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Sonepur Mela: थिएटर ने बदली सोनपुर मेले की पहचान, महंगे टिकट के बावजूद जुटती है लोगों की भीड़

पशु मेले के रूप में विश्व के कई प्रमुख देशों खासकर भारत के सीमावर्ती देशों में विख्यात सोनपुर मेला का स्वरूप आज बदल गया है. कभी क्रांतिकारी गतिविधि और पशुओं की खरीद- बिक्री के लिए प्रख्यात सोनपुर मेला आज युवाओं की नजर में सिर्फ खेल तमाशा, थियेटर और पिकनिक स्पॉट बन कर रह गया है.

बिहार के सोनपुर में लगने वाले ऐतिहासिक पशु मेले के रूप में हरिहर क्षेत्र सोनपुर मेले की प्रसिद्धि आज भी बरकरार है. स्थानीय लोग इसे छत्तर मेला भी कहते हैं. बिहार की राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर और हाजीपुर से 3 किमी दूर सोनपुर में गंडक के तट पर लगने वाले इस मेले में अब जानवरों की बिक्री में गिरावट आई है. सरकारी पाबंदियों के कारण यहां के पशु मेले पर भी बड़ा फर्क पड़ा है. हाथी और घोड़े इस मेले की सबसे बड़ी ताकत हुआ करते थे. लेकिन अब यहां की सबसे बड़ी ताकत थिएटर है. पिछले एक दशक में सोनपुर मेले का स्वरूप बदलता चला गया और पशु मेला क जगह थिएटर इसकी पहचान बनते चले गए. आज बड़ी संख्या में युवाओं के यहां पहुंचने का एक कारण थिएटर भी है. एक जमाना ऐसा भी था जब मेले में नौटंकी के सहारे कला का प्रदर्शन होता था और सोनपुर मेले की नौटंकी देश भर में विख्यात थी. आज थिएटर इस मेल की पहचान बन चुका है.

कैसे शुरू हुआ थिएटर ?

सोनपुर मेले में थिएटर शुरू होने के पीछे भी एक कहानी है. ऐसा कहा जाता है कि इस पशु मेले में मध्य एशिया से कारोबारी आया करते थे. दूर-दूर से पशुओं की खरीदारी करने आये व्यापारियों के लिए रात में ठहरने का खास इंतजाम किया जाता है. व्यापारियों के मनोरंजन के लिए नाच-गाने आदि की व्यवस्था की जाती है. इसके लिए विदेशों से भी कलाकारों को लाया जाता था. कभी मनोरंजन के लिए होने वाला यह नाच-गाना ही धीरे-धीरे मेले की पहचान बनते चले गए. फिर बदलते समय के साथ इसी नाच-गान ने अब थियेटर का रूप ले लिया है.

पशु मेला से थिएटर मेला कैसे बना सोनपुर मेला

सोनपुर मेला में किसी समय में बड़ी संख्या में हाथी, घोड़े, पक्षी, बैल, गाय आदि की खरीद-बिक्री होती थी. लेकिन सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति और कृषि क्षेत्र में लगातार हो रहे वैज्ञानिक प्रयोगों ने बदलते परिवेश में मेले के ऐतिहासिक स्वरूप पर गहरा प्रभाव डाला है. प्रशासन ने सबसे पहले मेले में आने वाले पक्षियों की प्रदर्शनी पर रोक लगाई, इसके बाद हाथियों की बिक्री को भी पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया. जिसकी वजह से सोनपुर मेला अब पशु मेला की जगह थिएटर मेला बनकर रह गया है.

एक थिएटर के आयोजन में करोड़ों होते हैं खर्च

जानकार बताते हैं कि सोनपुर मेले में लगने वाला थिएटर सरकार के लिए राजस्व का एक बड़ा स्त्रोत है. यहां थिएटर लगाने के लिए सबसे पहले जगह के लिए बोली लगती है और उस हिसाब से थिएटर वाले प्रशासन को पैसा देते हैं. यह रकम लाखों में होती है. वहीं मेले के दौरान थिएटर में आयोजकों को करोड़ों तक खर्च करने पड़ते हैं. एक थिएटर में डांसर, कलाकार और अन्य स्टाफ मिलकार 100 से 250 लोग तक काम करते हैं. इसमें टेकनीशियन और मजदूर भी शामिल होते हैं.

महंगे टिकट के बावजूद पहुंचती है भीड़

सोनपुर मेला में इस बार छह थिएटर लगे हैं. अमूमन एक थिएटर में प्रतिदिन एक ही शो होता है, जिसमें 500 से 800 लोगों की भीड़ पहुंचती है. वहीं अगर थिएटर के टिकट की रेट की बात करें तो सभी 6 थिएटर के रेट लगभग एक जैसे हैं. टिकटों को चार कैटेगरी में बांटा गया है. इन टिकटों के दाम 200 रुपये से शुरू होकर 1300 रुपयों के बीच में होते हैं. इसके बावजूद यहां लोगों की भीड़ लगती है.

जानिए सोनपुर मेले का इतिहास…

सोनपुर मेला कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान के बाद शुरू होता है. एक समय इस पशु मेले में मध्य एशिया से कारोबारी आया करते थे और यह मेला जंगी हाथियों का सबसे बड़ा केंद्र था. मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य मुगल सम्राट अकबर भी यहां आया करते थे. स्वतंत्रता आंदोलन में भी सोनपुर मेला बिहार की क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र रहा है. 1857 के गदर के नायक वीर कुंअर सिंह भी अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष के लिए जागरूक करने और अपनी सेना में बहाली के लिए यहां आते थे.सन 1803 में रॉबर्ट क्लाइव ने सोनपुर में घोड़े का बड़ा अस्तबल भी बनवाया था.

मेले की पौराणिक कथा..

धार्मिक जानकारों का कहना है कि भगवान विष्णु के दो द्वारपाल हुआ करते थे. दोनों का जन्म ब्रह्मा के मानस पुत्रों द्वारा दिए गए श्राप के कारण पृथ्वी पर हुआ था. जिनमें से एक ग्रह यानी मगरमच्छ बन गया और दूसरा गज यानी हाथी बन गया. एक दिन जब हाथी पानी पीने के लिए कोनहारा घाट पर आया तो मगरमच्छ ने उसे अपने मुंह में पकड़ लिया और दोनों के बीच युद्ध शुरू हो गया. दोनों के बीच कई सालों तक लड़ाई चलती रही. इसके बाद भगवान विष्णु ने दर्शन चक्र छोड़ कर युद्ध समाप्त कराया. भगवान की इस लीला को देखकर सभी देवी-देवता एक साथ इसी स्थान पर प्रकट हुए. जिसके बाद भगवान ब्रह्मा ने यहां दो मूर्तियां स्थापित कीं. ये मूर्तियां भगवान शिव और विष्णु की थीं. इसी कारण इसका नाम हरिहर पड़ा और चूंकि दो पशुओं के युद्ध के कारण भगवान प्रकट हुए इसलिए यहां पशुओं की खरीदी-बिक्री को शुभ माना जाता है.

मिथिला जाने के क्रम में आये थे प्रभु राम, की थी शिव आराधना

हरिहर क्षेत्र सोनपुर में प्रसिद्ध और ऐतिहासिक हरिहरनाथ मन्दिर है. इस हरिहरनाथ मंदिर के बगल में लोक सेवा आश्रम परिसर में भगवान सूर्य एवं शनि का भव्य मंदिर स्थित है, जो यहां आने वाले लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होने वाला यह मेला आध्यात्मिक रूप से देवस्थान से शुरू होकर करीब एक महीने तक चलता है. इस मेले की शुरुआत गंगा एवं गंडक नदी में स्नान के बाद हरिहरनाथ पर जलाभिषेक एवं मंदिर में पूजा-पाठ से होती है. ऐसा कहा कहा जाता है कि मिथिला जाने के क्रम में भगवान राम ने इस स्थान पर शिव की आराधना की थी और एक मंदिर की स्थापना की. लोगों की आस्था है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां नदी में स्नान करने वाले को मोक्ष मिलता है.

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समय बदल तो कारोबार का भी बदला ट्रेंड

दो दशक पहले तक सोनपुर मेला में कारोबार का अलग ट्रेंड हुआ करता था. शादी ब्याह के आयोजन को लेकर यहां से लोग बड़ी संख्या में खरीदारी करते थे. अभी भी शादी विवाह की खरीदारी को लेकर आसपास के लोग सोनपुर मेला में आते हैं. हालांकि समय के हिसाब से यह ट्रेंड अब धीरे-धीरे बदल रहा है. सोनपुर मेला में अस्थायी रूप से कई शोरूम तैयार किये जाते हैं. जहां मोटरसाइकिल से लेकर चार पहिया वाहनों तक की बिक्री होती है. वहीं कृषि विभाग द्वारा सब्सिडी पर दिये जाने वाले कृषि यंत्र की बिक्री का भी अब यह बड़ा केंद्र बनकर उभरा है. लकड़ी बाजार की प्रासंगिकता अभी भी बरकरार है. लोगों की रुचि को देखते हुए लकड़ी बेचने वाले कारोबारी ने अब ब्रांडेड कंपनियों से लेकर लोकल लकड़ी के सामानों का बाजार उपलब्ध करा दिया है. पिछले साल 100 करोड़ से अधिक का कारोबार सोनपुर मेले में हुआ था. जिसमें इस बार दो गुना बढ़ोतरी की का अनुमान है.

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आधुनिकता हावी, लुप्त हो रही है परंपरा

कल तक लोग बैलगाड़ी, टमटम व टायर गाड़ी से मेला पहुंचते थे और अब मेला शुरू होते ही कीमती गाड़ियों से पूरा मेला परिसर पट जाता है.पारंपरिक लोक नृत्य व गायन से जुड़े कार्यक्रमों में निरंतर कमी हो रही है. नौटंकी तो अतीत की बातें बन गयी. कभी मेले की पहलवानी देखने दूर दूर से लोग आते थे अब ऐसा नहीं है. न पहलवानी की कोई कद्र रही और न पहलवानों के कोई कद्रदान. हाथियों की संख्या भी लगातार सिमटती जा रही है. कार्तिक पूर्णिमा के दिन भी हाथियों के जलक्रीड़ा का बहुत कम दृश्य देखने को मिलता है. बढ़ती मंहगाई के कारण अब लोग घोड़ा बाजार को देखने व सेल्फी लेने के उद्देश्य से ही मेला में आते हैं

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पूर्णिमा से चार-पांच दिन पहले बैलगाड़ी से सोनपुर पहुंचते थे लोग

जानकार बताते हैं कि समय के साथ मेला का विकास हुआ है, मगर एक जमाना ऐसा भी था जब संचार के साधन नहीं होने से लोग बैलगाड़ी व टायर गाड़ी के सहारे कार्तिक पूर्णिमा स्नान के लिए चार-पांच दिन पहले ही यहां पहुंचते थे. इस दौरान विभिन्न घाटों पर अप्रत्याशित भीड़ उमड़ती थी. लोग घर से खाद्य सामग्री बना कर लाते थे और कई बार मेला परिसर में ही भोजन बनाया जाता था. उस समय के मेले में ठहराव होता था मगर अब का मेला दर्शनार्थियों के लिए वनडे व T-20 क्रिकेट मैच की तरह हो गया है.

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थिएटर के अलावा मेले में युवाओं के लिए और क्या है खास

एडवेंचरस स्पोर्ट्स, नौकायन, पैराशूटिंग, बोटिंग जैसे इवेंट्स इस मेले को अब आकर्षक बना रहे हैं. पिछले साल हाथियों का शाही स्नान तो नहीं हुआ था. लेकिन इस बार शाही स्नान के लिए सुदूर ग्रामीण इलाकों से भी महावत अपने हाथियों को लेकर पहुंचेंगे. कला संस्कृति एवं युवा विभाग ने भी इस बार सांस्कृतिक मंच पर देश के नामचीन कलाकारों को अपनी प्रस्तुति देने के लिए न्योता भेजा है. बॉलीवुड के कई कलाकार भी इस बार मेले का आकर्षण होंगे. पिछले साल भी बॉलीवुड के कई दिग्गज अभिनेता वह गायक गायिका मेले में पहुंचे थे. वहीं अब लोक संगीत को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बिहार के लोक गायन को को भी अवसर दिया जा रहा है. जिससे सांस्कृतिक मंच के पंडाल में प्रतिदिन हजारों लोग जुटते हैं.

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