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गांधी के दर्शन में ही दुनिया का भला : सच्चिदानंद

मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी प्रखंड में एक गांव है मनिका. इसी गांव में है महान समाजवादी चिंतक और लेखक सच्चिदानंद सिन्हा का चमेला कुटीर. वह इस कुटीर में भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर न्यूनतम संसाधनों के बीच रहते हैं. सच्चिदानंद सिन्हा ने 30 अगस्त, 2022 को अपने जीवन के 94 साल पूरे किये.

मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी प्रखंड में एक गांव है मनिका. इसी गांव में है महान समाजवादी चिंतक और लेखक सच्चिदानंद सिन्हा का चमेला कुटीर . वह इस कुटीर में भौतिक सुख-सुविधाओं से दूर न्यूनतम संसाधनों के बीच रहते हैं. सच्चिदानंद सिन्हा ने 30 अगस्त, 2022 को अपने जीवन के 94 साल पूरे किये.

उन्होंने शादी नहीं की और अपना पूरा जीवन समाजवादी आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया. सामाजिक विषमताओं और उपभोक्तावादी व्यवस्थाओं के घनघोर द्वंद्व के बीच जी रही नयी पीढ़ियों के लिए उनके विचार काफी प्रासंगिक हैं. पढ़िए, सच्चिदानंद सिन्हा से पवन प्रत्यय की बातचीत के अंश-

Qपिछले दिनों आपके समग्र लेखन, गंभीर चिंतन, भाषण और वैचारिकी का संकलित रूप पुस्तकाकार में आया है. आपको इसके लिए बधाई !

आपका धन्यवाद! राजकमल प्रकाशन ने मेरे कामों को समग्रता के साथ आठ खंडों में ‘सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली’ प्रकाशित किया है.

Q ‘सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली’ में राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास, समाजशास्त्र, दर्शन, कला, संस्कृति, धर्म आदि गंभीर विषयों पर आपके समग्र लेखन-चिंतन को समेटा गया है. अपनी दृष्टि की इस व्यापकता के विषय में कुछ बताएं.

दरअसल, मैं बहुत कम उम्र में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़ गया था. इस आंदोलन की खासियत यह रही है कि समाजवादियों ने बड़े व अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में तथा अन्य राजनीतिक दलों से कुछ अलग करने की कोशिश की. खासकर कार्ल मार्क्स, जिन्होंने पूरे इतिहास की व्याख्या की और पूरे समाजवादी आंदोलन को समझने की कोशिश की. इसका प्रभाव हमलोगों पर पड़ा. इसके बाद देखें, तो भारत में गांधी को हम इग्नोर नहीं कर सकते हैं.

भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर के चिंतकों ने माना है कि गांधी की तरह पूरे संसार में बहुत कम ही व्यक्ति रहे होंगे. गांधी और मार्क्स के प्रभाव के कारण ही मैं समाजवादी आंदोलन में रहा. पटना के साइंस कॉलेज में बीएससी की पढ़ाई के दौरान ही मैं हजारीबाग निकल गया और कोयला मजदूरों के बीच काम शुरू कर दिया. इसके बाद मैं वहां से मुंबई जा कर करीब छह साल तक मजदूर आंदोलन में सक्रिय रहा. आंदोलन के दौरान लगभग दो साल मैंने रेलवे में खलासी के रूप में काम किया.

इसके बाद बिहार आने पर लगभग 1956 से 1970 तक किसान आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी. 1970 के बाद दिल्ली में लगभग 18-20 वर्षों के प्रवास के दौरान वहां कई पुस्तकें मैंने लिखीं.

Q. आपने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखा है. आप फ्रेंच और जर्मन भाषाएं भी तो जानते हैं. आप एक अच्छे अनुवादक भी हैं. आपने अल्बेयर कामू की रचनाओं का भी अनुवाद किया है. आप विश्व साहित्य के सामने भारतीय साहित्य की क्या स्थिति देखते हैं?

विश्व साहित्य तो बड़ी चीज है. वहीं, भारतीय साहित्य एक छोटा-सा अंग है. भारतीय साहित्य का एक अपना इतिहास रहा है. 20वीं शताब्दी के बाद भारतीय साहित्य पर वैश्विक साहित्य का प्रभाव रहा और फिर इसके साथ ही भारतीय साहित्य का विकास होता रहा. हमलोगों ने भी समाजवादी साहित्य को भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर समेटने की कोशिश की है. मैंने पूरी दुनिया के समाजवादी आंदोलन को लेकर पुस्तकें लिखीं. मेरी पहली पुस्तक थी ‘समाजवाद के बढ़ते चरण’.

इस पुस्तक में भारत में समाजवाद के कदम को दुनिया के समाजवाद के परिप्रेक्ष्य में बताने की कोशिश की गयी है. इसके बाद मैंने कई और पुस्तकें लिखीं, जिनमें महत्वपूर्ण किताब थी ‘सोशलिज्म एंड पावर’. इसमें हमने समझने की कोशिश की कि आखिर समाजवादी आंदोलन कैसे ध्वस्त होते चले गये. सत्ता पाने के कई तरह के गुण-धर्म होते हैं. पावर को ग्रहण करने के क्रम में कई तरह के आदर्श नष्ट होते चले जाते हैं. इसी तरह मेरी किताब ‘द इंटरनल कॉलोनी’ में बिहार की पिछड़ी अर्थव्यवस्था के कारणों को रेखांकित किया गया है.

Qवैश्वीकरण के दौर में क्षेत्रीय भाषाओं, जैसे मगही, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका या आदिवासी भाषाओं का भविष्य क्या है? क्या भारत का भविष्य अंग्रेजी या विदेशी भाषाएं ही तय करेंगी?

अंग्रेजी और विदेशी भाषाओं का भविष्य फिलहाल भारत में नहीं है. देशी भाषाओं के आधार पर ही देश का विकास होगा. बिहार के अंदर भोजपुरी, मैथिली और मगही का अपना इतिहास रहा है. इनको इग्नोर करके हम विकास नहीं कर सकते हैं. इनकी समृद्ध परंपरा को हमें अपने भाषाई विकास के साथ जोड़ना होगा.

Qआपकी एक चर्चित पुस्तक है ‘कास्ट  सिस्टम : मिथ, रियलिटी, चैलेंज’, जो भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के सवाल पर रोशनी डालती है. भारतीय जाति व्यवस्था पर आपका गहन अध्ययन है. आजकल जातीय जनगणना की मांग उठ रही है. क्या जातीय जनगणना भारतीय समाज की जरूरत है? एक समाजशास्त्री के रूप में आपकी क्या राय है?

मैं समझता हूं कि सत्य कभी-कभी खतरनाक मालूम हो सकता है, पर सत्य का उद्घाटन तो होना ही चाहिए. मैं नहीं समझता हूं कि जातियों के अतीत को जानने से कोई दुष्प्रभाव भारतीय समाज के ऊपर होगा. जातीय जनगणना से जातियों के प्रभाव के बारे में पता लगाया जा सकता है, पर अब यह इस बात पर निर्भर करेगा कि जातीय जनगणना में किन तथ्यों पर जोर दिया जाता है? इसका इस्तेमाल विषमताओं को पाटने के लिए होना चाहिए. मेरी पुस्तक ‘कास्ट सिस्टम : मिथक, रियलिटी, चैलेंज’ में यह बताने की कोशिश है कि सभी जातियों का उद्गम एक रहा है.

Qआपकी समाजवादी पृष्ठभूमि रही है. जेपी-लोहिया के साथ भी आपने काम किया है, जिन्होंने जातिवाद पर भी प्रहार किया. क्या आपको लगता है कि जातिवाद की जड़ें कमजोर हो रही हैं?

बेशक. मैं समझता हूं कि जातिवाद की जड़ें कमजोर हो रही हैं और कमजोर होंगी. खासतौर से जो आधुनिक विकास हो रहा है और जीवन की जो जरूरतें हैं, वे इंगित करती हैं कि अलग-अलग बंट कर विकास की बात बेमानी होगी. जो पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था है, वह जातियों की भिन्नता के बजाय उन्हें समायोजित करने का काम करती है.

Q. भारतीय राजनीति में बढ़ते जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को आप कैसे देखते हैं?

आज जो जातियों की बात हो रही है, उसके पीछे परंपराएं रही हैं, लेकिन इस तथ्य को समझते हुए हमें इस बात पर जोर देना चाहिए कि सभी विभिन्नताओं के बावजूद अंतत: सभी जातियां एक रही हैं और इनका उद्गम एक रहा है. इनका भविष्य इसी पर निर्भर करेगा कि कैसे एक-दूसरे से मिल कर ये अपना विकास करते हैं.

Q. वैश्विक स्तर पर और भारतीय संदर्भ में पूंजीवाद व उदारीकरण का लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक संस्कारों और जनसंचार के माध्यमों पर कितना और कैसा असर पड़ा है? उदारीकरण यानी 1991 के बाद भारतीय समाज में क्या मूलभूत बदलाव आये हैं?

उदारीकरण बड़ा ही हास्यास्पद शब्द है. वास्तव में उदारीकरण समाज को उदार बनाने की व्यवस्था नहीं है, बल्कि विषमता पैदा करके कटुता पैदा करने की पूरी प्रक्रिया है. इसलिए उदारीकरण तो वास्तव में लोगों को तोड़नेवाली व्यवस्था है. वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था में खुली लूट को छूट देने का नाम ही उदारीकरण है.

Q. क्या वैश्विक राजनीति में भारत अपना प्रभाव बना पा रहा है ?

विश्वभर के लोगों को यह मानना होगा कि सभी का उद्देश्य एक है और विभिन्नताओं को मिटा कर ही विकास और प्रगति करना संभव है. कोई देश अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित नहीं करके सभी वैश्विक समरसता पर ज्यादा जोर दें, तभी सार्थकता सिद्ध हो सकती है.

Q. सरकार देश में विदेशी निवेश और बड़ी पूंजी को बढ़ावा दे रही है. इससे स्थानीय किसानों-आदिवासियों के साथ टकराव बढ़ता जा रहा है. क्या यह आर्थिक नीति देश के लिए उपयोगी है?

समाजवादी होने के नाते मैं यह मानता हूं कि पूंजीवादी व्यवस्था समाज के लिए उपयोगी नहीं हो सकती है. चूंकि इसके मूल में ही बहुसंख्य लोगों का शोषण करके कुछ लोगों को लाभ पहुंचाना और सत्ता पर काबिज करना है. इस व्यवस्था से कभी समाज का कल्याण नहीं हो सकता है. समतावादी विचारों से ही समाज में समरसता आ सकती और लोगों के बीच गहरी खाई को पाटा जा सकता है.

Q. एक दौर था जब सरकार सार्वजनिक उपक्रमों को बढ़ावा देती थी, राष्ट्रीयकरण पर जोर देती थी, लेकिन अब इसके ठीक विपरीत सार्वजनिक उपक्रमों को बेच कर विनिवेश की नीति अपनायी जा रही है. क्या अब निजीकरण या पूंजीवाद ही आर्थिक विकास का अंतिम विकल्प है?

शुरू में राष्ट्रीय आंदोलन में नीचे के तबकों का प्रभाव था. उस समय समतावादी नीतियों पर ज्यादा जोर दिया जाता था, लेकिन आज की दृष्टि लोगों को विषमता की ओर ले जा रही है. इससे लोगों का कल्याण नहीं होनेवाला है. आज तरह-तरह के मतभेदों की जड़ में भी आर्थिक विषमताएं ही हैं.

Qआपने गांधी जी और जयप्रकाश जी के स्वराज को देखा हैं. क्या भारत की राजनीति में स्वराज की मूल भावना बची हुई है? देश को सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर कैसे बनाया जा सकता है?

हमारे देश में महात्मा गांधी जैसे लोगों का जन्म हुआ, यह सौभाग्य है. संसार के लोगों के लिए भी. गांधी जी ने जो मूल्य स्थापित किये हैं, उन्हें लेकर अगर हम चलें, तो भारत के साथ-साथ दुनिया का भी भला होगा. आइंस्टाइन ने कहा था कि आगे आनेवाली पीढ़ियां इस पर विश्वास नहीं करेंगी कि सचमुच में ऐसा आदमी धरती पर रहा होगा.

Qजब सोवियत संघ का विघटन हुआ था, तब कहा जाता था कि मार्क्सवाद का अंत हो गया है. अब दुनिया ने अमेरिकी प्रभुत्व वाले वैश्वीकरण का दौर भी देख लिया है. इस दौर में जहां गैरबराबरी बढ़ी है, वहीं इराक, अफगानिस्तान व सीरिया में युद्ध भी हुए. तो क्या पूंजीवाद भी असफल हो चुका है?

पूंजीवाद तो शुरू से ही विषमता पैदा करनेवाली व्यवस्था थी. कोई भी व्यवस्था लोगों के बीच में खाई पैदा करे, वह आदर्श नहीं हो सकती है. उसको आज नहीं तो कल ध्वस्त होना ही है. उसका स्थान कौन-सी व्यवस्था लेगी, यह कहना मुश्किल है. बुनियादी तौर से आदमी बराबर है और इस बराबरी को तोड़नेवाली कोई भी व्यवस्था लोगों को संतोषप्रद जीवन नहीं दे सकती है.

Q. वर्तमान रूस-यूक्रेन युद्ध को आप कैसे देखते हैं? क्या नाटो देश अपना वर्चस्व बढ़ाना चाहते हैं, जिसके विरोध में रूस अपना पक्ष रख रहा है. क्या वैश्विक राजनीति का ध्रुव आने वाले समय में बदलने वाला है?

रूस की क्रांति के बाद एक बहुत बड़ी व क्रांतिकारी घटना हुई थी, वह थी लेनिन के द्वारा प्रॉब्लम्स ऑफ नेशनलिटिज्म. अलग-अलग समूहों की स्वायत्तता का नारा लेनिन ने दिया था. अभी जो रूस में घटना हुई, उसमें लेनिन ने जो नेशनलिटी का सिद्धांत दिया था, उसको उलटने की प्रक्रिया है.

Qयुवा देश को बदल सकते हैं, देश में क्रांति ला सकते हैं व सामाजिक समरसता पैदा कर सकते हैं. आपका कोई संदेश?

युवाओं को अपनी शक्ति को पहचानना होगा, तभी वे देश में प्रगति व विकास की राह आसान कर सकते हैं. युवाओं को अपने आदर्श को पहचानना होगा. तभी बेहतर राष्ट्र की परिकल्पना की जा सकती है. बनी-बनायी व्यवस्था और निजी स्वार्थ से युवाओं के ऊपर उठने पर ही देश का भविष्य टिका है. युवाओं को नैतिक जवाबदेही को भी समझना होगा और उसका बोझ उठाने के लिए तैयार रहना होगा, तभी समरस समाज बनेगा.

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