चुनौती भी,अवसर भी !

-हरिवंश- कहावत है, हर संकट में एक अवसर छुपा होता है. झारखंड में जो राजनीतिक हालात बने हैं या जिसे यूपीए घटक दलों के विधायक राजनीतिक संकट कह रहे हैं, इसमें एक बड़ा अवसर भी छिपा है. पर, उस अवसर पर चर्चा बाद में. पहले झारखंड का राजनीतिक संकट समझ लें. यहां सरकार बनाने की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 18, 2015 4:45 PM
-हरिवंश-
कहावत है, हर संकट में एक अवसर छुपा होता है. झारखंड में जो राजनीतिक हालात बने हैं या जिसे यूपीए घटक दलों के विधायक राजनीतिक संकट कह रहे हैं, इसमें एक बड़ा अवसर भी छिपा है. पर, उस अवसर पर चर्चा बाद में. पहले झारखंड का राजनीतिक संकट समझ लें. यहां सरकार बनाने की स्थिति में कोई नहीं रह गया है. न एनडीए और न यूपीए. यह झारखंड की राजनीतिक व्यवस्था के ठप हो जाने या फेल हो जाने का दृश्य है. स्टीफन मरांडी जैसे नेता जो कल तक चुनाव में चलने के लिए हुंकार लगा रहे थे, अब उनके स्वर बदलते नजर आ रहे हैं.
यही नहीं, यूपीए के जो-जो विधायक या घटक दल चुनाव में चलने का आह्वान कर रहे थे (राष्ट्रपति शासन लगने के पहले तक), अब राष्ट्रपति शासन में वे बेचैन (डिसपरेट) दिखायी दे रहे हैं. ऐसी स्थिति है कि कोई सरकार बनाने की पहल करे, तो ये डिसपरेट विधायक बैंड-बाजा लेकर कूद पड़ेंगे. पानी से बाहर मछली की हालत में ये तड़प रहे हैं, सिर्फ एक दिन में. अगर ये सचमुच जनप्रतिनिधि हैं, तो सारे दलों को मिल कर कहना चाहिए, चलिए चुनाव में. डॉ लोहिया कहा करते थे, लोकतंत्र की रोटी को बार-बार पलटिए, नहीं तो वह जल जायेगी.
अगर राजनीतिक प्रणाली ठीक-ठाक काम नहीं कर पा रही, उसके गर्भ से सरकार नहीं जनम रही, तो बार-बार चुनाव कराने में आपत्ति क्यों? क्यों चुनाव से भाग रहे हैं? क्या चुनाव होने तक बिना मंत्री पद या विधायकी के नहीं रह सकते? यह लोभ, लालच और बेचैनी क्यों? एक और रास्ता है, जिससे साल भर विधायकी भी बच सकती है, सरकार भी चल सकती है और झारखंड भी बन सकता है. इसकी बुनियादी शर्त है कि स्व को नीचे रखना, झारखंड के हित को ऊपर रखना. यह बार-बार कहना-बताना जरूरी है कि राजनीति ही नया चेहरा बना सकती है, नया माहौल पैदा कर सकती है.
पर, इस स्थिति के लिए बोल्ड राजनीतिक कदम उठाने पड़ेंगे. ऐसी स्थिति में एक नयी पहल संभव है. सारे राजनीतिक दल मिलें और वे शेष एक साल के लिए (जिसके बाद झारखंड विधानसभा चुनाव होंगे) झारखंड के पुनर्निर्माण का एक एजेंडा बनायें. यह एजेंडा सिर्फ और सिर्फ झारखंड के विकास की बात करे. यह पॉलिटिकल एजेंडा न हो. क्योंकि झारखंड है, तो झारखंड के राजनीतिक दल हैं.
झारखंड के राजनीतिक अस्तित्व पर सवाल उठने लगे हैं. यह स्वाभाविक भी है. लालूजी ने एक महत्वपूर्ण बात कही है, मैं तो झारखंड राज्य के पक्ष में ही नहीं था. अब ,जब बन गया है, तो कोई सरकार चलानेवाला नहीं है. लालूजी अकेले ऐसा नहीं सोचते. एक बड़ा तबका है, जो पिछले आठ वर्षों के झारखंडी अनुभव को राजनीतिक विफलता का नमूना मानता है.
वे पूछते हैं, झारखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल आज कहां हैं और झारखंड कहां खड़ा है? क्यों सरकार के जाते ही शासक दल के विधायकों के प्राण सूख रहे हैं? फरवरी में लोकसभा चुनावों की घोषणा होते ही आचार संहिता लग जायेगी. फिर सारे कामकाज ठप? सरकार ठप? अगर सरकार बन भी गयी होती, तो वह क्या कर लेती?
चुनावों के कारण वह निष्क्रिय बन जाती? पर माननीय विधायक बिना सरकार के इसलिए बेचैन हैं कि उनकी लालबत्ती गयी? रुतबा व हैसियत में अंतर आ गया, रातोंरात? विशिष्ट से सामान्य हो गये. पर संपत्ति के अर्थ में नहीं. उस अर्थ में तो आज भी माननीय, महाविशिष्ट श्रेणी में हैं. पर, झारखंड के इस राजनीतिक संकट का समाधान ऐसे ही लोगों को ढूंढ़ना पड़ेगा. क्योंकि यही विधायक हैं.
अगर ऐसे सवालों के उत्तर झारखंड की राजनीतिक पार्टियों या राजनीतिक प्रणाली ने लोकतांत्रिक ढंग से नहीं ढ़ूंढ़ा, तो झारखंड फेल्ड स्टेट होगा. सारे दल मिल कर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत शेष एक साल का एजेंडा बना सकते हैं. पहला, कृषि और गांव का विकास. दूसरा, सड़कों का निर्माण. तीसरा, बिजली की सही आपूर्ति. चौथा पर सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा, भ्रष्टाचार के खिलाफ संपूर्ण ताकत के साथ प्रहार और सुशासन स्थापित करना.
क्योंकि भ्रष्टाचार ने ही झारखंड को खोखला, निर्जीव और स्पंदनहीन बना दिया है. इस राजनीतिक भ्रष्टाचार ने उद्योग और मीडिया के साथ मिल कर एक नये उद्दंड, लालची और दलाल वर्ग को जन्म दिया है. इसके नाश में ही सबका कल्याण है. यह पता है कि झारखंड के राजनीतिक दल ऐसा प्रयास कतई नहीं कर सकते. इसे वे आदर्शवादी, अव्यावहारिक, फिजूल और किताब की बातें कहेंगे. उनकी इस आलोचना के बावजूद यह प्रस्ताव. क्योंकि ऐसे बोल्ड कदमों से ही झारखंड में पुन: विश्वास, नयी ऊर्जा और नयी उम्मीद पैदा हो सकते हैं.
यूपीए घटक दल के लोग, झामुमो से नाराज दिखते हैं. क्योंकि झामुमो सबसे अधिक विधायकों को रख कर अपना प्रत्याशी मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहता है. इसमें गलत क्या है? झामुमो ने हाल के दिनों में दो स्टैंड लिये. साफ ढंग से और उस पर टिका. पहला, शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनाते समय. दूसरा इस बार. झारखंड के राजनीतिक अतीत में ऐसे अवसर पहले इस्तेमाल हुए होते, तो शायद यह स्थिति नहीं होती. मुख्यमंत्री के रूप में बाबूलाल मरांडी को भी ऐसा मौका मिला था. उनके तीन मंत्रियों ने जब नाज-नखरे शुरू किये, तब वह सरकार छोड़ कर पार्टी को चुनाव में जाने के लिए बाध्य कर सकते थे.
पर, अंत-अंत तक वह सरकार बचाने में लगे रहे. उन्होंने तीन वैकल्पिक लोगों का इंतजाम भी किया था. उनके यहां से राजभवन फोन करके पूछा गया था कि तीन वैकल्पिक मंत्रियों को कितनी जल्द शपथ दिलायी जा सकती है? सरकार बचाने के प्रयास में जब वह विफल हुए, तब चुनाव की बात की. तब तक अर्जुन मुंडा की गाड़ी निकल पड़ी थी. अर्जुन मुंडा और भाजपा ने भी चुनाव में जाने के बदले सरकार चलाने का रास्ता चुना.
जब कोड़ा बिदके और नयी सरकार बनायी, उसके पहले से ही एनडीए में फिर खटराग शुरू हो गया था. तब भी एनडीए, भाजपा और अर्जुन मुंडा के पास मौका था, फिर चुनाव में चलने का. पर यहां तो स्पर्द्धा चली कि कैसे सरकारें बनें, बचें और लूट हो. कम से कम शिबू सोरेन ने अपनी टेक पर अड़ कर समझौता न करने का साफ संकेत दिया है. एक और उल्लेखनीय कार्य किया है, झामुमो ने. निर्दलीयों को उनकी हैसियत में पहुंचा देना. दरअसल पिछले आठ वर्षों से ऐसे फुटकर निर्दलीय ही झारखंड के दुर्भाग्य का अध्याय लिख रहे हैं. इस बार के राजनीतिक संकट में इन निर्दलीयों की बड़ी-बड़ी बातें या दावे कहां थे?
जो आसार या हालात बने हैं, उसमें एक बड़ा अवसर छिपा है. राष्ट्रपति शासन झारखंड के लिए वरदान हो सकता है. दो रास्ते हैं. एक रास्ता बिहार और मध्यप्रदेश में राज्यपाल रहे शफी कुरैशी साहब का. दूसरा, बूटा सिंह का. कुरैशी साहब भारत सरकार में मंत्री रहे.
चंद्रशेखरजी के कार्यकाल में राज्यपाल बने. मध्यप्रदेश में राज्यपाल के रूप में उन्होंने कुछ काम शुरू किये. राष्ट्रपति शासन के दौरान. उन्होंने 8-10 कदम उठाये. ग्रामीण विकास से लेकर शासन को चुस्त-दुरुस्त करने तक का. ये वही काम थे, जिन्हें मध्यप्रदेश के कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने बाद में आगे बढ़ाया और दो टर्म मुख्यमंत्री रहे. ये अत्यंत लोकप्रिय कार्यक्रम थे. झारखंड में सरकारों के रहते हए सरकारी शून्यता की स्थिति रही है.
सरकारों और प्रशासन का वजूद नहीं रहा. राष्ट्रपति शासन में झारखंड कुरैशी साहब के रास्ते चल कर अपना रूप निखार सकता है. देश में हो रही बदनामी के कलंक से कुछ हद तक मुक्त हो सकता है. दूसरा रास्ता है, बिहार में राज्यपाल रहे, बूटा सिंह का. यह असफल मॉडल रहा. इसलिए झारखंड इस रास्ते पर चलना अफोर्ड (बरदाश्त) नहीं कर सकता.
राष्ट्रपति शासन में ग्रामीण विकास, सड़क निर्माण और भ्रष्टाचार पर पाबंदी के कदम उठाये जायें. ब्यूरोक्रेसी में आमूल-चूल परिवर्तन हो. ईमानदार और इफिसिएंट लोगों को वनवास से वापस लाया जाये. भ्रष्टों पर कठोर और त्वरित कार्रवाई हो. सच तो यह है कि झारखंड की सफाई का रास्ता कई विभागों में हुए कामकाज की सीबीआइ जांच से ही निकलता है.
जनता भी सार्वजनिक सवालों पर ड्राइंग रूम पीड़ा या विधवा विलाप या अरण्यरोदन से बाहर निकले. नागरिक संगठन सभी चौबीस जिलों में सड़क पर उतरें. अपने-अपने शहर या गांव में हुए सरकारी कामकाजों में हेराफेरी, भ्रष्टाचार और लूट को डाक्यूमेंट करें.
एक-एक तथ्य इकट्ठा करें. आजादी की लड़ाई में वकीलों ने बड़ी रहनुमाई की थी. झारखंड को पुनर्जन्म देने में वकील फिर कारगर हो सकते हैं. भ्रष्टाचार से संबंधित तथ्य ऐसे समर्पित वकीलों के पास ले जायें, उनसे पीआइएल बनवायें और अदालतों में दायर करें. भ्रष्टाचार के खिलाफ लोक जंग से ही झारखंड का भविष्य निखरेगा. झारखंड में हो रही या हुई लूट ने आनेवाली पीढ़ियों का भविष्य भी बंधक बना लिया है. झारखंड मुक्ति के लिए लोकपहल जरूरी कदम है.
उन नागरिकों को और वकीलों को धन्यवाद दीजिए, जो विजिलेंस या हाइकोर्ट के माध्यम से झारखंड के लिए अपनी ऊर्जा और ताकत लगा रहे हैं. ऐसे और लोग व समूह आगे आयें, तभी झारखंड बनेगा, निखरेगा और बदलेगा.
नागरिकों से पूछिए, राष्ट्रपति शासन पर उनकी क्या प्रतिक्रिया है? लोक प्रतिक्रिया से पता चलता है, चोर और भ्रष्ट राजनेताओं से जनता कितनी नफरत करती है या त्रस्त है? शासन या सरकार अपना इकबाल देखें? क्या सरकार, पुलिस, प्रशासन का प्रताप रह गया है? यह सब सरकारों और राजनीतिज्ञों के कारण हुआ है. आज चतरा-पलामू, झारखंड से कट गये हैं.
नक्सली बंदी के कारण. असल भय और शासन तो नक्सली समूहों का है. एक दिन में ही राज्यपाल महोदय ने जरूरी कठोर कदम उठाने के संकेत दिये हैं. यह उत्साहपूर्वक पहल है. राष्ट्रपति शासन में यह पहल और ठोस रूप ले, तो झारखंड में शासन का इकबाल, संविधान का राज वापस होगा.
दिनांक : 21-01-09

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