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पूर्व मुख्य सचिव एके सिंह सुप्रीम कोर्ट से बरी

रांची: सुप्रीम कोर्ट से पूर्व मुख्य सचिव एके सिंह बरी हो गये हैं. सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाइकोर्ट के आदेश को सही ठहराते हुए डॉ सिंह के पक्ष में फैसला दिया है. साथ ही बिहार सरकार की ओर से दायर अपील याचिका को खारिज कर दिया है. बिहार सरकार ने पटना हाइकोर्ट के आदेश को […]

रांची: सुप्रीम कोर्ट से पूर्व मुख्य सचिव एके सिंह बरी हो गये हैं. सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाइकोर्ट के आदेश को सही ठहराते हुए डॉ सिंह के पक्ष में फैसला दिया है. साथ ही बिहार सरकार की ओर से दायर अपील याचिका को खारिज कर दिया है. बिहार सरकार ने पटना हाइकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.

डॉ सिंह के विरुद्ध करीब 18 वर्षो तक केस चला. इन पर दबाव डाल कर चहेते एनजीओ को 52500 रुपये दिलाने, पद का दुरुपयोग करने व पैसे का निजी उपभोग करने का आरोप था. इसे लेकर बिहार निगरानी में उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी गयी थी. इस मामले में उन्हें जेल भी जाना पड़ा था. वहीं झारखंड के मुख्य सचिव पद से उन्हें इसी केस की वजह से हटाया गया था. जस्टिस एसजे मुखोपाध्याय और जस्टिस वी गोपाल गौड़ा की खंडपीठ ने यह आदेश पारित किया है.

कैसे मामले में फंसे थे: डॉ सिंह के मुताबिक उन्हें तब भभुआ के विधायक रामलाल सिंह ने सुधांजलि होटल के कर्ज करीब 45 लाख रुपये के भुगतान के बाबत पैरवी की थी. यह कहा था कि मासिक 20 हजार का किस्त बांध दें. पर उन्होंने इनकार कर दिया था. इस राशि के भुगतान से सूद का भी भुगतान नहीं होता. अंतत विधायक ने उनके खिलाफ निगरानी डीजी को लिख दिया. इस बीच राष्ट्रपति शासन के दौरान झारखंड सरकार ने डॉ सिंह के खिलाफ अभियोजन की स्वीकृति दी थी. इसे उन्होंने झारखंड हाइकोर्ट में चुनौती दी है.

क्या है मामला
एके सिंह 1994 में बिहार राज्य वित निगम के प्रबंध निदेशक थे. तब भभुआ के विधायक राम लाल सिंह ने उनके खिलाफ निगरानी को पत्र लिख कर यह शिकायत की थी कि उन्होंने तीन एनजीओ ग्रीन अर्थ इंडिया, वृंदावन व संवेदना बनाया है. उद्यमी कर्ज लेने आते हैं, तो वह उन्हें दबाव देकर इन संस्थाओं को पैसा दिलाते हैं. बाद में अध्यक्ष की हैसियत से इसे निकाल कर व्यक्तिगत इस्तेमाल करते हैं.

इसमें उन्होंने स्पष्टीकरण दिया था कि इन संस्थाओं से उनका कोई सरोकार नहीं है. न ही अध्यक्ष में उनका नाम है. बाद में विधायक ने उन पर फिर आरोप लगाया कि इनमें से दो संस्थाओं ग्रीन अर्थ इंडिया व संवेदना के नाम उन्होंने 52500 रुपये उद्यमियों पर दबाव डाल कर दिलवाया. इन संस्थाओं के नाम आठ अकाउंट पेयी चेक दिलाये गये थे. इस पर बिहार सरकार ने निगरानी जांच का आदेश दिया, तब यह भी आरोप लगा कि उनके पास आय से अधिक संपत्ति है. इस मामले की जांच हुई. जांच में आरोप प्रमाणित नहीं हुआ. रिपोर्ट सरकार को दी गयी. इस रिपोर्ट को सरकार ने नहीं माना और फिर से जांच का आदेश दिया. 1996 में शुरू हुई जांच की रिपोर्ट 1997 में दी गयी, लेकिन दोबारा 1997 में जांच शुरू की गयी, तब डॉ सिंह ने हाइकोर्ट में रिट याचिका दाखिल की कि दोबारा जांच हो रही है.

तब कोर्ट से सरकार ने जांच के लिए समय मांगा और एक साल में 1998 को रिपोर्ट सौंपी. इन रिपोर्ट के बाद भी सरकार फिर 1998 में फिर फ्रेश इनक्वायरी का आदेश दिया गया. तब डॉ सिंह अवमानना मामले में हाइकोर्ट गये, तो न्यायालय ने 29 नवंबर 1999 को संबंधित अफसरों को बुला कर पूछा कि अब सरकार कितने दिन में जांच करायेगी. न्यायालय ने यह भी पाया कि दोनों बार निगरानी की रिपोर्ट डॉ सिंह के पक्ष में है. इस समय भी सरकार ने जांच व निर्णय के लिए आठ माह का समय मांगा. आठ माह का समय 29 जुलाई 2000 को बीत गया. इस बीच राज्य विभाजन हो गया और एके सिंह का कैडर झारखंड हो गया. तब यह मामला उठा कि अब ऐसे मामलों की सुनवाई कहां होगी. झारखंड ने बिहार से पेंडिंग मामलों की संचिका मांगी. मामला क्लीयर करने के लिए तब भारत सरकार ने यह आदेश दिया कि कैडर विभाजन के बाद अफसर को जो कैडर आवंटित है, उसी कैडर स्टेट में उनके मामलों की सुनवाई होगी, लेकिन बिहार से संचिका झारखंड नहीं आयी. इसके बाद 20 अगस्त 2002 को एके सिंह के खिलाफ निगरानी में 52500 रुपये दबाव डाल कर चहेते संस्था को दिलाने व राशि का उपभोग करने की प्राथमिकी दर्ज करायी गयी. इस पर वह जेल भी गये. फिर उन्होंने प्राथमिकी की वैद्यता को चुनौती देने के लिए पटना हाइकोर्ट मे रिट याचिका दाखिल की. यह कहा गया कि प्राथमिकी का अधिकार बिहार को नहीं है. इस पर सात मई 2007 को पटना हाइकोर्ट ने इस केस को निरस्त कर दिया. फिर बिहार सरकार हाइकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गयी, जहां सुप्रीम कोट ने नौ जुलाई 2014 को हाइकोर्ट के आदेश को सही ठहराया.

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