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-हरिवंश- सच तो यही है कि तमाड़ उपचुनाव ने दो मंत्रियों की बलि ले ली है. पर, कारण कुछ भी हो, इन दोनों के जाने से संविधान और कानून का पक्ष मजबूत हुआ है. इन मंत्रियों पर गंभीर आरोप हैं. इन्होंने सरकार, संविधान को बंधक बना लिया था. इनमें से एक ने कहा था, आइ […]

-हरिवंश-

सच तो यही है कि तमाड़ उपचुनाव ने दो मंत्रियों की बलि ले ली है. पर, कारण कुछ भी हो, इन दोनों के जाने से संविधान और कानून का पक्ष मजबूत हुआ है. इन मंत्रियों पर गंभीर आरोप हैं. इन्होंने सरकार, संविधान को बंधक बना लिया था. इनमें से एक ने कहा था, आइ एम करप्ट, सो ”व्हॉट (मैं भ्रष्ट हूं तो क्या). आश्च›र्य है. दूसरे ने कहा है कि यह ‘गंदी राजनीति’ है. उन्होंने यह भी फरमाया, आनेवाला समय राज्य के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. यह कह कर भी वे चुप नहीं हुए. उन्होंने अपनी बरखास्तगी के बारे में कहा कि यह राज्य को रसातल में ले जाने की साजिश है. इससे राज्य बरबाद होगा.

इतना बड़बोलापन? इतना अहंकार? जो मंत्री के रूप में रोज संविधान, कानून, नैतिक राजनीति की धज्जी उड़ाता रहा हो, उसका यह अभिमान कि मेरे जाने से राज्य रसातल में जायेगा. जो आदमी परफॉरमेंस, इफीसियेंसी, इंटीग्रिटी, विजन सबमें सबसे घटिया साबित हुआ हो, उसका यह दर्प और अहंकार? कभी एक दरबारी कांग्रेस अध्यक्ष ने नारा दिया, इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा. अब वह चाटुकार राजनीति, इस शीर्ष पर पहुंच गयी है कि समाज के लिए बोझ बने लोग यह दावा करने लगे हैं कि मेरे जाने से राज्य का दुर्भाग्य होगा?

वह यह भी कहते हैं कि वह गलत राजनीति के शिकार हुए. यह सज्जन चुनाव जीत कर आये, तो इनकी संपत्ति क्या थी? अब क्या है? कितने खटाल, डेयरी फार्म, गाड़ियां खरीदीं? पचासों करोड़ से अधिक की. और तो और, बड़े शहरों में महिला मित्रों के साथ घूमते थे. जिन लोगों की राजनीति में पैदाइश ही पाप से हुआ, छल से हुआ, वे नीति की बात करें, यही कलयुग है. अब इनकी नीति देख लीजिए. पहली बार विधायक बने. एनडीए के साथ गये. फिर पल्टी मारी. यूपीए के साथ हुए. फिर शिबू सोरेनजी के साथ गये. यानी सरकार कोई भी हो, मंत्री पद चाहिए. क्यों? राज्य को लूटने के लिए? सच तो यह है कि झारखंड की सफाई का रास्ता सीबीआइ की जांच सुरंग से होकर गुजरता है. यह लोकतंत्र की सीमा है. जो आदमी अपनी प्रतिभा, श्रम, ईमानदारी के बल चपरासी नहीं हो सकता था, वह मंत्री बन कर करोड़ों का भाग्य तय करने लगा? अरबों में खेलने लगा.

मिनिस्टर पद का संवैधानिक कवर (कवच) था, पर असंवैधानिक काम ही फर्ज थे. सही जांच हो, तो जिन्हें जेल जाना पड़े, वे अब कानून, अच्छी राजनीति वगैरह की दुहाई दे रहे हैं. दूसरे मंत्री का कहना है कि पूरे राज्य की जनता मेरे साथ है. इन पर भी असीमित संपत्ति जमा करने का आरोप है. अब यह मंत्री भी जनता की दुहाई दे रहे हैं.

पर सिर्फ इन दो मंत्रियों को दोष क्यों? किसने इन्हें पाला? पनपाया? बढ़ाया ? और इनके करतूतों को यहां तक पहंचने की इजाजत किसने दी? क्यों झारखंड में ऐसी स्थिति हो गयी कि सरकारी पद पर बैठ कर ये लोग भयमुक्त हो गये, सरकारी कानूनों से, संघीय कानूनों से, आयकर से, विधानसभा से, सरकारों से, मुख्यमंत्री से और केंद्रीय सरकार से? क्यों झारखंड देश का सबसे भ्रष्ट, अशासित और कलंक राज्य बन गया?

इस राज्य को इस हाल में पहुंचाने के लिए एनडीए, यूपीए दोनों जिम्मेवार हैं. जो मुख्यमंत्री हुए, वे भी इस पाप के समान अभियुक्त हैं. बाबूलाल मरांडी के कार्यकाल में भ्रष्टाचार अगर आठ फीसदी था, तो अर्जुन मुंडा के कार्यकाल में वह 16 फीसदी हुआ. कोड़ाजी को इसमें हजार गुना वृद्धि का श्रेय है. आज भी राज्य उसी राह पर है. बाबूलाल मरांडी ने नारा दिया कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेंगे. पर, क्या भ्रष्ट लोगों के साथ खड़ा होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई संभव है? जो राज्यसभा चुनाव में सौदेबाजी के तहत वोट देते हैं, उनके साथ होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई?

उनके दल का स्टैंड क्या है? वह भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना चाहते हैं या एनडीए या यूपीए के मुकाबले तीसरा खेमा बनाना चाहते हैं? या झामुमो के खिलाफ बिगुल फूंकना चाहते हैं? यह साफ नहीं है. भाजपा तो इस राजनीतिक पतन की शुरुआत करनेवाली रही है. बाबूलाल के जमाने से ही. क्या भाजपा ने अपने शासनकाल में मंत्रियों के निरंकुश होने, उनके बढ़ते भ्रष्टाचार, अहंकार या लूट पर अंकुश लगायी? सिद्धांत के लिए सत्ता छोड़ी? मंत्रियों को हटाया? भाजपा के कार्यकाल में ही इन्हें भ्रष्टाचार का चस्का लगा. अगर भाजपा ने ऐसे मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई की होती, इन्हें निकाला होता, तो वह वैकल्पिक राजनीति की बात करती. तब उसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का नैतिक साहस रहता.

पर, झारखंड को अथाह पतन में भेजने का पिच तो भाजपा के कार्यकाल में बना. मधु कोड़ा राज में यह परवान चढ़ा. निर्दल मुख्यमंत्री, निर्दल मंत्री और स्टेज यूपीए का. इस सरकार ने भ्रष्टाचार का इतिहास रच दिया. यूपीए ने राज्य को रसातल में पहुंचा दिया. इस सारे खेल की सूत्रधार कांग्रेस है. वह नायक-खलनायक दोनों की भूमिका में रहना चाहती है. मधु कोड़ा कार्यकाल के अगर एक भी गंभीर मामले की गहराई और गंभीरता से जांच हो जाये, तो अनेक बड़े चेहरे सींखचों के पीछे नजर आयेंगे. मंत्रियों का आचरण स्तब्धकारी रहा. कोई लोकलाज, शर्म या कानूनी बंदिश नहीं. सामंती और निरंकुश राजा भी ऐसे स्वछंद, अमर्यादित या निंदनीय आचरण नहीं करते थे.

और राज्य की इस दुर्दशा के लिए सिर्फ सरकार ही दोषी नहीं? बड़े पदों पर बैठे अफसर उतने ही जिम्मेदार हैं. डॉ लोहिया ने कहा था, असली राजा तो नौकरशाह हैं. मंत्री तो आते-जाते हैं. पर नौकरशाह यहां-वहां सत्ता में ही बने रहते हैं. जब ईमानदार नौकरशाहों को प्रताड़ित और अपमानित किया जा रहा था, तब चारण, चापलूस और भ्रष्ट अफसरों ने क्या किया? अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दिया, इन बिके और भ्रष्ट राजनेताओं के पास. कानून और संविधान के ये प्रहरी, नेताओं और मंत्रियों के अपराधों के कवच बन गये. मुख्य सचिव से लेकर नीचे तक, ऐसे पात्र झारखंड में हुए, जिन्हें कभी यह राज्य, समाज या ईमानदार राजनीति माफ नहीं करेगी. राजनेताओं के साथ-साथ यह तबका भी समान अपराधी है. आज झारखंड में ऐसी व्यवस्था बन गयी है कि इसके गर्भ से लगातार ऐसे ही मंत्री या सरकारें निकलेंगी?

यूपीए को पता है कि मंत्रियों या सरकार के बारे में लोकधारणा क्या है? इसलिए इन दोनों मंत्रियों को हटाने के पीछे कांग्रेस की रणनीति बतायी जा रही है. कोशिश यह है कि इन दोनों मंत्रियों को कुरबान कर यूपीए दिखाए कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ है. वह नैतिक राजनीति की पक्षधर है. लोकसभा चुनाव सिर पर हैं. इसके कुछ दिनों के बाद झारखंड विधानसभा चुनाव भी होंगे. जब तक इन दोनों निकाले गये मंत्रियों के साथ सत्ता का स्वाद लेना था, लिया. अब कुरबान कर भ्रष्टाचार के खिलाफ होने का श्रेय भी लेना है. पर जनता जग रही है.

फर्ज करिए, कल एनोस एक्का साहस करें, तो वह राज्य का कितना बड़ा कल्याण कर सकते हैं? यह काम हरिनारायण राय नहीं कर पायेंगे. एनोस कर सकते हैं, क्योंकि वह खुलेआम कहते हैं कि मैं करप्ट हूं. यानी करप्शन का सार्वजनिक विशेषण वह लेने को तैयार हैं. उनकी इस बात से लगता है कि उनमें साहस है. यह अलग बात है कि वे गलत रास्ते पर साहस दिखा रहे हैं. पर इस साहस से संकेत मिलता है कि एनोस तैयार हों (माफ करेंगे, आजतक कहीं किसी मंच पर कभी उनसे मुलाकात नहीं हुई. जो भी अवधारणा बनी, वह उनके बयान – करतूतों को मीडिया में देख-पढ़ कर), तो वे झारखंड की राजनीति में भूचाल खड़ा कर सकते हैं. झारखंड की राजनीतिक सफाई का झाडू उठा सकते हैं. इस देश की विचित्र परंपरा रही है. पुण्याई से वह अपना पाप धो सकते हैं.

वह सार्वजनिक पुण्याई क्या हो सकती है? तमाड़ चुनाव के बाद, चाहे जीतें, चाहे हारें, वह आत्मशुद्धि करें. अपने पाप जनता के सामने कनफेस करें. बतायें कि हमने यह-यह गलत किया. इतनी संपत्ति इकट्ठी की. मंत्री पद पर रहा, कानून, संविधान की रक्षा के लिए, पर उसे इस रूप में तोड़ा. अब मैं प्रायश्चित कर रहा हूं. यह काम वह शुद्ध मन से करें. गांधीवादी एप्रोच में करें. बिना किसी को दुश्मन या मित्र माने बगैर करें.

इसके बाद वह सप्रमाण बतायें कि विधायक बनने के पहले दिन से अब तक उन्होंने सरकार में क्या देखा? कैसे सड़क नापनेवाले अरबपति बने? कैसे कानून बचानेवाले कानून तोड़क बने? कैसे दलालों की फौज खड़ी हुई? किस राजनेता का शागिर्द झारखंड से 1500 करोड़ से अधिक की पूंजी विदेश ले गया? हरिनारायण राय की यह पीड़ा है कि अगर आय से अधिक संपत्ति के मामले में मुझे निकाला गया है, तो अन्य मंत्रियों को क्यों छोड़ा गया? तो गलत नहीं है. पर हरिनारायण राय में दम नहीं है कि उन सभी मंत्रियों के राज खोल दें, जो इसी तरह झारखंड लूटने में डूबे हुए हैं. एनोस अगर ऐसा करते हैं, तो तात्कालिक मुसीबत उठायेंगे. वैसे भी उनके खिलाफ जांच होनी ही है और उनके गलत काम पकड़ में आयेंगे ही. पर वह खुद पहल कर अपना जुर्म कबूल करें, तो पासा पलट सकते हैं. इस देश और राज्य की जनता सच्चे मन से अपराध स्वीकार करनेवालों को क्षमा करती है. यह पहल कर एनोस झारखंड की राजनीति के महत्वपूर्ण खिलाड़ी बन सकते हैं. तब उनकी जड़ें मजबूत होंगी. वह अपने समकक्ष नेताओं के मुकाबले मजबूत होकर उभरेंगे. एनोस के कन्फेशन से झारखंड की राजनीतिक सफाई की शुरुआत हो सकती है. एनोस का यह प्रयोग, एक सशक्त दावं होगा, जो विरोधियों को चित्त करेगा. और उनको प्रायश्चित की जमीन पर खड़े होकर राजनीति करने का अवसर देगा. अगर यह काम एनोस ने किया, तो यूपीए की रणनीति धरी रह जायेगी. जो लोग एनोस और हरिनारायण को हटा कर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग जीतने का श्रेय लेना चाहते हैं, वे कांग्रेसी औंधे मुंह गिरेंगे.

पर क्या झारखंड की इस दुर्दशा के लिए सिर्फ नेता और अफसर ही जिम्मेदार हैं? नहीं, जनता उससे अधिक दोषी है. मूकदर्शक बन कर संविधान, कानून और नैतिक मापदंडों का चीरहरण देखना, इसके मूल में है. यथा प्रजा तथा राजा. अंगरेजी में भी कहावत है, वी गेट ”व्हॉट वी डीजर्व (हम जिस चीज के पात्र हैं, वही पाते हैं). आम जीवन में गलत करेनवालों से नफरत, चोरी, बेईमानी से आगे न बढ़ने का संकल्प, दलाल बनने की स्पर्धा में शामिल न होने का संकल्प, जिस समाज के पास हो, वहां के राजनेता बेहतर होंगे. मुंबई में आतंकवादी हमलों के बाद क्या स्थिति बनी?

उस लोक आक्रोश के आगे केंद्र से लेकर राज्य सरकारों और राजनेताओं की बोलती बंद है. मुंबई में छगन भुजबल को चाह कर भी गृह मंत्रालय नहीं दिया जा सका, क्योंकि वह तेलगी भ्रष्टाचार के सुपात्रों में से एक हैं. चर्चा हुई कि भुजबल को गृह विभाग मिलेगा, तो जनता ने एलान कर दिया, अगर एक दागी को गृह मंत्रालय मिला तो, हम विधानसभा घेरेंगे. केंद्र से लेकर महाराष्ट्र तक के नेताओं ने हथियार डाल दिये. अति ताकतवर लोगों के प्रियपात्र, अकर्मण्य शिवराज पाटील को जाना पड़ा. महाराष्ट्र के बड़बोले मुख्यमंत्री और उलजलूल बकनेवाले गृह मंत्री पाटील को भी जाना पड़ा.

लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर गये. केंद्र सरकार को बाध्य होकर आतंकवादियों के खिलाफ दो विधेयक पास करने पड़े. यह लोक की सत्ता, ताकत और महत्ता है. झारखंड की जनता सड़कों पर उतरे, इन नेताओं को घेरे, इनसे नफरत करे, तब बात बन सकती है. सड़क पर सायरन बजाते जब ये चलते हैं, तो जनता इन्हें गालियां देती हैं. पर ये सत्ता के मद में मदांध और बहरे हो चुके लोग हैं. इसलिए इस देश में जनक्रांति की जरूरत है. सात्विक लोक आक्रोश हो, अहिंसक लोक आक्रोश हो, तो झारखंड बदलेगा.

कुछ लोग तुरंत परिणाम चाहते हैं. तुरत-फुरत निर्वाण. यह मैगी व नूडल्स का खेल नहीं हैं. अच्छा समाज चाहिए, विकसित समाज चाहिए, साफ-सुथरी सड़कें चाहिए, व्यवस्थित जीवन चाहिए, लगातार बिजली चाहिए, भ्रष्टाचार मुक्त समाज चाहिए, अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए, अच्छी शिक्षण संस्थाएं चाहिए, तो उसकी कीमत चुकानी होगी? झारखंडी जनता को व्यक्तिगत तौर पर आत्म-निरीक्षण करना होगा. क्या हमारे जीवन में सार्वजनिक मूल्य-मर्यादा हैं? कहीं नैतिकता बची है? मीडिया से लेकर हर महत्वपूर्ण पद पर बैठे लोग (अपवाद हर जगह हैं, पर वे क्षमा करेंगे) नीलाम होने के लिए निर्लज्ज चौराहों पर खड़े हैं?

बाबर की बाबरनामा पढ़िए. हिंदुस्तान के पतन का स्रोत मालूम हो जायेगा. बाबरनामा में उल्लेख है कि कैसे मु™ट्ठी भर बाहरी हमलावर भारत की सड़कों से गुजरते थे. सड़क के दोनों ओर लाखों की संख्या में खड़े लोग मूकदर्शक बन कर तमाशा देखते थे. बाहरी आक्रमणकारियों ने कहा है कि यह मूकदर्शक बनी भीड़, अगर हमलावरों पर टूट पड़ती, तो भारत के हालात भिन्न होते. इसी तरह पलासी की लड़ाई में एक तरफ लाखों की सेना, दूसरी तरफ अंगरेजों के साथ मु™ट्ठी भर सिपाही, पर भारतीय हार गये. एक तरफ 50,000 भारतीयों की फौज, दूसरी ओर अंगरेजों के 3000 सिपाही, पर अंग्रेज जीते. भारत फिर गुलाम हुआ. जब बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर ग्यारहवीं शताब्दी में आक्रमण किया, तो क्या हालात थे?

खिलजी की सौ से भी कम सिपाहियों की फौज ने नालंदा के दस हजार से अधिक भिक्षुओं को भागने पर मजबूर कर दिया. नालंदा की विश्वप्रसिद्ध लाइब्रेरी वर्षों तक सुलगती रही. इतिहास में हजारों उदाहरण हैं. मूकदर्शक या तटस्थ या निरपेक्ष बन कर रहनेवाली कौम का इतिहास नहीं होता. वह गुलाम बनने के लिए अभिशप्त होती है. अगर झारखंड को बेहतर बनाना है तो यहां ‘सिविक रेनेसां’ (सार्वजनिक जीवन के मापदंडों-मूल्यों में रेनेसां) की जरूरत है. स्वाति रामनाथन के अनुसार, यह रेनेसां तीन स्तर पर संभव है. हर नागरिक के स्तर पर, समाज के लिए स्वैच्छिक पहल पर और समुदाय के लिए जीने के संकल्प पर. राजनीति से मत भागिए. राजनीति ही निर्णायक है. वही समाज-देश को गढ़ती है. राजनीति में रुचि लें. इसी से देश और समाज बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है. इससे दूर रह कर, इसे महज भ्रष्ट सत्ता या आपराधिक सत्ता या अनैतिक सत्ता भर कहना ठीक नहीं. महात्मा गांधी ने कहा था, सरकार के गुण या दोष सरकार की उपज नहीं हैं, बल्कि जनता के प्रतिबिंब हैं. लोग वोट नहीं डालेंगे, पर व्यवस्था सुधार का सपना देखेंगे. कहेंगे राजनीति में सब ऐसे ही हैं. इस रुख से बात बननेवाली नहीं है.

जरूरी है कि राजनीतिक चेतना पैदा हो, जो जाति, धर्म, क्षेत्र से ऊपर हो. राजनीति के बाहर बैठ करके राजनीति की गंदगी को धोया नहीं जा सकता. गांव के स्तर पर भी पुरानी सामूहिक भावना पैदा करनी होगी. जैसे पहले मंदिर, तालाब, पोखर, सार्वजनिक स्थल वगैरह गांव की मिल्कियत होते थे. सामूहिक श्रमदान से बनते थे. समाज एक दूसरे की देखभाल करता था. वह माहौल बनाना होगा. यह सामाजिक पूंजी है. सामाजिक पूंजी को मजबूत बनाना जरूरी है.

महज पुलिस की नियुक्ति या कानून से बात नहीं बननेवाली. 100 करोड़ से अधिक लोगों के लिए कुल 10,32,960 पुलिस हैं. एक हजार पर एक भी नहीं. कितनी पुलिस खड़ा करेंगे? अपराध रोकने के लिए कितने कानून बनायेंगे? अंतत: समाज को नैतिक बनना होगा. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जीवित मनीषी हैं. जब वह कहते हैं कि भारत का भविष्य दो के हाथ है. पहला, परिवार. दूसरा, प्राइमरी स्कूल के अध्यापक, तो यह बात समझनी होगी. अपने अड़ोस-पड़ोस से संबंध बनाना, एक-दूसरे को जानना, सार्वजनिक सवालों पर पहल करना, हम सीखें और सार्वजनिक जीवन में भाईचारे को मजबूत करें.

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