सपने और यथार्थ
– हरिवंश – संदर्भ : झारखंड सपने साकार नहीं होते. निजी जीवन में होते भी हों, तो कम से कम सामूहिक स्तर पर, समाज राज या देश के स्तर पर यह चमत्कार नहीं होता. आजादी के बाद यही हुआ. सपने, यथार्थ में नहीं बदले. 1977 में देश ने पुन: सपना देखा, पर वे भी भंग […]
– हरिवंश –
संदर्भ : झारखंड
सपने साकार नहीं होते. निजी जीवन में होते भी हों, तो कम से कम सामूहिक स्तर पर, समाज राज या देश के स्तर पर यह चमत्कार नहीं होता. आजादी के बाद यही हुआ. सपने, यथार्थ में नहीं बदले. 1977 में देश ने पुन: सपना देखा, पर वे भी भंग हो गये. 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पुन: सपने दिखाये, पर हश्र वही हुआ. अब तो जनता ने सपने देखना भी बंद कर दिया है.
तीन नये राज्य वर्ष 2000 में बने, पर इन राज्यों से जुड़े सपनों के साथ भी ऐसा ही हुआ. वे सपने, अंशत: भी यथार्थ में नहीं बदले. उत्तराखंड या छत्तीसगढ़ में हालत बदल गये हों, तो नहीं मालूम, पर झारखंड के संदर्भ में तो कोई उल्लेखनीय बदलाव दिखाई नहीं देता.
हां, गौर करने की बात है कि राजनेताओं (चाहे वे जिस भी दल के हों) के ठाट-बाट बदल गये हैं. झारखंड बनने के बाद से आज तक कम से कम तीन बार सभी विधायकों ने (सभी दलों के विधायक, सिर्फ सीपीआइ (एमएल) को छोड़कर) एकमत होकर अपने वेतन-भत्ते को बढ़ाया. सार्वजनिक विरोध के बावजूद जनता के बीच से आवाज उठी कि राज्य में प्रति व्यक्ति आमद नहीं बढ़ रही, कानून-व्यवस्था नहीं सुधर रही, नक्सलियों का राज 24 में से 18 जिलों में फैल गया है…. फिर भी किस उल्लेखनीय काम के बदले विधायक तीन-तीन बार वेतन भत्ते संशोधित कर रहे हैं? महंगी-महंगी गाड़ियों पर चढ़ रहे हैं.
क्यों राजनेताओं, भ्रष्ट अफसरों, बिचौलियों और भ्रष्ट उद्यमियों के ही जीवन में झारखंड बनने के बाद बदलाव दिखाई दे रहे हैं? इस वर्ग की समृद्धि, स्वत: बोल रही है. दलालों का एक नया वर्ग उभर आया है.
राज्य की राजधानी रांची से ब्लाक तक. विकास पूंजी के साथ-साथ भ्रष्टाचारियों और दलालों की संख्या, ऊपर से नीचे तक पसर गयी है. भ्रष्टाचार और कुशासन का जरूर विकेंद्रीकरण हुआ है. हालांकि सरकार उपलब्धि की बात करती है, तो विपक्ष सिर्फ आलोचना में यकीन करता है. चूंकि झारखंड की सरकार कम बहुमतवाली सरकार है, इसलिए विपक्ष की कोशिश रहती है कि वह येनकेन प्रकारेण सत्ता में पहुंच जाये.
सत्ता-संचालन के लिए या सुशासन के लिए कोई ब्लूप्रिंट न तो सत्तारूढ़ एनडीए के पास है और न विपक्ष यूपीए के पास. राज्य में गंभीर चुनौतियों की लंबी सूची है, पर विधानसभा में इन सवालों पर कभी सार्थक बहस नहीं होती. नक्सलवाद, सूखा, पलायन, विस्थापन, कृषि संकट, भ्रष्टाचार, जल संकट, पर्यावरण, सुशासन …… लंबी सूची है, जिन विषयों पर प्राथमिकता से चर्चा होती और स्पष्ट नीति बनती, तो झारखंड की तस्वीर जरूर बदलती. क्योंकि प्राकृतिक संसाधन यहां हैं, जनसंख्या कम है, बिहार के अनुपात प्रति व्यक्ति जमीन अधिक है.
लेकिन बदलाव का काम तो राजनीति ही कर सकती है और राजनीति, स्वर्गीय रामनंदन मिश्र (आजादी की लड़ाई के उल्लेखनीय योद्धा, 1942 में जेपी के साथ हजारीबाग जेल से निकल भागे थे) के शब्दों में बांझ और अनुर्वर हो गयी है. नया राज बना तो लगा कि बिहार की लीगेसी से मुक्त होकर यहां नयी शुरुआत होगी, पर संयोग देखिए, आज बिहार में बदलाव की बात हो रही है.
वहां सपनों और संभावनाओं पर चर्चा हो रही है, और खनिज संपदा से भरपूर झारखंड में सिर्फ एमओयू पर बात होती है. झारखंड सरकार ने लगभग दो लाख करोड़ के एमओयू (मेमोरंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग) पर हस्ताक्षर किये हैं. देश-दुनिया के बड़े उद्यमी घरानों से. पर यथार्थ में एक भी एमओयू, धरातल पर दिखाई नहीं देता. बिजली संकट, कुशासन, जमीन अधिग्रहण की मुसीबतें और नक्सलवाद की बढ़ती चुनौतियों से पांच वर्षों पहले सकारात्मक आसार दिखाई दे रहे थे, अब निराशा फैल रही है. विकास या समाज के स्तर पर भले ही कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ हो, पर पत्रकारिता में बदलाव आया है.
राष्ट्रीय स्तर पर लाबिंग के काम में बड़े-बड़े पत्रकारों की भूमिका की चर्चा होती रही है.अब झारखंड में भी, टेंडर दिलाने, ट्रांसफर-पोस्टिंग कराने, ठेका देने-दिलाने, कमजोर सरकार को ब्लैकमेल करने के काम में कुछेक पत्रकार लग गये हैं. संयोग से ऐसे पत्रकार, बड़े पदों पर हैं. मुख्यमंत्री कोई भी हो, ऐसे चारण पत्रकार सत्ता के ईद-गिर्द ही रहते हैं. काम न करनेवाले ईमानदार अफसरों के खिलाफ मुहिम भी चलती है. भ्रष्ट मंत्री स्वत: कमजोर होते हैं, इसलिए वे आसानी से ब्लैकमेल हो रहे हैं. नये राज का यह नया दृश्य है.