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सावन में झूले जैसा आनंद और कहां

* भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परंपरा वैदिक काल से ही चली आ रही हाजीपुर : सावन में प्रकृति श्रृंगार करती है. जो मन को मोहने वाली होती है. यह मौसम ऐसा होता है जब प्रकृति खुश होती है तो लोगों का मन भी झूमने लगता है. झूला इसमें सहायक बन जाता है. भारतीय […]

* भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परंपरा वैदिक काल से ही चली रही

हाजीपुर : सावन में प्रकृति श्रृंगार करती है. जो मन को मोहने वाली होती है. यह मौसम ऐसा होता है जब प्रकृति खुश होती है तो लोगों का मन भी झूमने लगता है. झूला इसमें सहायक बन जाता है. भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परंपरा वैदिक काल से ही चली रही है.

भगवान श्रीकृष्ण राधा संग झूला झूलते और गोपियों संग रास रचाते थे. मान्यता है कि इससे प्रेम बढ़ने के अलावा प्रकृति के निकट जाने एवं उसकी हरियाली बनाये रखने की प्रेरणा मिलती है. संस्कृति एवं परंपरा की ही देन है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के गांव और कस्बों में लोग झूला झूलते हैं. विशेष कर महिलाएं और युवतियां इसकी शौकीन होती हैं. भारतीय हिंदी महीने की हर माह की अपनी खुशबू है. सावन के भादो का महीना प्रकृति के और निकट ले जाता है. झूले झूलने के दौरान गाया जाने वाला गीत जिसमें कजरी, बारहमासा, बरसाती आदि ऐसे हैं जो मन को सुकून देते हैं.

झूला गांव के बागीचों, मंदिर के परिसरों में लगाया जाता है. जिस पर अधिकतर युवतियों का ही कब्जा होता है. गांव के युवक इसमें शामिल अवश्य होते हैं लेकिन केवल सहयोगी के रूप में. उन्हें दूर से ही इसे देखने की इजाजत मिलती है. वर्तमान समय में अब झूले की परंपरा लुप्त हो रही है. सावन भादों की खुशबू अब नहीं दिखती है. एक दो अन्य स्थानों को छोड़ कर लोग इसका आनंद नहीं ले पा रहे हैं. इन झूलों के नहीं होने से कजरी और बारहमासा भी नहीं सुनने को मिलता है. झूला मंदिरों की शोभा बन कर रह गया है.

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