Jamshedpur news : दसांई नृत्य, आदिवासी संताल समाज की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न अंग रहा है, जो आज लुप्त होने के कगार पर है. इस नृत्य का पुनर्जीवन न केवल सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज के सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को भी पुनर्स्थापित करने का प्रयास है. पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव और आधुनिकता की ओर बढ़ते झुकाव के कारण इस परंपरा को बचाना चुनौतीपूर्ण हो गया है, लेकिन समाज के कुछ समर्पित व्यक्तित्व इसके पुनरुद्धार के लिए अग्रसर हैं. इस प्रसंग में, यह नृत्य समाज की सांस्कृतिक जड़ों और प्राचीन मान्यताओं से कितनी गहराई से जुड़ा हुआ है, इसे समझना आवश्यक है. दसांई नृत्य की पुनर्स्थापना के ये प्रयास हमें याद दिलाते हैं कि सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा और उसका संवर्धन केवल एक समाज का कर्तव्य ही नहीं, बल्कि उसकी आत्मा और अस्तित्व का आधार भी है.
दसांई नृत्य की पौराणिक पृष्ठभूमि
दसांई नृत्य की जड़ें प्राचीन पौराणिक कथाओं में हैं, जो आदिवासी समाज की गाथाओं और संघर्षों को अभिव्यक्त करती हैं. यह नृत्य उन कथाओं पर आधारित है जिसमें नृत्य-कलाकार छंद रूप धारण कर अपने सेना नायक की तलाश करते हैं. यह गाथा एक संघर्ष और विजय की दास्तान है, जहां गांव-गांव में नाचते-गाते कलाकार अपने नायक को खोजते हुए आगे बढ़ते हैं. उनके गीत और नृत्य में आदिवासी समाज के वीरता, संकल्प, और साहस की झलक मिलती है. इस नृत्य में प्रयुक्त वाद्ययंत्र जैसे भुआंग और कासे की घंटी, इस नृत्य की जीवंतता को और भी प्रखर बनाते हैं.
सांस्कृतिक धरोहर का संकट
दसांई नृत्य का आज जिस संकट का सामना करना पड़ रहा है, वह सांस्कृतिक विरासत को भूलने और पाश्चात्य संस्कृति की ओर आकर्षण के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुआ है. नयी पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक धरोहर से विमुख होती जा रही है. इस प्रवृत्ति ने संताल समाज को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि कहीं उनकी यह अनमोल धरोहर पूरी तरह से लुप्त न हो जाए.दसांई नृत्य के जानकारों और कलाकारों की संख्या में लगातार गिरावट इस बात का संकेत है कि अगर इस नृत्य को पुनर्जीवित करने के ठोस प्रयास नहीं किए गए, तो यह आने वाली पीढ़ियों के लिए केवल एक इतिहास बनकर रह जाएगा.
नयी पीढ़ी और सांस्कृतिक विरासत
आधुनिकता की दौड़ में नयी पीढ़ी अपने पारंपरिक नृत्य और गीतों को नजरअंदाज कर रही है. जहां पहले गांवों में यह नृत्य बड़े उत्साह से किया जाता था, वहीं अब इसे सीखने और समझने वाले बहुत कम हैं. पाश्चात्य संगीत और नृत्य की चकाचौंध ने आदिवासी युवाओं को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से दूर कर दिया है. सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अब वे परंपरागत नृत्य को प्राथमिकता नहीं देते.दसांई नृत्य का पुनर्जीवन नयी पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने और उनकी सांस्कृतिक पहचान को सुदृढ़ करने का एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है.
पुनर्जीवन के प्रयास
हाल ही में आसेका झारखंड और खेरवाड़विद्यागढ़ के निदेशक डोमन मांडी और अन्य सामाजिक संगठनों द्वारा इस नृत्य को पुनर्जीवित करने के प्रयास सराहनीय हैं. इनके द्वारा बनाई गई नृत्य मंडलियां गांव-गांव जाकर इस नृत्य की कला और संस्कृति को पुनर्जीवित कर रही हैं. नृत्य मंडली के जाने से पहले दसांईगुरू मंगल टुडू द्वारा की गई पूजा-अर्चना इस नृत्य की धार्मिक और आध्यात्मिक महत्ता को दर्शाती है. इन प्रयासों से यह उम्मीद जगी है कि दसांई नृत्य को पुनर्जीवित किया जा सकेगा और इसे आदिवासी समाज की आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाया जा सकेगा.
सांस्कृतिक जागरूकता और भविष्य
दसांई नृत्य का पुनर्जीवन केवल एक सांस्कृतिक क्रिया नहीं, बल्कि समाज की सांस्कृतिक पहचान और स्वाभिमान की पुनः स्थापना का प्रतीक है. इसके संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए सांस्कृतिक जागरूकता का प्रसार करना आवश्यक है. समाज के हर वर्ग को इस नृत्य के महत्व को समझने और उसे जीवित रखने के प्रयासों में योगदान देना चाहिए. इसके माध्यम से समाज अपनी सांस्कृतिक पहचान को मजबूत कर सकेगा और पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से अपनी धरोहर को सुरक्षित रख सकेगा.