. बंद होने के कारण धीरे-धीरे इसका भवन खंडहर में तब्दील होता चला गया और इसकी मशीन बेकार हो गईं. मिल को पुन: चालू होने की उम्मीद में कर्मी व बुनकर टकटकी लगाए रहे, लेकिन सरकार द्वारा इसको चालू कराने को लेकर पहल नहीं की गई.बाद में यह सूता मिल बंद हो जाने पर यहां सरकार ने इंजीनियरिंग कॉलेज बना दिया. अब हाल यह है कि अब भी बड़ी संख्या में यहां के श्रमिकों का वेतन एवं अन्य बकायों का भुगतान सरकारी फाइलों में अटका हुआ है. विकास की जगह जातिगत समीकरण पर हो रही चर्चा सीवान लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन व महागठबंधन के साथ ही निर्दलियों के मैदान में होने से मुकाबले रोचक हैं, पर खास बात यह है कि चुनाव में विकास के सवाल पर कोई प्रमुखता से चर्चा नहीं हो पा रही है. हर उम्मीदवार अपने तरीके से जातिगत समीकरण को अपने पक्ष में साधने में लगा है.इसी आधार पर दलों के स्टार प्रचारकों के दौरे भी तय किये जा रहे हैं. ऐसे में आम मतदाताओं का भी मानना है कि चुनाव विकास के सवाल के बजाय भावनात्मक मुद्दों व जातिगत समीकरण के बीच उलझ कर रह गया है.

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