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राघोपुर आत्महत्या कांड : कटघरे में पूरा समाज, अब न चेते तो यह घुन लग जायेगा

सुपौल के राघोपुर पंचायत (राघोपुर प्रखंड) के वार्ड 12 स्थित एक घर में पांच लोगों की लाश का मिलना कई सवाल खड़ा कर गया है.

जीवेश रंजन सिंह , सुपौल के राघोपुर पंचायत (राघोपुर प्रखंड) के वार्ड 12 स्थित एक घर में पांच लोगों की लाश का मिलना कई सवाल खड़ा कर गया है. शनिवार (13 मार्च) देर शाम घर से दुर्गंध आने पर जब खिड़की तोड़ी गयी, तो घर के सभी पांच सदस्यों की लाश फंदे से लटकी मिली. मरनेवालों में मिश्रीलाल शाह और उनके परिजन थे.

आसपास के लोगों के अनुसार पिछले सोमवार (आठ मार्च) को शाह और उसके परिवार के लोग घर के बाहर दिखे थे, फिर किसी ने उन्हें नहीं देखा. सोमवार व शनिवार के बीच तीन दिन का समय बीता, पर किसी ने न तो इस बात पर ध्यान दिया या जानने की भी कोशिश की कि घर के लोग कहां हैं, क्यों नहीं बाहर निकल रहे हैं.

अब यह तो जांच का विषय है कि यह हत्या है या आत्महत्या या फिर कुछ और. पर इस घटनाक्रम ने समाज को कटघरे में खड़ा कर दिया है. एक चूल्हे की आग से पूरे गांव के चूल्हे में आग जलाने की परंपरा वाले हम, पड़ोस में किसी के घर मेहमान आ जाये तो खुद पकवान पहुंचा देनेवाले हम कहां आ गये हैं. क्या किसी को यह ख्याल नहीं आया कि एक पूरा परिवार खास कर जिसमें एक आठ साल की बच्ची फूल कुमारी भी शामिल है, नहीं दिख रही.

यह सच है कि बदलाव जीवन का सार है. कई नयी राह भी निकलती है, पर ऐसा बदलाव किस काम का. अब तक बड़े शहरों की ऐसी कहानियां सुनी और सुनायी जाती थीं. बड़ी वितृष्णा के साथ गंवई अंदाज में यह कहा भी जाता था कि ये सब बड़े शहर के चोचले हैं, पर यह रोग गांवों-कस्बों को क्यों लग गया.

आपस में लड़ने-भिड़ने, लेकिन एक-दूसरे के लिए जान देने की परंपरा क्यों खत्म होती जा रही है, यह सोचने की जरूरत है. तिलकामांझी विश्वविद्यालय भागलपुर के पूर्व कुलपति और मनोवैज्ञानिक डॉ निलांबुज वर्मा कहते हैं कि आगे बढ़ने की होड़ और खुद को सुपीरियर साबित करने की जिद ने हमारे भाइचारगी व जीवंतता को मार दिया है. अब हम आसपास से बेजार, पर विज्ञापनों में हंसते-मुस्कुराते परिवार व भाइचारगी को देख खुश होना पसंद करने लगे हैं.

याद रखें स्वस्थ समाज का अलग मनोविज्ञान होता है. इसकी व्याख्या न तो कोई मनोवैज्ञानिक कर सकता है और न ही कोई मनोचिकित्सक. इसे बचाने की जरूरत है. आगे बढ़ने की होड़ उचित है, पर राह क्या हो, इसका चुनाव सोच-समझ कर करने की जरूरत है. सुपौल की यह घटना बड़ी सीख है. मतभेद होते रहे, पर मनभेद की ऐसी पराकाष्ठा न हो.

आज जबकि बदलाव के इस दौर में सब अकेले होते जा रहा रहे हैं, ऐसे में घर-घर सुनी और सुनाई जानेवाली बुजुर्गों की यह बात कि : जहां दो बरतन होंगे, वहां खटपट होगा ही, पर रहेंगे एक ही, को फिर से याद करने की जरूरत है, वरना बिखराव का यह घुन कहीं जड़ जमा लिया, तो फिर कोई वैद्य इलाज नहीं कर पायेगा.

Posted by Ashish Jha

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