छोटे आकार वाली खूबसूरत गौरैया पक्षी का जिक्र आते ही बचपन की याद आ जाती है. कभी इसका बसेरा इंसानों के घर-आंगन में हुआ करता था, लेकिन पर्यावरण को नुकसान पहुंचा कंक्रीट के जंगल में तब्दील होते शहर और फिर गांव ने इन्हें हमसे दूर कर दिया है. एक वक्त हुआ करता था जब हर घर-आंगन में सूप से अनाज फटका जाता था तो फटकने के बाद गिरे अनाज को खाने गौरैया फुर्र से आती थी और दाना खा कर फुर्र से उड़ जाती थी. गौरैया को वापस बुलाने के लिए लोगों को जागरूक होना आवश्यक है. इसके लिए बस थोड़ा प्यार और उनके लिए दाना-पानी की व्यवस्था, घोंसला और पेड़ लगाने की जरूरत है, तभी गौरैया की होगी घर वापसी.
अमूमन गौरैया हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो से जानी-पहचानी जाती है, लेकिन इनमें हाउस स्पैरो को घरेलू गौरैया कहा जाता है. इंसान ने जहां भी घर बनाया देर सवेर गौरैया जोड़ा वहां रहने पहुंच ही जाती हैं. गौरैया पैसर परिवार की पक्षी है. आंकड़े बताते हैं कि विश्व भर में घर-आंगन में चहकने – फूदकने वाली छोटी सी प्यारी चिड़िया गौरैया की आबादी में कमी आयी है, जो कि पर्यावरण के लिए भारी चिंता का कारण है. गौरैया का कम होना हमारे इको सिस्टम को नुकसान पहुंचा सकता है. इसके महत्व को इस बात से समझा जा सकता है गौरैया फल-फूल–सब्जी में लगने वाले कीड़े–मकोड़ों से फसलों की रक्षा करती है. अगर इसकी संख्या बहुत कम हो जाये या यह विलुप्त हो जाये तो फसलों को भारी नुकसान हो सकता है.
घरों में रहने वाली गौरैया सभी जगहों पर इंसान का अनुसरण करती हैं और जहां पर इंसान नहीं रहते हैं, वे वहां पर नहीं रह सकती हैं. रॉयल सोसायटी ऑफ लंदन की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, इंसानों और गौरैयों के बीच का बंधन 11,000 साल पुराना है और घरेलू गौरैया का स्टार्च-फ्रेंडली होना हमें अपने विकास से जुड़ी कहानी को बताता है.
-
गौरैया की संख्या में कमी के पीछे के कारणों में बढ़ता आवासीय संकट, आहार की कमी, खेतों में कीटनाशक का व्यापक प्रयोग, शहरीकरण और जीवनशैली में बदलाव, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, शिकार, गौरैया को बीमारी और मोबाइल फोन टावर से निकलने वाले रेडिएशन को दोषी बताया जाता रहा है.
-
गौरैया को घोंसला बनाने, खिलाने और बसेरा करने के लिए विशिष्ट प्रकार के आवासों की आवश्यकता होती है और इन आवासों को नष्ट किया जा रहा है. गौरैया के प्रजनन के लिए अनुकूल आवास में कमी भी इसकी संख्या में कमी का एक बड़ा कारण माना जा रहा है. खपरैल/फूस के आवासों का तेजी से कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होने से तस्वीर बदल गयी है. शहरों में इनके प्रजनन के लिए अनुकूल आवास नहीं के बराबर है. यही वजह है कि एक ही शहर के कुछ इलाकों में ये दिखती है तो कुछ में नहीं.
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर ने 2002 में इसे लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल कर दिया था. गौरैया, गिद्ध के बाद सबसे संकट ग्रस्त पक्षी में से है. बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े प्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई दिलावर ने 2008 से गौरैया संरक्षण शुरू किया था. आज दुनिया के कई देशों में इसके संरक्षण के लिए काम हो रहा है.
इसके संरक्षण के प्रति जागरूकता को लेकर दिल्ली सरकार ने 2012 और बिहार सरकार ने 2013 में गौरैया को राजकीय पक्षी घोषित कर रखा है. हर वर्ष 20 मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाया जाता है. गौरैया संरक्षण में जुड़े लोग कृत्रिम घर बना कर गौरैया को प्रजनन के लिए आवास देने की पहल चला रहे हैं. इसमें गौरैया अंडे देने के लिए आ भी रही है.
पिछले कई सालों से गौरैया संरक्षण में लगे लोग, सरकारी-गैर सरकारी संस्थान, एनजीओ सहित हर आम और खास लोगों के प्रयासों से गौरैया की घर वापसी होती दिख रही है. लोगों ने यह पहल दाना-पानी रखने, घोंसला (बॉक्स) लगाने और नन्ही सी जान गौरैया को थोड़ा सा प्यार देकर पूरा किया है. गौरैया ने भी वायदा निभाया है और लोगों के घर-आंगन, बालकनी, छत पर आकर अपनी चहचाहट से अपनी वापसी का अहसास करा दिया है. गौरैया को बचाने के लिए उसके लिए दाना-पानी रखें, घोंसला और पेड़ लगाये. ऐसा होने के बाद ही गौरैया की घर वापसी होगी.
लेखक- संजय कुमार, उपनिदेशक, पीआइबी, पटना एवं गौरैया संरक्षण में सक्रिय हैं