इतिहास बनाने के क्षण

-दर्शक- झारखंड में सरकार बनाने के पीछे लगे लोगों का यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ रहा. उन्होंने अंत-अंत तक किसी को भनक नहीं लगने दी कि झारखंड में सरकार गठन की कवायद हो रही है. इंटेलिजेंस या खबरची लोगों को भी इसकी गंध नहीं मिली. सधे हाथों से यह दावं खेला गया. क्या यह दावं झारखंड के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 17, 2016 12:57 PM

-दर्शक-

झारखंड में सरकार बनाने के पीछे लगे लोगों का यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ रहा. उन्होंने अंत-अंत तक किसी को भनक नहीं लगने दी कि झारखंड में सरकार गठन की कवायद हो रही है. इंटेलिजेंस या खबरची लोगों को भी इसकी गंध नहीं मिली. सधे हाथों से यह दावं खेला गया. क्या यह दावं झारखंड के नसीब को पलट सकता है?
उत्तर हां और ना दोनों में है. अर्जुन मुंडा इंटेलिजेंट (तेजतर्रार) और डिसिसिव (निर्णायक) हैं. अपने ‘मास्टर स्ट्रोक’ से उन्होंने यह साबित भी कर दिया. अगर ये दोनों गुण, संकल्प से जुड़ जायें, तो नया इतिहास भी बन सकता है. अगर झारखंड की पुरानी राजनीतिक संस्कृति को ही बढ़ाने में ये दोनों गुण लगें, तो भाजपा और अर्जुन मुंडा दोनों साफ होंगे. अर्जुन मुंडा युवा हैं. लंबा राजनीतिक कैरियर सामने है.

अवसर और हालात उनके पक्ष में हैं. वह चाहें, तो अपना नाम सार्थक कर सकते हैं. लक्ष्य पर तीर चला कर. अगर दलों का बंधन न हो, तो उन्हें शायद दो-चार विधायक छोड़ कर सभी विधायक समर्थन देंगे. कारण, कोई चुनाव नहीं चाहता. साल भर भी विधायक पद पर रहे बिना जो वापस लौटते, वे अपना हिसाब-किताब देख रहे थे. क्या खोया, क्या पाया?

अब राजनीति, शुद्ध व्यवसाय है. राजनीति की यही कमजोरी, भावी मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के लिए ताकत बन सकती है. 2000 में झारखंड बना, तब यह अवसर था. फिर अब यह अवसर है. अर्जुन मुंडा फिलहाल कुछेक साहसी और निर्णायक फैसले करते हैं, तो कोई उनकी सरकार गिरा नहीं सकता. इस तरह वह झारखंड का इतिहास बना देंगे.
एक बड़ा परिवर्तन गौर करने लायक है. इस बार भाजपा, झामुमो, आजसू और निर्दलीय विधायक अधिक गंभीर हैं. व्यवहार में संयम है. न अखबारों में या मीडिया में शर्त रख रहे हैं, न बढ़-चढ़ कर बयान दे रहे हैं. अलग-अलग स्वर नहीं अलाप रहे. भोज पर बैठ कर मिल रहे हैं. अहंकार का प्रदर्शन नहीं कर रहे. कारण, पहले विधायिकी बचानी है. विधायिकी तभी बचेगी, जब इस सूबे या राज्य में सरकार होगी. नहीं तो चुनाव होंगे. इसलिए विधायकों का मौजूदा आचरण, संयम, मर्यादा, परिस्थितियों की देन है. यह कायम रहे.

विधानसभा के अंदर और बाहर. यह अर्जुन मुंडा की सरकार सुनिश्चित करा सकती है. राजनीति में विधायक सत्ता के बिना रह नहीं सकते. विधायक लोकतांत्रिक व्यवस्था की सत्ता नदी में मछली की मानिंद हैं. सत्ता से बाहर हुए, तो मुरझाये या पस्त या श्रीहीन. इस बार झारखंडी विधायक बेचैन थे कि तुरंत सत्ता की नदी में किसी तरह घुस जायें. स्वाभाविक है, पांच साल के लिए जो चुने गये थे, वे छह माह में फिर अग्निपरीक्षा क्यों देते? उदारीकरण के बाद राजनीति की पटरी बदल गयी है. सिद्धांत, आदर्श, मूल्यों के लिए सती होनेवाले तो विधायक बनते नहीं. वैसे हर दल में कुछ अपवाद मिलेंगे, पर कम.

एक और बड़ा मुद्दा था. राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल की टीम जिस तरह काम कर रही थी, उससे गुजरे वर्षों में हुए भ्रष्टाचार की जांच की ताप, झारखंड के राजनेताओं तक पहुंचने लगी थी. इसमें हर दल से जुड़े लोग थे. इन संभावित जांचों से झारखंड की राजनीति में सिहरन थी. कानून का राज और प्रताप लौट रहा था. ऐसे माहौल में कोई दल (अपवादों को छोड़ कर) राष्ट्रपति शासन चलने देने के पक्ष में नहीं था.

खुद राज्य के वरिष्ठ कांग्रेसी राज्यपाल, उनके सलाहकारों और अच्छे अफसरों को हटाने के अभियान में लगे थे. बयान दे रहे थे. क्योंकि वे जानते थे कि पुराने मुद्दे उठे कि उनमें से (कांग्रेस के भी कुछ नेता) भी कुछ फंसेंगे. अगर राज्यपाल और उनकी अपनी टीम का काम चलता रहता, तो समाजवाद के दर्शन की तरह, हर दल के गड़बड़ करनेवालों तक कानून की आंच पहुंचती. यह तथ्य झारखंड के सभी दल अच्छी तरह जान-समझ रहे हैं. इस माहौल में कोई विधायक, आमतौर से ऐसे काम के लिए नयी सरकार पर दबाव नहीं देगा, जो भविष्य में उसके लिए संकट पैदा करे. इस तरह यह सरकार फिलहाल दबाव-ब्लैकमेल से एक सीमा तक मुक्त रहेगी. मंत्री शायद पहले की तरह मुख्यमंत्री को बंधक न बनायें. न कैबिनेट की बैठक में मुख्यमंत्री को, मंत्रियों के लिए तीन-चार घंटे इंतजार करना पड़े.

झारखंड के विधायकों का यही मानस, अर्जुन मुंडा को झारखंड के इतिहास के पुनर्लेखन का अवसर देता है. झारखंड के राजनेताओं, विधायकों और झारखंड सरकार की साख लौटाना, इस सरकार की पहली कसौटी होनी चाहिए. व्यापक ढंग से कहें कि पूरी राजनीति को विश्वसनीय बनाना, इस सरकार की मूल कसौटी हो. झारखंडी नेताओं की प्रतिष्ठा, देश-दुनिया में बहाल करना, इस सरकार का पहला फर्ज होना चाहिए. लोकतंत्र में राजनीतिक दल, सरकार, विधायिका और व्यवस्था ही इसके प्राण हैं. गुजरे 10 वर्षों में इन संस्थाओं के साथ जो कुछ हुआ, उससे झारखंडी जनता राजनीति से ही नफरत करने लगी है. चीरहरण के वे दृश्य याद करना या याद दिलाना जरूरी नहीं, पर इसमें सब साझीदार रहे.
कुछ चुप रह कर. कुछ शरीक होकर. कुछ मौन रह कर. कुछ आंख चुरा कर. कुछ आग लगा कर. मानना चाहिए कि अब अपना वह पुराना खेल झारखंड के सभी विधायक या दल समझ रहे हैं. इसे अब वे दोहरायेंगे नहीं. क्योंकि पुन: वही चीजें दोहरायी गयीं, तो लोकतंत्र से ही झारखंडी जनता विश्वास खो देगी. साफ कहें, तो झारखंड की पुरानी सरकारों की पटरी पर यह सरकार लौटी, तो फिर कुछ नहीं बचेगा. झारखंडी राजनीतिक दलों और विधायकों को एहसास होगा कि जनता कैसे राष्ट्रपति शासन को समर्थन दे रही थी? चूंकि लोकतंत्र में दूसरा रास्ता नहीं है. इसलिए विधायकों के बहुमतवाले गुट को सरकार बनने का न्योता मिलना ही था. अगर चुनाव राष्ट्रपति शासन बनाम झारखंडी सरकार के बीच होता, तो नतीजे लोगों को स्तब्ध कर देते.
इसलिए अर्जुन मुंडा सरकार की पहली अग्निपरीक्षा है कि वह झारखंडी राजनीति की साख, विश्वसनीयता को लौटाये. यह नयी सरकार अपने काम से ऐसा माहौल बनाये कि जनमत, उसे राष्ट्रपति शासन से बेहतर माने. तभी वह लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आस्था उत्पन्न करेगी. नयी सरकार का ऐसा करना, लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति न्याय होगा. फर्ज अदायगी भी. क्योंकि इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बदौलत विधायकों को विधायिकी मिल रही है और सरकार बन रही है.
राज्यपाल एमओएच फारूक ने एक नयी लकीर खींच दी है. तीन महीने के ही राष्ट्रपति शासन में वीएस दुबे और आरआर प्रसाद याद किये जायेंगे. खासतौर से वीएस दुबे. वह राज्य के पहले मुख्य सचिव थे. तब अगर राजनेताओं ने उन्हें महज तीन वर्ष की छूट दी होती (शुरुआती वर्षों में), तो झारखंड आज देश के अव्वल राज्यों में होता. इस बार फिर दिन-रात काम कर उन्होंने जर्जर नींव को ठीक करने की कोशिश की है. मुख्य सचिव के रूप में एके सिंह के प्रयास और पहल से झारखंड की व्यवस्था पुनर्जीवित हुई.

गांवों तक जानेवाले या नक्सली इलाकों में घूमनेवाले शायद वह पहले मुख्य सचिव रहे. राज्यपाल के नेतृत्व में इस टीम ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो कारगर कदम उठाये, उनसे झारखंड को नया ऑक्सीजन मिला है. राजसत्ता- कानून-संविधान की साख लौटी. उपायुक्त शहरों के बाहर गांवों या नक्सली इलाकों में जाकर शिविर लगाने लगे. धनबाद के डीसी ने टुंडी में रात गुजारी. जो टुंडी नक्सलियों का गढ़ है. बीडीओ लोगों ने ब्लॉक में रहना शुरू कर दिया था. पहली बार भ्रष्टाचारियों के बीच हड़कंप मचा. नीचे से गवर्नेंस शुरू हुआ. गवर्नेंस की इकाई जो गांव तक फैली है, उसमें रक्त संचार हुआ.

विजिलेंस डिपार्टमेंट को मजबूत बनाने की कोशिश की गयी. वहां रिटायर्ड सीबीआइ के लोग लाये जाने लगे. भ्रष्टाचारियों को लग गया कि अब झारखंड में खैर नहीं. तीन महीने में राज्यपाल शासन में यह माहौल बना. अब नयी सरकार पर यह निर्भर है कि इस माहौल को वह आगे बढ़ाती है या नहीं?

क्योंकि इस संस्कृति को मजबूत किये बिना, झारखंड का विकास संभव ही नहीं है. इसी टीम ने बिजली बोर्ड की सफाई शुरू की थी. राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के हजारों-हजार करोड़, कैसे लोगों ने उदरस्थ कर लिया? यह जांच एजेंसियां बता चुकी हैं. ग्रामीण विद्युतीकरण के काम में लगी एक कंपनी ने आयकर को बताया है कि उसे कैसे राजनेताओं को कमीशन और घूस देने पड़े हैं. कुछेक राजनेताओं के खिलाफ एफआइआर भी दर्ज हुआ है.
जनता अंधेरे में रहे और रोशनी के पैसे कमीशन और भ्रष्टाचार में बह जायें, तो झारखंड का विकास कैसे संभव है? देश के नकारा और अक्षम (इनइफीशिएंट ) लोग बिजली बोर्ड के अध्यक्ष बन रहे थे. अर्जुन मुंडा बिजली बोर्ड में अच्छे कामकाजी लोगों को बैठा कर अच्छी शुरुआत का संकेत दे सकते हैं.
ब्यूरोक्रेसी से अर्जुन मुंडा का तालमेल अच्छा रहा है. इसलिए मानना चाहिए कि वह अच्छी टीम बनायेंगे. वैसे भी झारखंड नौकरशाही की खदान में अच्छे ब्यूरोक्रेट कोयले की तरह पड़े हैं. हालांकि हैं, वे हीरा. उनकी पहचान या चमक देख कर दूसरे लोग उन्हें ले जाते हैं. आरएस शर्मा ने झारखंड को इ-गवर्नेंस में भारत में चोटी पर पहुंचा दिया. पर यहां की सरकार उनके हुनर को पहचान नहीं सकी. आज केंद्र या देश की सबसे महत्वाकांक्षी योजना, यूआइडी वह संभाल रहे हैं. इस तरह अनेक नाम हैं. इस राज्य में खुद संतोष सतपथी, सुखदेव सिंह, राजबाला वर्मा, एनएन सिन्हा, सुधीर त्रिपाठी, जेवी तुबिद, एसके वर्णवाल, मृदुला सिन्हा, वगैरह हैं. यह टीम देश के श्रेष्ठ अफसरों की टीम बन सकती है.

मुख्य सचिव एके सिंह और शिव बसंत जैसे उम्दा लोग हैं. इन्हें छूट और संरक्षण मिले, तो यह टीम झारखंड को बहुत आगे ले जा सकती है. इस तरह अर्जुन मुंडा सरकार की दूसरी कसौटी होगी कि वह श्रेष्ठ अफसरों को राज्य के हित में कैसे उपयोग करती है? ब्यूरोक्रेसी की नब्ज मुंडा पहचानते हैं. अगर वह श्रेष्ठ नौकरशाहों के पीठ के पीछे खड़े होते हैं, तो इस राज्य की कार्य संस्कृति बदल सकती है. अधिक राजनीतिक समझौता किये बगैर, वह यह काम कर सकते हैं. गुजरे वर्षों में सरकार चलाने के लिए उन्हें बहुत समझौते करने पड़े. पर इस बार वह गणित पलट सकते हैं.

विधायकों को सरकार चाहिए और विधायिकी चाहिए. पांच वर्षों के पहले कोई चुनाव में जाना नहीं चाहता. क्योंकि पिछले चुनाव में 81 में से 53 चेहरे बदल गये थे. यह डर सबको सता रहा है. विधायकों और दलों का यह भय अर्जुन मुंडा के लिए प्राकृतिक वरदान है. सत्य यह है. इस वरदान का महत्व वह समझें और निर्णायक कदम उठायें. अब कोई निर्दलीय या दलीय सरकार गिरायेगा, तो कांग्रेस या जेवीएम सरकार बनाने को बेचैन नहीं है. कारण, कांग्रेस आलाकमान, फिर हाथ नहीं जलाना चाहता. इस तरह इस सरकार के शुरुआती दिन स्थायी भाव में गुजरेंगे. अब मुंडा सरकार की परख शुरुआती दिनों में इन संदर्भों में होगी.

1. राज्य झारखंड लोकसेवा आयोग का पुनर्गठन. इसके चेयरमैन के रूप में किसी अत्यंत ईमानदार, निष्पक्ष पारदर्शी व्यक्ति का चयन. किसी भी आयोग का सदस्य योग्य, ईमानदार और श्रेष्ठ लोगों को ही बनाया जाये. क्योंकि इन संस्थाओं से झारखंड की नींव बननी और बिगड़नी है. भविष्य इन्हीं संस्थाओं पर निर्भर है.
2. झारखंड प्रशासनिक सेवा को स्तरीय और श्रेष्ठ बनाना.
3. सड़कों का जाल बिछाना.
4. अकाल में किसानों को तत्काल राहत. इसमें घूसखोरी, कमीशन को रोकने के लिए विजिलेंस से सरप्राइज और औचक निरीक्षण कराना.
5. विजिलेंस विभाग को आधारभूत सुविधाएं देकर मजबूत बना देना.
6. बिहार की तरह भ्रष्ट अफसरों की संपत्ति जब्त करने का कानून बनवाना.
7. बिहार की तरह ही आपराधिक मामलों का स्पीडी ट्रायल कोर्ट से निष्पादित कराना.
8. बमुश्किल एक माह पहले राज्यपाल एमओएच फारूक ने एक साहसिक फैसला किया. सभी ब्यूरोक्रेट, सार्वजनिक सेवक, एडवोकेट जनरल, सरकारी वकील, अपनी संपत्ति का सार्वजनिक विवरण सरकार को दें. एक माह हो गये, अब तक यह लागू हुआ है या नहीं? मुंडा सरकार तुरंत कदम उठा कर एक व्यापक और बड़ा संदेश दे सकती है.
9. बिजली के मामले में पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ पूरे देश का हब बन गया है. यहां बिजली की कई परियोजनाएं वर्षों से चल रही हैं. कोई उनका पूछनहार नहीं है. इस पर काम हो सकता है.
10. पंचायत चुनावों को समयबद्ध कराना. उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति शासन में यह चुनाव 20 दिसंबर 2010 तक हो जाना था.
11. स्टाफ सर्विस कमीशन बोर्ड को गतिशील करना.
12. जहां जरूरी पद खाली हों, वहां नियुक्तियां आरंभ कराना.
इस तरह अन्य काम भी हैं, जिनको मजबूती से आरंभ कर मुंडा सरकार, अपने होने का संदेश दे सकती है. बिना बोले, बताये या घोषणा किये.
‘पूत के पांव पालने पर’ चर्चित कहावत है. इसलिए शुरू के दिनों से ही यह सरकार अपना रुख, साफ और स्पष्ट रखती है, तो इसे काम करने में सुविधा होगी. लोकतंत्र में जिन राजनीतिक लोगों ने इस व्यवस्था को बिगाड़ा है, वे राजनीतिज्ञ ही इसे सुधार सकते हैं. ‘तुम्हीं ने दर्द दिया, तुम्हीं दवा दोगे’ मान कर चलना चाहिए कि अतीत के अनुभव से सबक लेकर झारखंड के राजनेता झारखंड को बेहतर बनाने के लिए इस बार कुछ करेंगे. आज झारखंड फिर उस कगार पर खड़ा है, जहां वह पुन: इतिहास बना सकता है या फिर इतिहास बन जायेगा.

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