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बिहार के खेतों से गुम हो रही श्यामजीरा, मालभोग व सोनाचूर चावल की महक, परंपरागत खेती से किसानों ने बढ़ायी दूरी

चावल की परंपरागत खेती से किसान अब दूर जा रहे हैं. परंपरागत खेती में लागत अधिक लगती है और उपज कम होती है. इसका नतीजा हुआ कि चावल की कई किस्में अब बिहार में नहीं हो रही हैं.

बिहार की फिजां कभी खेतों में लगी खुशबूदार चावलों की महक से सुंगधित हो जाया करती थी. लेकिन अब ऐसी भीनी खुशबू बिहार से विलुप्त हो गयी है. राज्य के बक्सर, भभुआ, भोजपुर व रोहतास जिले में कभी बड़ी मात्रा में सोनाचूर चावल का उत्पादन हुआ करता था, जो अब न के बराबर रह गया है.

मालभोग की भी नहीं हो रही खेती

भागलपुर, लखीसराय व बांका का इलाका मालभोग चावल के लिए जाना जाता था. अब इन इलाकों में मालभोग की खेती नहीं हो रही. लखीसराय व बांका के इलाके कभी श्यामजीरा की महक से सुगंधित हो उठते थे. अब इन इलाकों में श्यामजीरा नस्ल की चावल विलुप्त हो चुकी है.

चंपारण बासमती की खेती भी सीमित मात्रा में

सीवान व छपरा के क्षेत्रों में होने वाले कारीबांक की भी अब खेती नहीं हो रही है. इसके साथ ही चंपारण बासमती की खेती भी सीमित मात्रा में हो रही है. कहीं-कहीं निजी उपयोग के लिए शौकीन किसान इसकी खेती कर रहे हैं, मगर अब इनकी व्यापक खेती नहीं हो रही है. संरक्षण व सरकारी सहयोग नहीं मिला तो चावलों की ये नस्लें आने वाले दिनों में धीरे-धीरे बिहार में इतिहास हो जायेंगी.

कम उपज वाली खेती से दूर हुए किसान

बिहार एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय, भागलपुर के कृषि वैज्ञानिक डॉ. मयंक ने बताया कि चावल की परंपरागत खेती से किसान अब दूर जा रहे हैं. परंपरागत खेती में लागत अधिक लगती है और उपज कम होती है. इसका नतीजा हुआ कि चावल की कई किस्में अब बिहार में नहीं हो रही हैं. खेती के तौर-तरीकों में भी अब काफी बदलाव आ गया है. अब जलवायु अनुकूल और ज्यादा उपज वाली खेती की ओर से किसान रुख कर चुके हैं. सरकार को परंपरागत खेती के बचाव के लिए सहयोग देने के लिए आगे आना होगा.

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