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सुपौल लोकसभा सीटः यहां विकास पर हावी है जातीय गोलबंदी, लगातार दूसरी बार किसी को नहीं मिला मौका

सुपौल लोकसभा सीट के अस्तित्व में आने के बाद यह तीन लोकसभा चुनावों का गवाह बना है. सुपौल लोकसभा क्षेत्र के नतीजों पर अगर नजर डाली जाए तो अति पिछड़ा व यादव बहुल इस इलाके में मुद्दे भटके हैं और जातीय समीकरण प्रबल रहे हैं

सुपौल से राजीव झा

सुपौल लोकसभा सीट अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे सुपौल लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं को गठबंधन पसंद है. इससे पहले के चुनावों पर गौर करें, तो आंकड़े गवाह हैं कि यहां के लोग एकदलीय से ज्यादा बहुदलीय व्यवस्था पर आस्था जताते रहे हैं. दूसरी ओर इस इलाके में जातीय गोलबंदी धराशायी नहीं होती. अब भी जातीय दलदल में विकास का मुद्दा फंस जाता है.

अति पिछड़ा व यादव बहुल क्षेत्र

अस्तित्व में आने के बाद तीन लोकसभा चुनावों का गवाह बने सुपौल लोकसभा क्षेत्र के नतीजों पर अगर नजर डाली जाए तो अति पिछड़ा व यादव बहुल इस इलाके में मुद्दे भटके हैं और जातीय समीकरण प्रबल रहे हैं. 2009 में सुपौल लोकसभा क्षेत्र के पहले सांसद बने जदयू के विश्वमोहन कुमार ने कांग्रेस के रंजीत रंजन को लगभग 1 लाख 66 हजार मतों से पराजित किया था. वर्ष 2014 में कांग्रेस की रंजीत रंजन ने जदयू के दिलेश्वर को लगभग 60 हजार वोट से हराया था. वहीं वर्ष 2019 में एनडीए गठबंधन की ओर से जदयू के दिलेश्वर कामैत ने कांग्रेस के रंजीत रंजन को लगभग 02 लाख 66 हजार से पराजित किया.

लगातार दूसरी बार किसी ने दर्ज नहीं की है जीत

यहां के मतदाताओं ने किसी भी उम्मीदवार को लगातार दूसरी बार मौका नहीं दिया है. अब देखना दिलचस्प होगा कि वर्तमान सांसद इस मिथ्या को तोड़ने में सफल होते हैं या महागठबंधन के प्रत्याशी इस मिथ्या को बरकरार रखने में. सुपौल लोकसभा क्षेत्र भले ही विकास के मामले में अपनी एक अलग पहचान बना चुका हो, लेकिन लोक सभा चुनाव में विकास मुख्य कभी मुद्दा नहीं बन सका. लोगों का मानना है कि इसी वजह से सुपौल को जिला बने 34 साल गुजर जाने के बाद भी यहां न तो केंद्रीय विद्यालय की स्थापना हुई और न ही कोसी के स्थायी समाधान के लिए हाइ डैम बन पाया है. हालांकि, चुनाव के समय ये दोनों मुद्दे काफी तेजी से उठाये जाते हैं, लेकिन चुनाव बीतते ही ये मुद्दे खत्म हो जाते हैं.

गठबंधनों के बीच होता है मुकाबला

सुपौल लोकसभा क्षेत्र में गठबंधन का बोलबाला रहा है. 2009 में एनडीए गठबंधन के तहत भाजपा और जदयू ने एक साथ चुनाव लड़ा, तो जीत हासिल की. वर्ष 2014 में कांग्रेस व राजद ने एक साथ चुनाव लड़ा तो यहां से कांग्रेस के रंजीत रंजन जीतीं. 2014 में जदयू का एनडीए से गठबंधन नहीं हो सका था, इसलिए जदयू को हार का सामना करना पड़ा. फिर 2019 में एनडीए गठबंधन ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा और जदयू के प्रत्याशी दिलेश्वर कामैत ने कांग्रेस के रंजीत रंजन को भारी मतों से पराजित कर जीत हासिल की.

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