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विलुप्त हो गयी चकचंदा की समृद्ध परंपरा

लोक जीवन में रचबस चुकी कुछ परंपराएं बदलते दौर के चलते विलुप्त-सी होती जा रही हैं.अलबत्ता लोक जीवन की इन परंपराओं का स्मृतिशेष अभी भी जनमानस में है. बुजुर्गों की माने तो चकचंदा बिहार में बहुत पहले जब स्कूली शिक्षा व्यवस्था सरकारी दायरे के बाहर थी, गुरुजी के जीविकोपार्जन का एकमात्र माध्यम विद्यार्थियों से प्राप्त गुरुदक्षिणा होती थी.

By Prabhat Khabar News Desk | September 8, 2024 9:36 PM

संवाददाता, बड़हरिया.लोक जीवन में रचबस चुकी कुछ परंपराएं बदलते दौर के चलते विलुप्त-सी होती जा रही हैं.अलबत्ता लोक जीवन की इन परंपराओं का स्मृतिशेष अभी भी जनमानस में है. बुजुर्गों की माने तो चकचंदा बिहार में बहुत पहले जब स्कूली शिक्षा व्यवस्था सरकारी दायरे के बाहर थी, गुरुजी के जीविकोपार्जन का एकमात्र माध्यम विद्यार्थियों से प्राप्त गुरुदक्षिणा होती थी. भादो के महीने में तब चकचंदा समारोह पूर्वक मनाया जाता था. भाद्रपद चतुर्थी से आरम्भ कर अगले दस दिनों में गांव के सभी घरों में जाकर विद्यार्थी गणेश वंदना गाते व चकचंदा मांगते थे. मांंगी हुई चंदा गुरूजी को ससम्मान पहुंचा दिया जाता था.सच तो यह है कि यह त्योहार ग्रामीण संस्कृति में परस्पर जीने की कला का उल्लासमय आयोजन था. पांच-छह दशक पहले तक ऐसी ही एक संस्कृति व समृद्ध परंपरा का चलन पूरे क्षेत्र में गणेश उत्सव चतुर्थी के दिन से शुरू होकर अनंत चतुर्दशी तक चलता था.जिसे चकचंदा कहा जाता था. तकरीबन पांच दशक पूर्व हर गांव के सरकारी स्कूल में यानी गुरुजी की पाठशाला में बुद्धि के देवता गणेश जी की पूजा होती थी.और गुरुजन छात्रों की टोली के साथ गांवों की ओर निकल जाते थे. वे बच्चों के साथ घर-घर घूमकर चकचंदा मांगते थे. जहां गुरु जी को आदर व सम्मान से बैठाने के बाद कहीं अंग वस्त्र तो कहीं अनाज व रुपये चंदा स्वरूप दिया जाता था.क्षेत्र के बुजुर्गों को आज भी इससे जुड़ी यादें कचोटती हैं,चकचंदा की चर्चा से क्षेत्र के हबीबपुर निवासी साहित्यप्रेमी 72 वर्षीय भगरासन यादव के चेहरे पर चमक-सी आ गयी. उन्होंने अपने बचपन के संस्मरण सुनाते हुए चकचंदा से जुड़े गीत भी सुनाया- गुरुजी के देहला तनिको ना धन घटी,होई जइहें रउरो बड़ाई मोर बाबूजी. वहीं सदरपुर के केदारनाथ सिंह, शिवशंकर सिंह,भलुआं के बृजकिशोर सिंह,रामबदन सिंह, पूर्व प्राचार्य प्रो रामावतार यादव आदि बताते हैं कि चकचंदा को लेकर अपने गांवों में गुरु जी के साथ गणेश वंदना गाते हुए चकचंदा मांगने के लिए जाते थे.हाथ में गुल्ली-डंडा लेकर उसे बजाना होता था. गुरु जी चारपाई पर बैठते थे. बच्चे चकचंदा गाते थे. अनाज या वस्त्र अभिभावकों द्वारा दिया जाता था. गुरु जी के प्रति सम्मान की यह एक अनोखी परंपरा थी,जो अब बदलते दौर में विलुप्त-सी हो गयी है. इसी बहाने शिक्षकों का अभिभावकों से मुलाकात हो जाती थी.

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