Women Of The Day: पद्मश्री दुलारी देवी को भले ही शब्दों की पहचान नहीं, पर रंगों से हैं बखूबी वाकिफ, बना चुकी हैं 8000 से ज्यादा पेंटिंग
मधुबनी की ‘पद्मश्री दुलारी देवी’ आज अपनी कला के लिए न सिर्फ मिथिला या बिहार बल्कि देश दुनिया में जानी जाती हैं. पेश है दुलारी देवी से बातचीत के अंश
Women Of The Day: इंसान की पहचान उसके हुनर से होती है. किसी को प्रसिद्ध होने के लिए जरूरी नहीं, की वो पढ़ा लिखा हो, उसे देश-दुनिया की जानकारी हो. कहते हैं न कि सोना तपकर ही कुंदन बनता है. मधुबनी की ‘पद्मश्री दुलारी देवी’ भी ऐसी ही कुंदन हैं, जिन्हें गरीबी की आंच ने ऐसा तपाया कि वो पूरे देश-दुनिया की ‘दुलारी’ बन गयीं. गरीबी के बाद भी उन्होंने मधुबनी पेंटिंग को अपने हुनर का जरिया बनाया और न सिर्फ मिथिला बल्कि पूरे बिहार का भी मान-सम्मान बढ़ाया है.
वे अलग-अलग विषयों पर अब तक तकरीबन आठ हजार से अधिक पेंटिंग बना चुकी हैं. दुलारी देवी के पद्मश्री बनने की कहानी संघर्ष के कई पड़ावों से होकर गुजरी है, जो किसी अकल्पनीय कहानी जैसी लगती है. उन्हें शब्दों की पहचान भले न हो, पर रंगों की बखूबी पहचान है. उनके चित्रांकन की शैली मिथिला पेंटिंग के ‘कचनी शैली’ से मिलती है.
Q. सबसे पहले आप अपने बारे में बताएं ?
मेरा जन्म बिहार के मधुबनी जिले के रांटी गांव में गरीब मल्लाह परिवार में हुआ था. गरीबी ऐसी कि बचपन हर तरह के अभाव में बीता. कभी स्कूल जाने का मौका भी नहीं मिला. ऐसे में मां-बाप ने 12 साल की उम्र में हाथ पीले कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी. शादी के कुछ साल बाद मुझे बेटी का सुख मिला, लेकिन छह माह की उम्र में उसकी मौत हो गयी. बेटी की मौत का गम लिये मैं मायके वापस आ गयी. पति का घर छूटने के बाद मायके में रहना भी आसान नहीं था. जीवन चलाने के लिए मैं लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा करने लगी.
उस वक्त मुझे जानी-मानी मधुबनी पेंटर महासुंदरी देवी के यहां काम मिल गया. यहां काम करने के एवज में मुझे छह रुपये मिलते थे. उनके यहां काम करते हुए मैं उनकी देवरानी कर्पूरी देवी के संपर्क में आयी जिनका मिथिला कला में बड़ा नाम था. देवरानी-जेठानी को मिथिला पेंटिंग करते देख मेरे मन में भी इसे सीखने की इच्छा जागी. शुरुआत में मैंने अपने घर के आंगन को मिट्टी- गोबर से पोतकर उसपर लकड़ी की कूची से पेंटिंग बनाने लगी.
Q. आप मधुबनी पेंटिंग से पूरी तरीके से कैसे जुड़ीं और कैसे पहचान बनी?
कर्पूरी देवी ने मुझे मिथिला कला का ककहरा सिखाया. 1983 में प्रख्यात पेंटर गौरी मिश्रा ने महिलाओं को मिथिला पेंटिंग सिखाने और उनके काम को प्रमोट करने के लिए एक संस्था बनायी थीं. कर्पूरी देवी की मदद से मुझे पेंटिंग सीखने का मौका मिला. इस संस्था से जुड़ने के बाद उनकी कुछ पेंटिंग बिकने लगीं. चूंकि बिहार का मधुबनी जिला मिथिला पेंटिंग के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है, इसलिए कई विदेशी लोग यहां के कलाकारों से मिलने और पेंटिंग खरीदने आते रहते हैं.
उस वक्त जापान से आये हासी गावा ने मेरी पहली पेंटिंग जो सात पोस्टकार्ड थे, खरीदा. एक कार्ड की कीमत उन्होंने पांच रुपये दिये. इसके बाद मैंने अपनी एक पेंटिंग तीन लाख रुपये में बेचीं थी, जिसे बिहार सरकार ने खरीदा था. आज भी वह पेंटिंग पटना के बिहार म्यूजियम में लगी है. फिर मुझे स्टेट अवार्ड मिला और साल 2021 में पद्मश्री.
Q. कला के क्षेत्र में पहचान मिलने के बाद प्रशिक्षण देने का मौका कहां-कहां मिला?
मेरी कई सारी पेंटिंग फ्रांस, अमेरिका और जापान में गयी है. वहीं बेंगलुरु, केरल, नयी दिल्ली समेत कई राज्यों में प्रशिक्षण देने का मौका मिला. केरल में अभिनेत्री वैजयंती माला से मुलाकात हुई थी. नयी दिल्ली में एपीजे अब्दुल कलाम से भी मिलना हुआ था. अभी बिहार संग्रहालय सहित कई जगहों पर समय-समय पर प्रशिक्षण देती रहती हूं.
Q. मधुबनी पेंटिंग आज विश्व पटल पर छा गयी है. ऐसे में आपके समय के कलाकार व आज के कलाकारों में कितना महसूस करती हैं?
बदलाव तो आया है. पहले कलाकारों में धीरज था. जो भी काम करते थे, मेहनत से करते थे. प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करते थे, जिसकी चमक आज भी बरकरार है. आज के समय में तो बड़ी संख्या में मधुबनी पेंटिंग के कलाकार हैं, जो कि अच्छी बात है. रंगों में भी वैरायटी आयी है.