26 सालों में सिसकती रही विकास कार्यों की धड़कन
केशव कुमार सुपौल : 14 मार्च 1991 यानि वह तारीख जब इतिहास के पन्नों पर पहली बार सुपौल का नाम बतौर जिला दर्ज हुआ. मंगलवार को सुपौल ने बतौर जिला अपने 26 वर्ष पूरे कर लिये और मौके पर देर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित हुआ, लेकिन जिला प्रशासन द्वारा आयोजित इस समारोह के रंग […]
केशव कुमार
सुपौल : 14 मार्च 1991 यानि वह तारीख जब इतिहास के पन्नों पर पहली बार सुपौल का नाम बतौर जिला दर्ज हुआ. मंगलवार को सुपौल ने बतौर जिला अपने 26 वर्ष पूरे कर लिये और मौके पर देर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित हुआ, लेकिन जिला प्रशासन द्वारा आयोजित इस समारोह के रंग जितने फीके थे, उससे भी अधिक फीकी विकास की वह लकीर है, जो जिला स्थापना के वक्त शायद लोगों के जेहन में था. साल दर साल बीतते चले गये और हकीकत यही है कि तमाम दावों के बीच भी बीते 26 वर्षों में जिले में विकास की धड़कन भी सिसकती नजर आयी.
इसमें कोई शक नहीं है कि बीते पांच-सात सालों में विकास कार्यों ने दम भरा और सुरत कुछ हद तक बदली भी है, लेकिन विकास कार्यों की यह रफ्तार भी सुपौल की सिरत बदलने में कामयाब नहीं रही है. खुद सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि स्थापना के बाद से जिला आर्थिक मामलों में सूबे के शीर्ष जिलों में हर वर्ष शुमार रहा है और इसे सुपौलवासियों का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि सूबे की बदलती राजनीति भी जिले को वह स्थान या दर्जा दिलाने में नाकामयाब रही है, जो उसे मिलना चाहिए. 26 वर्षों में सुपौल व सुपौलवासियों ने जितना कुछ पाया है, शायद खोने का खांका उससे अधिक गहरा है. बावजूद उम्मीद और भरोसा कायम है कि जनाब की कभी तो नजरें इनायत हो ही जायेंगी.
147 साल पुराना अनुमंडल है सुपौल: बात इतिहास की हो तो गौरवशाली अतीत का जिक्र हो ही जाता है और सुपौल इस मामले में सूबे के कई जिलों से आगे है. कोसी के कछार पर बसा यह जिला ब्रिटिश शासन के दौरान वर्ष 1870 में ही अनुमंडल हुआ करता था. 121 वर्षों बाद सुपौल को बतौर जिला स्थान मिला तो लोगों की आस जगी कि विकास कार्यों की बयार बहेगी. हालांकि आज भी लोग कहते हैं कि प्रमंडल के सहरसा और मधेपुरा जिले ने ही सुपौल की हकमारी कर ली, जिसकी खास वजह भी है.
दरअसल सहरसा को जिस वक्त जिला घोषित किया गया, उस वक्त सुपौल का नाम तेजी से बढ़ा था. इसकी वजह यह थी कि तब के प्रावधानों के अनुसार जिला होने के पूर्व संबंधित स्थान को अनुमंडल होना होता था और अनुमंडल होने के लिए थाना. इलाके में उस वक्त सुपौल सबसे पुराना थाना और अनुमंडल हुआ करता था. इसके बाद सहरसा जिले के बनगांव थाना का नाम आता था, लेकिन राजनीतिक दबीश की वजह से किसी प्रकार सहरसा जिला बन गया और सुपौल को निरासा हाथ लगी.
वही वर्ष 1934 की भूकंप में निर्मली-भपटिहयाही के बीच रेल संपर्क भी भंग होने से जिले के दूसरे हिस्से से भंग हो चुका था और मिथिलांचल से भी सुपौल पूरी तरह टूट चुका था, जबकि सीमांचल यानि पूर्णिया प्रमंडल से सुपौल का संपर्क मधेपुरा के रास्ते ही होता था. इसके कारण सुपौल तक विकास की बयार पहुंचते-पहुंचते धीमी पड़ जाती थी. लोग सुपौल के विकास में पिछड़ापन के लिए यहां के राजनेताओं को भी उतना ही दोषी मानते हैं. बहरहाल जिले में 11 प्रखंड, सुपौल नगर परिषद, वीरपुर व निर्मली नगर पंचायत सहित 181 पंचायत अवस्थित हैं. जिसमें से करीब 28 पंचायतों के 143 गांव कोसी तटबंध के भीतर अवस्थित हैं .
धार्मिक संपदाओं का क्षेत्र रहा है सुपौल: संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं हो या महावीर सरीखे संत या महात्मा बुद्ध सभी का इतिहास सुपौल से भी जुड़ा हुआ है. कहते हैं कि कोसी के सबसे बड़े संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं की जन्मस्थली सदर प्रखंड के परसरमा में थी. वही बुद्ध और महावीर जैसे संतों का भी सुपौल में आगमन हो चुका है. इसके अलावा सदर प्रखंड क्षेत्र में ही भगवान शिव का तिलहेश्वर और कपिलेश्वर मंदिर है, जहां आपरुपी शिवलिंग अवस्थित है. सदर प्रखंड के हरदी स्थित मां वनदेवी दुर्गा मंदीर की ख्याती दूर-दराज के इलाकों में भी है.
इसे वीर लोरिक धाम के नाम से भी जाना जाता है. वही राघोपुर प्रखंड के धरहरा पंचायत स्थित भीमशंकर महादेव मंदिर का इतिहास महाभारत युग से जुड़ा हुआ है.
कोसी है जलसंपदा, बना है दुर्भाग्य: एक ओर समूचा विश्व जल संपदा के संरक्षण पर मंथन कर रहा है, तो वही सुपौलवासियों को कोसी के रूप में अगाध जलसंपदा प्राप्त है. इतिहास पर भी नजर दौड़ायें तो सुपौल के इलाके को मत्स्य क्षेत्र कहा जाता था. इसके अलावा सुरसर, भेंगा, मिरचाया, काली, तिलयुग, गेंड़ा, हहिया व घेमरा धार भी हैं, जो सुपौल को जल संपदा के मामले में परिपूर्ण करते हैं.
जानकारों की मानें तो सुपौल के पास जितनी जल संपदा है, केवल उसका उपयोग हो तो यह सूबे के शीर्ष विकासशील जिलों में शुमार हो जायेगा, लेकिन इसे राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी ही कहा जा सकता है कि जिस जल संपदा पर सुपौलवासियों को नाज होना चाहिए, वही सुपौलवासियों के लिए सबसे बड़े दुर्भाग्य का कारण बना हुआ है. दरअसल हर साल कोसी और उसकी सहायक नदियां इलाके में तांडव मचाती हैं. वर्ष 2008 की कुसहा त्रासदी के जख्म तो ऐसे हैं .