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झारखंड के आठवें मुख्यमंत्री होंगे, अर्जुन मुंडा. 10 वर्ष पुराने (15 नवंबर 2010 को 10 वर्ष पूरे होंगे) झारखंड में वह तीसरी बार इस पद की शपथ लेंगे. पहली बार वह बाबूलाल जी के हटने पर मुख्यमंत्री बने. दूसरी बार 2004 में हुए विधानसभा चुनावों के बाद. पहले शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने, पर उनकी सरकार बहुमत सिद्ध नहीं कर सकी, फिर अर्जुन मुंडा की ताजपोशी हुई. झारखंड में अब तक तीन बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेनेवाले शिबू सोरेन ही हैं.
पहली बार 2004 के चुनावों के बाद. फिर मधु कोड़ा को अपदस्थ कर शिबू सोरेन सीएम बने और उप चुनाव हार गये. 2009 के चुनावों के बाद भाजपा-झामुमो गंठबंधन के वह नेता और मुख्यमंत्री हुए. फिर सरकार गिर गयी. इस तरह तीन बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेनेवाले शिबू सोरेन हुए या आठवें मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर अर्जुन मुंडा उनके स्कोर के समकक्ष होंगे. तीसरी बार शपथ लेनेवाले मुख्यमंत्री की कतार में दूसरे.
मई-जून 2010 में अर्जुन मुंडा, भाजपा विधायकों के पूर्ण बहुमत के बावजूद मुख्यमंत्री नहीं बन सके. कारण, सरकार गठन का काम मीडिया की नजर में हो रहा था. सार्वजनिक. खुलेआम. मीडिया में एक- दूसरे के खिलाफ बयानों से रोज नये समीकरण बनते-बिगड़ते थे. और यह काम मीडिया की सार्वजनिक नजर में संभव नहीं. इसलिए इस बार अर्जुन मुंडा ने चतुराई से काम किया. पिछले तीन-चार दिनों में रांची से लेकर दिल्ली में हुई भाजपा नेताओं की बैठकों या गुफ्तगू से इस सरकार के रास्ते साफ नहीं हुए. साफ दिखता है कि भाजपा, झामुमो, आजसू वगैरह के लोगों ने बहुत पहले मिल-बैठ कर गुपचुप रणनीति तय की होगी. नहीं तो, इतनी आसानी से, इतने कम समय में सिलसिलेवार यह गंठबंधन आगे नहीं बढ़ता. संकेत मिलता है कि इस बार सरकार बनाने के गणित और पेंच पहले ही हल कर लिये गये हैं. नहीं, तो दोनों दलों के बयानवीर अब तक कई मोरचे खोल चुके होते.
अर्जुन मुंडा को झामुमो से अधिक भाजपा से ही परेशानी थी. रघुवर दास सार्वजनिक रूप से सरकार गठन के खिलाफ बयान दे चुके हैं. छह सितंबर ‘10 को सार्वजनिक बयान देकर यशवंत सिन्हा ने सबको चौंकाया.’ भाजपा के कई शीर्ष नेता, झामुमो के साथ फिर सरकार बनाने के खिलाफ थे. पर अर्जुन मुंडा के साथ भाजपा के विधायक थे. पार्टी अध्यक्ष का खुला वरदहस्त अर्जुन मुंडा के साथ न होता, तो रघुवर दास भाजपा विधायक दल के नेता पद से इस्तीफा नहीं देते. इस तरह बिना सार्वजनिक बयान दिये या बोले बगैर अर्जुन मुंडा ने सबसे पहले अपनी पार्टी के नेताओं का विश्वास पाया होगा. फिर भाजपा विधायकों के समर्थन के बल, झामुमो, आजसू विधायकों से मिल कर सरकार बनाने की पहल की होगी. इस तरह पार्टी के अंदर और बाहर स्थितियों को अनुकूल बना कर अर्जुन मुंडा ने सात सितंबर को सरकार बनाने का दावा पेश किया होगा.
राजनीति, संभावनाओं का खेल है. यह राजनीति के मंजे खिलाड़ी कहते-मानते हैं. आम तौर से धारणा है कि संभावनाओं के इस खेल के दावं- पेंच या अंत:पुर के समीकरण पर मुख्यधारा के राजनीतिक खिलाड़ियों का ही वर्चस्व होता है, उसे आदिवासी नेता नहीं तोड़ सकते. पर अर्जुन मुंडा ने विपरीत स्थितियों को अनुकूल बना कर यह काम कर दिया है. वैसे भी झारखंड के दो नेता, अर्जुन मुंडा और बाबूलाल मरांडी, राजनीति के खेल में देश के किसी हिस्से के तेज- तर्रार नेता से कमजोर नहीं हैं. यह इन दोनों ने साबित कर दिया है. दोनों की अपनी-अपनी खूबियां और खामियां हैं.
अर्जुन मुंडा की यह पहल, समय पर चला गया दावं है. मुख्यमंत्री तो बनेंगे अर्जुन मुंडा, पर खुश विरोधी दल के विधायक भी होंगे. कारण, झारखंड विधानसभा का कोई विधायक चुनाव नहीं चाहता था. बाबूलालजी, कितना भी कह लें या चुनाव की मांग कर लें, पर खुद उनके दल के विधायक भी चुनाव से सहमत नहीं थे. न कांग्रेस के, न अन्य दलों के. माले के विनोद सिंह जैसे अपवाद विधायकों को छोड़ कर. इसलिए इस सरकार को अपदस्थ करनेवाली परिस्थितियां फिलहाल नहीं हैं. न विपक्ष की वह मंशा है.
राज्य के राज्यपाल ने अपने कामकाज से संकेत दे दिया है कि वह सिद्धांतों के तहत चलनेवाले इंसान हैं. पुराने कांग्रेसी, जिनके मूल्य और आदर्श अलग हैं. वह जिस स्वभाव और प्रकृति के लगते हैं (हालांकि इस टिप्पणीकार की कोई उनसे निजी मुलाकात नहीं है), तत्काल सत्ता सौंपने की प्रक्रिया आरंभ करेंगे. कम समय में राज्यपाल और उनके सलाहकारों के किये गये काम झारखंड के खंडहर बनी नींव में, नयी जान डालनेवाले हैं. पर यह चर्चा कभी और.
केंद्र सरकार या कांग्रेस से झारखंड में नयी सरकार गठन की प्रक्रिया में कोई बाधा नहीं पहुंचनेवाली है. कारण, कांग्रेस मान चुकी है कि पटरी से उतरे झारखंड को ठीक करने के लिए अब ऐसा कोई भी प्रयोग या गंठबंधन सफल नहीं होनेवाला. कांग्रेस की नजर में यह कदम अपयश या अपकीर्ति से भरा होगा. कांग्रेस की दूरगामी रणनीति है. वैसे भी केंद्र की सरकार कई नयी चुनौतियों से घिरी है. कॉमनवेल्थ गेम्स के भ्रष्टाचार प्रकरण, कश्मीर संकट, बिहार चुनाव वगैरह. ऐसी परिस्थितियों में केंद्र कोई नयी मुसीबत नहीं लेगा. यह आशंका या डर बेवजह थी कि केंद्र सरकार झारखंड विधानसभा को आनन-फानन में भंग कर देगी. कोई भी निर्णय या फैसला, परिस्थितियों के अनुरूप होता है. शून्य में नहीं. आज चाह कर भी केंद्र यह नहीं कर सकता, क्योंकि हालात अलग हैं.
इसलिए अर्जुन मुंडा की ताजपोशी तय है. उनकी एक खूबी है कि वह डिसिसिव (निर्णायक) हैं. पर पहले मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें कई समझौते करने पड़े. वह आरोपों से भी घिरे. पर लोकसभा में वह झारखंड से जुड़े सवालों पर काफी ‘होमवर्क’ और तैयारी से बोलते या हस्तक्षेप करते थे. लगता है, अपने गुजरे अनुभवों से राजकाज चलाने में इस बार वह सावधानी बरतेंगे. क्योंकि वह कांटों का ताज पहनने जा रहे हैं. झारखंड की चुनौतियां अनेक हैं.
गंठबंधन के स्तर पर भी संभावनाएं और खतरे हैं. झामुमो से निभ गया, तो झारखंड में सामाजिक स्तर पर एक नया प्रयोग होगा. नहीं निभा, तो कांग्रेस-जेवीएम का रास्ता प्रशस्त होगा. पर इससे भी कठिन मोरचा फेस करना है, प्रशासन के मोरचे पर. बढ़ते भ्रष्टाचार को रोकने के संदर्भ में. नक्सली चुनौती से निबटने में. फेल या कमजोर होती संस्थाओं को पुनर्जीवित करने के मामले में. पंचायत चुनाव कराने के संदर्भ में.(यह लेख राज्यपाल द्वारा केंद्र को राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफारिश के पहले लिखा गया.)