1980 के बाद भूमि अधिग्रहण की समस्या और जटिल हो गयी

हरिवंश पुराने लैंड रिकार्ड के मुताबिक झारखंड में मात्र 20 से 30 प्रतिशत रैयती भूमि है. बाकी या तो वन भूमि है अथवा गैर मजरुआ भूमि अथवा जंगल झाड़ी. किंतु इन सौ वर्षों के दौरान गैर मजरुआ भूमि और जंगल झाड़ी पर रैयतों का कब्जा बढ़ाता गया है. अधिग्रहीत भूमि पर ऐसे विवाद को सलटाना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 28, 2015 1:29 PM
हरिवंश
पुराने लैंड रिकार्ड के मुताबिक झारखंड में मात्र 20 से 30 प्रतिशत रैयती भूमि है. बाकी या तो वन भूमि है अथवा गैर मजरुआ भूमि अथवा जंगल झाड़ी. किंतु इन सौ वर्षों के दौरान गैर मजरुआ भूमि और जंगल झाड़ी पर रैयतों का कब्जा बढ़ाता गया है. अधिग्रहीत भूमि पर ऐसे विवाद को सलटाना कोयला उत्पादक कंपनियों के लिए बहुत ही मुश्किल का काम होता है. जब तक यह पूरा नहीं हो जाता तबतक न तो मुआवजा ही दिया जा सकता है और न ही उनको नौकरी या अन्य सुविधा मिल सकती हैं. इन सबका परिणाम होता है कि खनन परियोजना के विकास में रुकावट आती है. कार्यान्वयन में विलंब होता है और लागत खर्च में काफी वृद्धि हो जाती है. सीसीएल के पिपरवार, परेज, दामोदर रेल डाइवर्शन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं.
1980 में वन संरक्षण अधिनियम आने के बाद भूमि अधिग्रहण की समस्या और जटिल हो गयी है, क्योंकि अब फॉरेस्ट लैंड के लिए राज्य सरकार तथा केंद्र सरकार से पहले क्लीयरेंस लेना होता है. वह भूमि के एवज में नये वन लगाने के लिए उतनी ही भूमि तथा वृक्षारोपण के लिए मुआवजे का भुगतान करना हेता है. क्लीयरेंस के लिए अपने आप में एक लंबी प्रक्रिया है, क्योंकि इसे संबंधित वन अधिकारी से लेकर केंद्रीय मंत्रालय तक जाना होता है. इसमें यदि वन अधिकारी सहयोग की मुद्रा में रहते हैं, सेवा-पानी ठीक से होता है, तो प्रस्ताव आगे बढ़ता जाता है, नहीं तो किसी भी स्तर से टिप्पणी के साथ प्रस्ताव आवेदक को लौटा दिया जाता है. इस संबंध में कोयला अधिकारियों का अनुभव काफी कड़वा रहा है. एक अधिकारी ने बताया कि कभी-कभी तो ऐसी टिप्पणी की जाती है, जिसका जवाब देना कोयला कंपनी के लिए संभव नहीं होता हैं. यथा एव प्रस्ताव पर वन पर्यवेक्षक ने संबंधित वन भूमि की आर्थिक उपादेयता जाननी चाही, जबकि यह जानकारी तो स्वयं उनके पास होनी चाहिए. सीसीएल की अशोक परियोजना का उदाहरण स्थिति को स्पष्ट करता है. सीसीएल ने 166 हेक्टर वन भूमि के लिए लगभग सात वर्ष पूर्व सरकार से हस्तांतरण के लिए अनुरोध किया था. सारी औपचारिकताएं पूरी होने में लगभग पांच वर्षों का समय लगा. अंत में वन विभाग की मांग पर सीसीएल ने दो वर्ष पूर्व कंपनसेटरी एफोरेंस्टेशन मुआवजा आदि के लिए आठ करोड़ रुपये वन विभाग को दिया. इसके बाद भी वन विभाग को भूमि के हस्तांतरण में दो वर्षों का समय लगा और वह भी अन्य शर्तों के अलावा इस शर्त के साथ कि सीसीएल उन्हें बची हुई वन भूमि की निगरानी के लिए दो वाहन (जीप) और 16 लाख रुपये देगी, जिसे सीसीएल ने स्वीकार किया.
इसका सबसे हास्यास्पद पहलू यह है कि सरकारी उपक्रम रहते हुए भी सीसीएल को वन विभाग ने तबतक कार्य करने की अनुमति नहीं दी, जब तक कि यह शर्त पूरी नहीं हो गयी. अशोक परियोजना पिपरवार जैसी ही उत्पादन क्षमतावाली परियोजना हैं और वन भूमि के कारण इसके कार्यान्वयन में विलंब और उत्पादन की क्षति कई सौ करोड़ रुपये में आंकी जा सकती है. आखिर उत्पादन की क्षति और राज्य की राजस्व हानि की जिम्मेवारी किन पर है.

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