-दर्शक-
झारखंड के नेता और दल लोक-लाज से परे हैं. इन बयानों पर गौर करिए. 22 मई को मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने कहा, कांग्रेस और भाजपा दोनों से बात हो रही है. बोकारो में उन्होंने यह कहा. याद रखिए, उस दिन उनकी सरकार की साझीदार भाजपा थी. भाजपा से सत्ता हस्तांतरण पर झामुमो की सहमति हो चुकी थी.
21 मई को ही बोकारो से झामुमो के अन्य नेताओं ने कुछ ऐसा ही बयान दिया. सरकार गिराने के बाबत. 20 मई को शिबू सोरेन का बयान आया, मुख्यमंत्री हूं, इस्तीफा नहीं दूंगा. 19 मई को शिबू सोरेन का बयान था, भाजपा नेताओं की उपस्थिति में, 28-28 महीने के सत्ता परिवर्तन पर चर्चा हुई. सहमति बन गयी है. उसी दिन खबर आयी कि 25 मई को सत्ता परिवर्तन होगा. झामुमो, भाजपा को सत्ता सौंप देगा.
अब इन बयानों के बाद 24 मई को हेमंत सोरेन का बयान आया है कि मीडिया ने गलतफहमी पैदा की. शिबू सोरेन के बयान को तोड़-मरोड़ कर छापा. इस कारण गलतफहमी हुई. 18 मई को शिबू सोरेन और अर्जुन मुंडा की तसवीर साथ-साथ मिलते हुए छपी थी. हंसते हुए. शिबू सोरेन द्वारा अर्जुन मुंडा को आशीर्वाद देते हुए तसवीर. तब भाजपा और झामुमो नेताओं की उपस्थिति में समझौता हुआ.
प्रेस को बयान दिया गया. उसके बाद से रोज झामुमो का स्टैंड बदलता रहा. अब झामुमो नेता कह रहे हैं कि मीडिया के कारण यह स्थिति बनी है. अगर छह दिनों तक मीडिया में तोड़-मरोड़ कर खबरें आती रहीं, तो झामुमो के नेता चुप क्यों थे? मीडिया को दोष देकर, अपनी करनी से पिंड छुड़ाना चाहता है, झामुमो. हकीकत यह है कि झामुमो में न एक स्वर था. न आम सहमति थी. अंदर से विधायक खंड-खंड बंटे हुए हैं. शिबू सोरेन के पुराने साथी, युवा हेमंत सोरेन को नेता नहीं मानते. पर इन विक्षुब्धों की ताकत, दल को निर्णायक कगार तक ले जाने की नहीं है. इसलिए यह दल खुद दिग्भ्रमित है. विफलता अपनी, पर दोषी मीडिया. सरकार जाने पर, यह है झामुमो की प्रतिक्रिया.
भाजपा भी पीछे नहीं. रघुवर दास का बयान आया है कि यह सब कांग्रेस का खेल है. रघुवर दास, शिबू सरकार के कर्णधारों में रहे हैं. वे झारखंड भाजपा के अध्यक्ष भी हैं. खुद राजकाज संभाल नहीं सके, अपनी पार्टी एकजुट नहीं रख सके, तो अपनी विफलता का दोष कांग्रेस को ? 2008 के विधानसभा चुनावों में यही रघुवर दास भाजपा अध्यक्ष के रूप में हुंकारें भरते घूम रहे थे कि सत्ता में आते ही भ्रष्टाचारियों पर सीबीआइ जांच का आदेश, सरकार का पहला कदम होगा. पर झामुमो के साथ, जिस सरकार के वह कर्णधार थे, उस सरकार ने हाइकोर्ट में बार-बार बयान देकर भ्रष्टाचारियों को बचाने का काम किया. इस सरकार की विफलताएं या पाप छोड़ भी दें, तो झामुमो-भाजपा विवाद को न सलटा पाने का दोष कांग्रेस पर कैसे? खुद अपनी अकर्मण्यता, अपनी विफलता, अपना पाप दूसरों के सिर?
दरअसल भाजपा के अंदर झारखंड को लेकर तीन विचार थे. पहला विचार उन लोगों का था, जो किसी कीमत पर झामुमो से समझौता नहीं चाहते थे. शुरू से. सरकार बनने के समय से. झारखंड में जब भाजपा-झामुमो के बीच ताजा विवाद शुरू हुआ, तो दूसरा वर्ग रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाना चाहता था. तीसरा खेमा अर्जुन मुंडा को. भाजपाइयों के अनुसार ही विधायकों का बहुमत श्री मुंडा के साथ था. 19 मई को झामुमो-भाजपा के बीच सत्ता बंटवारे की सहमति की खबर आयी. इसके बाद से भाजपा की दो धाराओं में टकराव तेज हो गया. एक धारा रघुवर समर्थकों की थी.
दूसरी अर्जुन मुंडा समर्थकों की. अब भाजपाई ही कह रहे हैं कि झामुमो ने अपने रोज बदलते बयानों से विचित्र स्थिति पैदा कर दी. भाजपा के लिए यह स्थिति न निगलते बने, न उगलते. इस बीच मौका मिल गया, रघुवर दास समर्थक धारा को. साथ ही जो शुरू से झामुमो के साथ मिल कर सरकार बनाने के विरोधी भाजपाई थे, वे भी भाजपा की रोज होती फजीहत देख दुखी थे. इन दोनों का रुख देख मुंडा समर्थक धारा खामोश रहने को विवश थी. इस तरह यह सरकार बलि चढ़ी. पर झामुमो सरकार जाने का दोष दे रहा है, मीडिया पर. और रघुवर दास कांग्रेस पर. गांवों में एक पुरानी कहावत है, ‘नाचे न आवे, अंगनवे टेढ़.’ वही हाल है.
अब झारखंड की राजनीति में क्या गुल खिलेगा? शातिर राजनीतिक खिलाड़ियों की नजर झामुमो पर है. झामुमो का बड़ा धड़ा जेवीएम, कांग्रेस, राजद के साथ मिले, इसकी पृष्ठभूमि रची जा रही है. फिर आजसू स्वत: साथ आ जायेगा. इस तरह सत्ता के दलाल भावी सरकार की रूप-रेखा बना रहे हैं.
फिलहाल कांग्रेस इस खेल से निरपेक्ष है. झारखंड में कांग्रेस प्रभारी केशव राव ने साफ कर दिया है कि कांग्रेस ने झामुमो को कोई प्रस्ताव नहीं दिया है. कांग्रेस उत्साहित होती, तो झामुमो में नया प्राण संचार होता. पर कांग्रेस फिर बेतरतीब सरकार बना कर हाथ नहीं जलाना चाहती. कांग्रेस का एक समझदार वर्ग इस अवसर को एक मौका के रूप में देख रहा है. वह चाहता है कि राष्ट्रपति शासन लगे. अच्छे सलाहकार आयें. झारखंड को जाननेवाले लोग सलाहकार बनें. मसलन टी नंदकुमार जैसे. साफ-सुथरी छविवाले. छह महीने झारखंड में बेहतर शासन हो. चीजों को पटरी पर लाया जाये.
इससे अंतत: कांग्रेस को ही लाभ होगा. राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल के शंकरनारायणन के कार्यकाल में हुए बेहतर कामों का लाभ कांग्रेस को मिला. उसके विधायकों की संख्या 9 से 14 हो गयी. राज्य में राष्ट्रपति शासन का पैरोकार कांग्रेसी खेमा मानता है कि राष्ट्रपति शासन के दौरान बेहतर कामकाज होगा, तो कांग्रेस को ही लाभ मिलेगा. इस खेमे का तर्क है कि कांग्रेस को कम लाभ मिले या अधिक. पर भाजपा को सबसे अधिक नुकसान होगा. फिर झामुमो का. क्योंकि शिबू सोरेन सरकार कुछ कर ही नहीं सकी. किसान बीज के लिए तड़प रहे हैं, पर बोआई के पहले बीज नहीं मिले.
बच्चों के खाने में छिपकलियां मिलने की खबरें रोज आ रही हैं. जन वितरण प्रणाली लूट का पर्याय बन गयी है. राज्यपाल के स्पष्ट आदेश के बावजूद यह अल्पमत सरकार रोजाना ट्रांसफरों में व्यस्त थी. कहीं कोई बेहतर काम इस सरकार के खाते में है ही नहीं. इसलिए यह सरकार अपना कार्यकाल भुना नहीं सकती है. इसलिए चुनाव होने पर इसे नुकसान होगा. यह मानना है, कांग्रेस के उस प्रभावी वर्ग का, जो राज्य में राष्ट्रपति शासन चाहता है.
इस वर्ग का निष्कर्ष है कि झारखंड के लोग आज एक कारगर शासन चाहते हैं. प्रशासन की प्रभावी उपस्थिति. राष्ट्रपति शासन में यह संभव है. इसलिए कांग्रेस फूंक-फूंक कर पांव बढ़ा रही है, ताकि भाजपा-झामुमो के दिये इस अवसर से वह लाभ उठा सके.