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नक्सल चुनौती : सिर्फ लॉ एंड आर्डर समस्या नहीं है!

– हरिवंश – नक्सल चुनौती को जो लोग सिर्फ लॉ एंड आर्डर (कानून-व्यवस्था) की समस्या मानते रहे हैं, पिछले 40 वर्षों के भारतीय अनुभव ने उन्हें गलत साबित कर दिया है. अगर ऐसा ही रहता, तो जिन-जिन राज्यों में लॉ एंड आर्डर की स्थिति बहुत अच्छी रही या अच्छी है, वहां से इसे खत्म हो […]

– हरिवंश –

नक्सल चुनौती को जो लोग सिर्फ लॉ एंड आर्डर (कानून-व्यवस्था) की समस्या मानते रहे हैं, पिछले 40 वर्षों के भारतीय अनुभव ने उन्हें गलत साबित कर दिया है. अगर ऐसा ही रहता, तो जिन-जिन राज्यों में लॉ एंड आर्डर की स्थिति बहुत अच्छी रही या अच्छी है, वहां से इसे खत्म हो जाना चाहिए था. सत्तर के दशक में बंगाल के सिलीगुड़ी के एक गांव से नक्सल ज्वाला निकल कर देश के 180 जिलों में आज यह दावानल की स्थिति में न होता.
प्रधानमंत्री बार-बार यह नहीं दुहराते कि भारतीय संघ के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती नक्सल समस्या है. हां, अत्यंत चौकस, चुस्त-दुरुस्त लॉ एंड आर्डर नक्सली आंदोलनों के लिए एक गंभीर चुनौती बन जाता है, पर इसका तात्कालिक या दीर्घकालिक समाधान नहीं ढूंढ पाता.
नक्सलियों की ताकत छिपी है गांवों में, गरीबों में, वंचितों में, शोषितों में. व्यवस्थागत अन्याय और भ्रष्टाचार उन्हें ऊर्जा देते हैं. उनके रहनुमा अपने कामकाज, दृष्टि और विचारधारा में स्पष्ट हैं. वे जानते हैं कि उनकी ताकत का स्रोत है- गहराती, फैलती सामाजिक-आर्थिक विषमता. निरपेक्ष दृष्टि से भी इस समस्या की जड़ में मौजूद सामाजिक-आर्थिक विषमता ही है. निजी तौर पर भी इस दृष्टि, व्याख्या और मान्यता से खुद को सहमत पाता हूं. पर नक्सली सबसे बड़ी भूल कर रहे हैं कि वे हिंसा से बदलाव चाहते हैं.
अब तक दुनिया के इतिहास में ऐसा कहीं नहीं हुआ है. उनकी इस सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का उत्तर, प्रखर अहिंसक राजनीति, विचारपरक राजनीति, नैतिक राजनीति, ईमानदार व पारदर्शी प्रशासन, गरीबों-वंचितों के प्रति संवेदनशील दृष्टि ही दे सकती है. इस तरह की राजनीति का झारखंड में क्या स्कोप (जगह) है?
कहीं भी इस तरह की भिन्न राजनीति के तीन स्रोत हो सकते हैं-(1) राजनीतिक दल (2) सरकार, मंत्री, विधायक, नौकरशाही यानी रूलिंग इलीट (पूरी व्यवस्था) और (3) विधायिका. झारखंड में इन तीनों से आप कोई उम्मीद कर सकते हैं? राजनीतिक दल, आधुनिक भाषा में ‘माल’ (अमेरिकी तर्ज पर भारतीय बाजारों में बड़े-बड़े माल बन रहे हैं, जहां तरह-तरह की दुकानें हैं) बन गये हैं. हर दल के राजनीतिक माल में हजारों दुकानें हैं. यानी एक दल में ही हजार खंड, हर व्यक्ति की अकेली दुकान. व्यक्तिवाद, अहं दलों में प्रमुख हो गये हैं.
विचारधारा की कोई जगह नहीं रही. इन दलों को राजनीतिक दुश्मनों से कोई खतरा नहीं है. दल के अंदर ही महाभारत मचा हुआ है. कांग्रेस सांसदों और कांग्रेस अध्यक्ष के बीच चलती प्रतियोगिता. भाजपा के दिग्गज ही एक-दूसरे की जड़ उखाड़ने में अपनी पूरी ऊर्जा झोंक रहे हैं. राजद, हर विधायक एक-दूसरे के खिलाफ डटा है. जदयू की पूरी ऊर्जा आपस में ही एक-दूसरे को पछाड़ने में लगी हुई है. झामुमो की स्थिति भी ऐसी ही है.
जब संस्थागत दलों की यह स्थिति है, तो निर्दलीयों का कमाल दुनिया देख रही है. न किसी दल में कोई विचारधारा है, न चरित्र. झारखंड की राजनीति समय से 100 वर्ष पहले की पटरी पर दौड़ रही है, जिसका संबंध अपने समय की चुनौतियों, सवालों और घटनाओं से नहीं है. यह राजनीति, नक्सली चुनौतियों को कैसे ‘फेस’ (सामना) कर सकती है? झारखंड के राजनेताओं की राजनीति, तीन-तिकड़म और आत्मकेंद्रित व्यवहार, आम जनता को राजनीति के प्रति निरपेक्ष और उदासीन बना रहा है.
सरकार, मंत्रियों और विधायकों की स्थिति? हाल में एक बेहतर काम करनेवाले एनजीओ के एक प्रतिनिधि, झारखंड सरकार के एक मंत्री के यहां पहुंचे. उद्देश्य था, मंत्रीजी को किसी कार्यक्रम में निमंत्रित करना. मंत्रीजी ने तुरंत सहमति दे दी. कार्यक्रम से दो दिनों पहले अचानक मंत्रीजी के यहां से उक्त एनजीओ में फोन गया. आमंत्रित करनेवाले को बुलाया गया.
मंत्रीजी बात करना चाहते थे. वह प्रतिनिधि आये. मंत्रीजी के पीए ने कहा, मंत्रीजी की पत्नी कुछ खरीदारी करना चाहती हैं. बाजार ले जाइए. एनजीओ के प्रतिनिधि हतप्रभ. उन्होंने बहाना बनाने की कोशिश की. कहा गया, पास में पैसे नहीं हैं, तो कोई बात नहीं. मंत्रीजी की साख है. दुकानदार क्रेडिट पर दे देंगे. एक सभ्य इंसान की तरह एनजीओ के वह प्रतिनिधि मंत्रीजी की पत्नी को लेकर बाजार पहुंचे. गाड़ी एक मशहूर ब्रांड के सोने की दुकान के सामने रुकी. मंत्रीजी की पत्नी उक्त प्रतिनिधि को लेकर दुकान में गयीं. एक हार खरीद डाला.
अब उक्त एनजीओ के लोग यह समझ नहीं पा रहे कि यह खर्च कैसे दिखाया जाये? यह आचरण है मंत्रियों का मंत्रियों-विधायकों का! यह आचरण आज जनता को नक्सली लोगों के समर्थन में धकेल रहा है. पढ़े-लिखे, समझदार लोग यह सब देख कर झारखंड में नक्सली लोगों के प्रति झुक रहे हैं.
एक अन्य मंत्री 50 कमांडो लेकर घूमते हैं, जनता में अपना शौर्य दिखाते हुए. एक मंत्री अपने ही विभाग में अपनी बीवी को बड़ा कांट्रैक्टर बना देते हैं. कराड़ों-करोड़ों के बहुमूल्य भूखंड खरीद रहे हैं. आलीशान भवन बनवा रहे हैं. एक दूसरे मंत्री सड़कों को उदरस्थ करने में लगे हैं. ट्रांसफर-पोस्टिंग, ठेके, दलाली में करोड़ों-करोड़ों उगाह रहे लोगों ने झारखंड में नक्सलवाद को न्योतने, फलने-फूलने और समृद्ध होने का मौका दिया है.
नक्सली समूहों में तेज-तर्रार अपने वसूलों के प्रति समर्पित लोग हैं, जो ऐसे सवालों को लेकर जनता के बीच जाते हैं. परचे लिखते हैं, पोस्टर लगाते हैं, लेखों में दमदार तर्क देते हैं. वे बताते हैं कि यह सब जनता से वसूले गये कर से हो रहा है. कैसे गरीब आदमी भी हर चीज पर अप्रत्यक्ष कर देता है, जिससे राजकोष समृद्ध होता है. उस राजकोष का यह दुरुपयोग? ये तर्क लोगों को प्रभावित करते हैं.
यह सही है कि आज की व्यवस्था में भ्रष्टाचार अब मुद्दा नहीं रहा, नैतिक सवाल नहीं रहा. पर दुनिया के विशेषज्ञ एक स्वर में कह रहे हैं कि विकास के रास्ते में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है. झारखंड में भ्रष्टाचार की स्थिति स्तब्धकारी है. नक्सली इस नाजुक मुद्दे को उठाते हैं. वे तर्क देते हैं कि हम लेवी वसूलते हैं, तो बदलाव के संघर्ष की फंडिंग करते हैं.
प्रत्येक कार्यकर्ता को हर माह पैसा देते हैं. पर नेता या अफसर पैसा कमा कर परिवार भरते हैं. नक्सलियों के ये तर्क लोगों के दिलो दिमाग में जगह बनाते हैं. अगर सरकार सचमुच नक्सलियों के खिलाफ कारगर लोकतांत्रिक अभियान चलाना चाहती है, तो चाल-चरित्र और सोच में उसे गुणात्मक परिवर्तन करना होगा.
जिस विधायिका में इस विषय पर गंभीर ‘डिबेट’ (पूरी बहस) होनी चाहिए थी, वहां क्या हो रहा है? झारखंड बनने के बाद से, राज्य के इस सबसे गंभीर मुद्दे पर शायद ही गंभीर विमर्श हुआ हो.
एक नयी लोकतांत्रिक राजनीति के लिए आम सहमति बनी हो. जिस विधानसभा में एक ही दल का एक आदमी ट्रेजरी में बैठता है, दूसरा विपक्ष में. आजसू के एक प्रतिनिधि ट्रेजरी पक्ष में हैं, दूसरे विपक्ष में. इसके पहले एनडीए राज में दो विधायकों के खिलाफ शिकायत दर्ज की गयी थी. मामले लंबित रहे. जब सरकार जाने को हुई, तो ताबड़तोड़ सुनवाई की तैयारी होने लगी. क्या यह विधानसभा, झारखंड की राजनीति को एक नयी रौशनी दे सकती है?
दरअसल नक्सली समस्या से निबटने के लिए आज एक नयी, नैतिक, पारदर्शी, पाक साफ, जनता के प्रति प्रतिबद्ध, ईमानदार, लोकतांत्रिक राजनीति चाहिए और यह काम राजनीतिक दल ही कर सकते हैं, पर मौजूदा तौर-तरीके से नहीं. राजनीतिक दलों का कायाकल्प हो, तो यह शायद एक नयी शुरुआत संभव है.
दिनांक : 8-03-07

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