13.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

आप देसा भगत को अवश्य जानते होंगे

-हरिवंश- तीन दिनों पूर्व चिंगरी में आदिवासियों की चौपाल में देसा भगत को पहली बार देखा. गरीबी और बेहाली के शिकार. आंखों में हिकारत का भाव. उम्र लगभग 60 वर्ष. पिता का नाम जतरा भगत. समाज का एक बड़ा हिस्सा अगर जतरा भगत को नहीं जानता, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. तब बिरसा मुंडा […]

-हरिवंश-

तीन दिनों पूर्व चिंगरी में आदिवासियों की चौपाल में देसा भगत को पहली बार देखा. गरीबी और बेहाली के शिकार. आंखों में हिकारत का भाव. उम्र लगभग 60 वर्ष. पिता का नाम जतरा भगत. समाज का एक बड़ा हिस्सा अगर जतरा भगत को नहीं जानता, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

तब बिरसा मुंडा का उलगुलान खत्म हो गया था. अंगरेज शासकों और उनके सूबेदार सामंतों के आतंक से 1857 का विद्रोह बिखर चुका था. उन्हीं दिनों 1988 के लगभग जतरा उरांव का चिंगरी गांव में जन्म हुआ. बाद में वह जतरा भगत कहलाये. आदिवासियों के पांच महापुरुष कहे जाते है. सिद्धू कान्हू, बुद्ध, बिरसा और जतरा. एक पस्त काम और रीढ़हीन समाज में जतरा भगत ने तन कर स्वाभिमान से खड़ा होने का साहस भरा. उन दिनों अंगरेज लाट साहबों और उनके कारिंदे सामंतों के लिए नेतरहाट की पहाड़ियों पर सुंदर बंगले बन रहे थे. जतरा भगत ने आवाहन किया कि बेगार बंद करो. अंगरेज अफसरों के रिहायशी भवनों का निर्माण ठप हो गया.

उलगुलान हुआ. लोगों की जुबान पर एक ही नारा था: ‘चिंगरी नू धरती धरमे. ‘(जतरा की जन्मभूमि चिंगरी में धर्म का अभ्युदय हुआ है). सारे आदिवासी उमड़ पड़े चिंगरी धाम की ओर. जहां जतरा भगत ने आवाहन किया.

‘टान टुन टाना बाबा टाना

पूरब में टाना. पश्चिम में टाना

कांसा, पीतर मना, ढकना में खाना

मांस, मदिरा मना, हडि़या, दारू मना टान बाबा टाना…’

टान का अर्थ है खींचना, विद्रोह जतरा के आवाह्न पर चिंगरी के सुदूर पूरब, पश्चिम में विद्रोह शुरू हो गया. उसने यह भी आवाहन किया कि बाहर से आये कांसा-पीतर के बर्तनों को छोड़ कर अपने गांव में बने मिट्टी के बर्तनों-पतों के दोनो पर खाओ. शायद बाहरी सभ्यता-संस्कृति और आर्थिक साम्राज्यवाद के खिलाफ यह पहला स्वदेशी विद्रोह था. जतरा ने अनुयायियों से कहा, मांस, मदिरा और हड़िया छोड़ो. जतरा का यह भी नारा था कि हम खुद अपने शासक है.

इस आंदोलन में सभी आदिवासी मुंडा, उरांव, बड़ाईक, खेरवार, खड़िया आदि शरीक हुए. बाद में यही लोग टाना भगत कहलाये. रांची, गुमला, लोहरदगा और खेलारी में इनका जोर अधिक था.

जतरा का पूरा विद्रोह अहिंसक था. बिरसा मुंडा के खूनी विद्रोह के बाद उन विषम परिस्थितियों में जतरा ने टूटे समाज कौम में स्वाभिमान से तन कर खड़ा होने की ताकत दी. 1914 के लगभग अंगरेजों ने जतरा को गिरफ्तार किया. वहां से गुमला हो कर उसे रांची लाया गया. इस यात्रा क्रम में सात पड़ाव थे. रांची जेल आने के क्रम में जिन सात जगहों पर रात में जतरा का पड़ाव हुआ, वहां-वहां भारी मात्रा में आदिवासी उमड़ पड़े. इस यात्रा के गर्भ से ही टाना भगत आंदोलन का जन्म हुआ. 1916 में जेल से छूटने के कुछ ही दिनों बाद 28 वर्ष की उम्र में जतरा की मौत हो गयी.

पर टाना भगत आंदोलन इतिहास का अनोखा अध्याय बन गया. इनका लिबास हुआ सिर पर गांधी टोपी, हाथ में झंडा और घंटी. अंगरेज अधिकारी सबसे अधिक टाना भगत लोगों से घबड़ाते थे. टाना भगत किसी भी अधिकारी का अहिंसक तरीके से घेराव करते और घंटा बजा कर कहते, हम आपकी सत्ता नहीं मानते हैं. यह आंदोलन इतना जबरदस्त, सशक्त और सात्विक था कि अंगरेज भौंचक रह गये. 1920 के आसपास रामगढ़ में जो कांग्रेस हुई, उसमें गांधी जी को टाना भगतों ने अपना गौरव पुरुष माना.

गांधी जी ने इन्हें अपनाया. तत्कालीन अंगरेज सरकार ने सभी टाना भगतों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया, लेकिन भूख से लड़ते हुए भी टाना भगतों का स्वाभिमान और तेज कुंद नहीं हुआ. सात्विक आक्रामकता और नैतिक तेज के सामने उन्होंने सरकार को अस्तित्वहीन बना दिया. तब टाना भगत अपनी जमीन-जायदाद और घर से बेदखल होकर भी सुराज की लड़ाई लड़े. उनका कहना था कि गांधी बाबा का राज होगा, तभी हम अपनी जमीन, जायदाद और धरती वापस लेंगे.

उन्हीं दिनों तिरंगा उनके जीवन का अविभाज्य अंग बन गया. आज भी हर टाना भगत के घर में तुलसी पेड़, सफेद ढूहा और तिरंगा झंडा मिलेगा. इस ‘सुराजी झंडा’ को अपने घर में होने वाले हर तीज-त्योहार में वे बदलते हैं. इसका अपमान उन्हें असहनीय है.इस तिरंगा या सुराजी झंडे के प्रति उनका रागात्मक लगाव देख कर स्मरण आये वे चेहरे, जो इस तिरंगा के हर अपमान के बावजूद सत्ता सुख भोग रहे हैं.

देश आजाद हुआ, तो टाना भगतों की एक टोली गांधी जी से मिलने गयी. उन्हें लगा सुराज आया, तो जमीन- जायदाद घर तो वापस मिलेंगे, लेकिन गांधी जी की हत्या के बाद ये असहाय हो गये. आज भी गुमला, रांची, लोहरदगा की आदलतों में अरजी लिए घूमते ये टाना भगत मिल जायेंगे. बमुश्किल 20 फीसदी टाना भगतों को अपनी पुरानी जमीन-जायदाद (जो आजादी की लड़ाई में अंगरेजों ने जब्त कर ली थी) वापस मिली. आजाद हिंदुस्तान ने बाकी अपने ऐसे स्वाभिमानी पुत्रों को असहाय जीने के लिए छोड़ दिया है.

उधर जतरा की पत्नी बुधनी पति की मृत्यु के बाद बच्चों को लेकर भटकने लगी. जतरा के चार पुत्र थे. बोधू, सुद्धु, बंधू और देसा. जब जतरा मरे. तो देसा गर्भ में था. बहुत वर्षों तक बुधनी ने देसा को बताया नहीं कि वह जतरा भगत का पुत्र हैं. उसे डर था कि अंगरेज जतरा की तरह उसके बच्चों को भी नहीं बख्शेंगे. देसा को अब अपनी मां का चेहरा याद नहीं. उसे अपने भाई याद हैं, जो उसके अनुसार रोटी की तलाश में भूटान चले गये. दरअसल, असम की चाय बागानों में मजदूरी करने जाने वालों को इधर लोग भूटान जाना कहते हैं. उसके बाद से देसा को अपने भाई बोधू, सुद्धु पता नहीं. शायद उनके लड़के हैं.

यह कई दशक पहले की बात है. तीसरे भाई बंधू अब नहीं हैं. अब 60 वर्षीय देसा भगत टूटे घर में रहने और गरीबी में जीवन गुजारने के लिए अभिशप्त हैं. इस धरती के जो कद्दावर पुरुष जतरा हुए, जिन पर इस देश को अभिमान है, उनका एकमात्र जीवित बूढ़ा लड़का नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त है. इस आजादी की इससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी? जिन टाना भगतों ने गांधी जी के नामपर सर्वस्व न्योछावर कर दिया, आज वही दर-दर भटक रहें हैं. इसी आंदोलन के कारण इस अंचल में कांग्रेस की जड़ें सबसे अधिक मजबूत रहीं और झारखंड आंदोलन खड़ा न हो सका. आज सरकार और विभिन्न दलों की प्राथमिकताओं में कहीं देसा भगत या टाना भगत नहीं है?

देसा भगत से कभी किसी सरकारी नुमाइंदे ने पूछताछ नहीं की. उन्हें मदद पहुंचाने का बीड़ा उठाया अशोक भगत ने. जतरा की मूर्ति लगाने का काम भी उनकी पहल पर हुआ.पर इस कदर उपेक्षित, आहत और टूटे टाना भगत अब भी आहत है कि गांधी की हत्या क्यों हुई. कंदरू भगत कहते हैं कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को मार दिया गया. अब गांधी जी का खानदान खत्म हो रहा है. इन आदिवासियों की निगाह में इंदिरा जी, राजीव गांधी, महात्मा गांधी के ही वंशज हैं.

इन्हें अपनी स्थिति पर आक्रोश नहीं, पर गांधी जी के साथ हुई वारदात पर नाराजगी है. चिथरू भगत पूछते हैं कि सरकार कहां है, हमें दिखाइए. पता चला कुछ दिनों पूर्व चिथरू भगत ने एक आंदोलन चलाया था, वह हर दीवार पर लिखते घूम रहे थे.

‘काड़ा सरकार, गोरू सरकार

हमारी सरकार’

यानी काड़ा (भैंसा) और गोरू (बैल) की बदौलत हम अन्न उपजाते -खाते हैं. इस कारण वे ही हमारे लिए पूज्य व हमारी सरकार हैं. चिथरू ने जब बीडीओ के दफ्तर में यह नारा लिखा तो सरकार के सीआइडी इसका अर्थ पूछते घूमते रहे थे.

पता नहीं इसका अर्थ जानकर सरकारी मुलाजिमों ने क्या रपट लिखी होगी. पर इन आदिवासियों के चेहरों पर साफ इबारत में उनके भाव अंकित हैं. इन्हें पहचानने में जितना ही विलंब होगा, स्थिति अनियंत्रित होगी.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें