हे भगवान! अब तो अवतार लीजिए

-हरिवंश- . भगवान भी इस देश को नहीं बचा सकता. . केंद्र और राज्य सरकारों में हिम्मत नीहं कि वे अवैध कब्जावालों के खिलाफ कार्रवाई कर सकें. (सुप्रीम कोर्ट, 5 अगस्त, 2008) . सरकार के छोटे-छोटे काम के लिए कोर्ट को आदेश पारित करना पड़ता है.(जनहित याचिका पर झारखंड हाईकोर्ट की टिपप्पणी. 6 अगस्त 2008 […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 6, 2016 12:37 PM

-हरिवंश-

. भगवान भी इस देश को नहीं बचा सकता.

. केंद्र और राज्य सरकारों में हिम्मत नीहं कि वे अवैध कब्जावालों के खिलाफ कार्रवाई कर सकें. (सुप्रीम कोर्ट, 5 अगस्त, 2008)

. सरकार के छोटे-छोटे काम के लिए कोर्ट को आदेश पारित करना पड़ता है.(जनहित याचिका पर झारखंड हाईकोर्ट की टिपप्पणी. 6 अगस्त 2008

. नामकुम (रांची) ब्रिज नहीं बनना शर्मनाक (केंद्र और राज्य सरकारों के कामकाज पर झारखंड हाईकोर्ट की टिप्पणी. 7 अगस्त 2008)

. इस देश में आप (अफसरगण) काम करें, इसके लिए आप को कोड़े (फ्लागिंग) की जरूरत पड़ती है. क्या यह राम राज्य है? क्या स्वराज्य का यही तात्पर्य है? (न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल : सुप्रीम कोर्ट. 8 अगस्त, 2008)

आशय है कि भारत की नौकरशाही तभी काम करती है, जब उस पर कोड़े (फटकार, डांट, मानहानि, अवमानना वगैरह) फटकारे जाते हैं.

पिछले तीन-चार दिनों में ऊपर छपी टिप्पणियां पढ़ने को मिलीं. इन्हें पढ़ते हुए एक रूसी पत्रकार का कथन याद आया. इसे किसी वरिष्ठ साथी से सुना था. वर्षों पहले. सत्तर के दशक में कोई रूसी पत्रकार भारत देखने आये. वह रूसी कम्युनिस्ट थे. अनिश्वरवादी. घोर मार्क्ससिस्ट. भारत घूमे. हर जगह अराजकता देखी. लौटते वक्त दिल्ली में रुके. भारत के वरिष्ठ पत्रकारों, नेताओं से मिले. लोगों ने पूछा – कैसा लगा भारत? कहा – भारत को देख कर ईश्वर पर यकीन हो गया. इतनी अराजकता, इतनी अव्यवस्था, फिर भी लोग रह रहे हैं. सह रहे हैं. और व्यवस्था चल रही है. यही तो ईश्वर का चमत्कार है.

आज के भारत पर यह टिप्पणी और सटीक है. भारत के संविधान में यह कल्पना है कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों मिलकर एक बेहतर व्यवस्था देंगे, जहां सामान्य नागरिक को सुरक्षा मिलेगी. रोजगार के अवसर मिलेंगे. विषमता नहीं होगी. पर केंद्र और राज्य सरकारों के कामकाज को देख कर तो यही लगता है कि केंद्र सरकारों ने और कुछेक जगह की राज्य सरकारों (जिसमें झारखंड शामिल है) ने अपना मूल दायित्व छोड़ दिया है. शासन करना सरकारों का मूल धर्म है, पर इस मुल्क में अशासन की स्थिति और अराजकता पैदा करना शासकों का नया धर्म बन गया है.

यह अशासन की स्थिति क्यों? इसलिए कि शासकों का इकबाल, प्रताप और यश खत्म हो गया है. धंधेबाज, बिचौलिये और दलाल, गांव से लेकर दिल्ली तक सामाजिक और राजनीतिक जीवन में निर्णायक भूमिका में हैं. अगर शासक वर्ग अपनी नैतिकता, विश्वसनीयता और आभा खो दे, तो उसमें क्या रह जाता है? वह चरित्रहीन सौदागर बन जाता है, जो सिर्फ तिजारत करता है. देश से, समाज से और अपनी धरती से. इतिहास पलटिए, यह काम करनेवाले शासक पात्र मिल जायेंगे. राजा जयचंद, मीर जाफर, …. वगैरह. विवेकानंद ने आगाह किया था, आजादी तो मिलनी ही है, पर वह चरित्र कहां है, जो इस आजादी को संभालेगा?

ध्यान दीजिए. आज न्यायपालिका जो कुछ कह रही है, टिप्पणी कर रही है, उसके गहरे अर्थ हैं.

विधायिका और कार्यपालिका ने अपना दायित्व छोड़ दिया है, इसलिए अराजकता की स्थिति बन गयी है. ‘70 के दशक में ही नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रो गुन्नार मिर्डल ने चेताया था. अपनी चर्चित पुस्तक ‘एशियन ड्रामा’ में. भारत ‘सॉफ्ट स्टेट’ (लुंजपुंज राज) बनता जा रहा है.

यही संकेत 200 वर्षों तक राज करनेवाले अंग्रेजों ने भी दिया था. भारत के आजाद होने के समय विंस्टन चर्चिल ने कहा था. भारत के तपे नेताओं की पीढ़ी खत्म हो जायेगी. इसके बाद अराजकता और अशासन की स्थिति पैदा हो जायेगी. छुटभैये और अराजक तत्व सत्ता में आयेंगे. इतना ही नहीं, चर्चिल ने यह भी कहा था कि भारतीय शासन करने की योग्यता-क्षमता नहीं रखते. चर्चिल ने ही भविष्यवाणी भी की थी कि भारत मध्ययुगीन बर्बरता और अशासन की स्थिति में लौट जायेगा.

इससे भी पहले 1891 (नवंबर) में रूडयार्ड किपलिंग ने भारत के बारे में टिप्पणी की थी, भारतीय जरूर 4000 वर्ष पुराने हैं, पर उन्हें बहुत कुछ सीखना है. कानून-व्यवस्था चलाना भी.एक अंगरेज क्रिकेटर ने टिप्पणी की, भारतीय नेता शासन चलाने में या स्टेट्समैन बनने में अभी भी शिशु हैं और इनके कथित नेता अत्यंत खराब.

ऐसे अनेक अंग्रेज थे, जिनकी ऐसी टिप्पणियों को तब भारत ने ‘फ्रस्टेटेड स्टेटमेंट्स’ (निराशा के बयान) कहा. पर आज भारत के समझदार नेता और चिंतक बार-बार यह बता रहे हैं कि हम कहां जा रहे हैं? यह हाल महाभारत में वेद व्यास का एक प्रसंग याद दिलाता है. उन्होंने एक जगह कहा है कि हाथ उठा-उठा कर, चीख-चीख कर कह रहा हूं कि हम महाविनाश की ओर जा रहे हैं, पर कोई सुनता नहीं.

सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट की गंभीर टिप्पणियों को हमारे शासक, कार्यपालिका या विधायिका भले ही खारिज कर दें. अहंकार में इन पर गौर न करें, पर भारत किधर जा रहा है. यह तो अब अंधे को भी दिखाई देने लगा है.

लगातार आतंकवादी हमले और एक भी गिरफ्तारी नहीं? इंडिया टुडे (11 अगस्त 2008) ने भारत की अशासित स्थिति, अराजक या रुग्ण कार्यसंस्कृति को फोकस करते हुए यह अंक निकाला है, ‘इंपोटेंट इंडिया’ (नपुंसक भारत).

भारत की इस स्थिति पर, भारत के अध्येता और विद्वान क्या कहते हैं? प्रो आशीष नंदी ने एक जगह टिप्पणी की है. भारत में अराजकता और स्थायित्व के बीच चुनाव नहीं है, बल्कि मैनेजेबुल और अनमैनेजेबुल अराजकता के बीच, मानवीय और अमानवीय अव्यवस्था के बीच, सहनीय और असहनीय उपद्रव के बीच चुनाव करना है.

जाने माने राजनीतिक टीकाकार प्रताप भानु मेहता ने कहा है, भ्रष्टाचार, सामान्य योग्यता, अनुशासनहीनता, घूसखोरी और अनैतिक होना भारतीय राजनीतिक वर्ग की पहचान है. भारतीय राज (स्टेट पावर) की क्या स्थिति है? इस पर प्रताप भानु मेहता कहते हैं, कानून और अपराध, व्यवस्था और अव्यवस्था, स्टेट और अपराध के बीच दूरी मिटती गयी है.

ऐसी अनेक तीखी टिप्पणियां, भारत के अनेक समझदार लोगों ने की है. पुराने गांधीवादी नेताओं ने भी देश में नैतिक पतन होते देख अनेक गंभीर चीजें कहीं हैं. खुद डॉ आंबेडकर ने, नेताओं के चाल-चलन, उग्र बयानों को देख कर, भारत के भविष्य पर गंभीर टिप्पणी की.

इन सारी स्थितियों के बीच लगता है कि न्यायपालिका की गंभीर टिप्पणियां, महर्षि व्यास की चेतावनी की तरह है. अनुसनी. पर सब देख रहे हैं, हम कहां जा रहे हैं?

यह स्थिति कैसे बनी? क्या इसमें सुधार संभव है?दरअसल आजादी के बाद भारत चला तो सही राह पर. पुरानी पीढ़ी के आइएएस अफसर वीबी लालजी (जो अवकाश ग्रहण कर चुके हैं) ने एक प्रसंग सुनाया. 1966 के आसपास आइएएस अफसरों का नया बैच प्रशिक्षण ग्रहण कर रहा था. मंसूरी में. आइसीएस पिंपुटकर, मंसूरी आइएएस अकादमी के डाइरेक्टर थे. भारत दर्शन पर अनेक बैच अलग-अलग निकले. एक बैच घूमघाम कर मध्य भारत पहुंचा. नागपुर. इस बैच में गोवा के एक युवा प्रशिक्षार्थी थे. गवेरा आइएएस. शरारत में गवेरा ने तीन युवा आइएएस साथियों के पिता के नाम टेलिग्राम भेजा.

लिखा, आपके पुत्र नहीं रहे. आकर शव ले जायें. कोहराम मचा. अंतत: पता चला, सब झूठ है. डाइरेक्टर पिंपुटकर खुद नागपुर पहुंचे. सब पता कर लिया. जांच में फिर एक-एक आइएएस प्रशिक्षणार्थी से भी पूछा. अंतत: प्रमाणित हो गया कि यह गवेरा की शरारत है. फिर गवेरा को बुला कर पूछताछ की. गलती स्वीकारने का मौका दिया. पर गवेरा इनकार करते रहे. कुछ दिनों बाद मसूरी में फिर ‘सेल्फ कंफेशन’ का मौका दिया. गवेरा नहीं माने. उन्हें अकाट्य सबूत दिखाया गया. वह निरुत्तर हो गये. दो घंटे के अंदर उन्हें मसूरी आइएएस अकादमी छोड़ना पड़ा. यह अनुशासन और चरित्र ही शासन करता है. और पिंपुटकर कौन थे?

महाराष्ट्र के एक सामान्य परिवार के आइसीएस. कहीं कलक्टर थे. उनकी पत्नी कार चला रही थी. कहीं मामूली टक्कर हुई. खुद चालान किया. दरअसल इस चरित्र, स्वअनुशासन, ईमानदारी और प्रतिबद्धता से शासन चलता है. इन तत्वों से राज का प्रताप और इकबाल बनता है. जब पिंपुटकर जैसे लोग कमांड में होंगे, तो उनके प्रशिक्षण में जो अफसर निकलेंगे, उनमें बेहतर और स्वच्छ शासन का माद्दा होगा. इसलिए पुरानी पीढ़ी के आइएएस को देखें. अधिकतर पर आप फख्र करेंगे.

इस अराजकता के बीच भी बिहार में हो रहे काम उम्मीद पैदा करते हैं. इस माहौल में डीएन गौतम को पुलिस महानिदेशक बनाना, असाधारण साहस है. गौतम जी, पिंपुटकर की श्रेणी के अफसर हैं. 1980 के आसपास ‘धर्मयुग’ की रिपोर्टिंग के लिए मुंबई से यूपी-बिहार आया था. पत्रकारिता के आरंभ के दिन थे. जगजीवन बाबू के क्षेत्र सासाराम भी गया. वहां पहली बार डीएन गौतम का नाम सुना. गरीबों से और सामान्य लोगों से.

आदर और आस्था से. संभवतया गिरीश मिश्रा, जिला कांग्रेस अध्यक्ष होते थे. अपराध के लिए मशहूर रहा है, रोहतास. लोगों से सुना, एसपी (गौतम जी) ने अपराध को प्रोत्साहित करने और संरक्षण देने के आरोप में पहले जिन सफेदपोश लोगों पर हाथ डाला, उनमें गिरीश मिश्रा भी थे. हंगामा हो गया पटना में. छपरा में भी उल्लेखनीय काम किया. भ्रष्ट सत्ताधीशों को नहीं छोड़ा. तब डॉ जगन्नाथ मिश्रा की सरकार ने उन्हें प्रताड़ित किया. मुंगेर में भी गौतम जी ने अपने ढंग से काम किया. मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे को नहीं सुहाये. इसके बाद आठवें और नौवें दशक में हर सरकार ने गौतम जी को महत्वहीन बनाने की कोशिश की.

ऐसे साफ-सुधरे और प्रतिबद्ध अफसर को कमान सौंपने से ही कानून का राज चलेगा. भारत की हर समस्या की जड़ है, कानून का राज न होना. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने इस कदम से भी साख अर्जित की है. पूरे समाज और देश को साफ संकेत भी दिया है ऐसे अफसरों को आगे लाकर. वह बिहार को किस रास्ते ले जाना चाहते हैं. आज जो राजनीतिक माहौल है, उसमें गौतम जी जैसे लोग, सत्ता से दूर रखे जाते हैं. खुद जनता दल (यू) के काफी लोग नीतीश सरकार के इस कदम से नाखुश होंगे. अंदर-अंदर उबल रहे होंगे. पर स्टेट्समैन वह नेता होता है, जो जनता का मूड देख कर नहीं, परिस्थितियां देख कर फैसला करता है. अपराधी राजनेता जेलों में सजा भुगत रहे हैं और एक ईमानदार इंसान, डीजीपी बन रहा है, यह संकेत है कि मुख्यमंत्री बिहार को कहां और किधर ले जाना चाहते हैं.

ईमानदार अफसरों का इकबाल कैसे बोलता है?झारखंड की घटना है. 2005 के आसपास की. पूर्व मंत्री माधवलाल सिंह ने सुनाया. रामगढ़ के एक सज्जन गलत धंधा करते थे. कोयला माफिया के रूप में पहचान थी. डीआइजी अनिल पालटा थे. उक्त माफिया सज्जन को पुलिस के एक इंस्पेक्टर ने रात में पकड़ा. पुराना गंभीर मामला था. वारंट भी. पहले तो इंस्पेक्टर को बड़े-बड़े प्रलोभन दिये गये. इंस्पेक्टर ने कहा, पालटा जी मेरी वरदी उतरवा देंगे. मैं कोई मदद नहीं कर सकता. गिरफ्तार सज्जन, तत्कालीन सरकार के अति ताकतवर मंत्री के रिश्तेदार होते थे. डीआइजी पालटा भी उनके मातहत थे. पर मंत्री महोदय को साहस नहीं हुआ कि वे पालटा को फोन करें. तत्कालीन मुख्यमंत्री के यहां मंत्री का फोन गया. मुख्यमंत्री ने सीधे बात नहीं की. अपने एक सहायक को कहा. सहायक ने पालटा को फोन किया. डीआइजी पालटा ने कहा, सीएम क्या चाहते हैं? हजारों माताएं-बहनें विधवा बनती रहें? अवैध कोयला खान में जानें जाती रहें? गलत धंधा होता रहे? अगर हां, तो मुझे सीधे निर्देश दें, मैं छोड़ दूंगा. फिर पालटा जी के यहां फोन नहीं गया. और वह माफिया सज्जन जेल गये.

यह चरित्र चाहिए अफसरों का. पर हमारे शासक कैसे अफसर चाहते हैं? चारण, चापलूस और भ्रष्ट. ऐसे ही अफसर, मंत्रियों की मुरादें पूरी करते हैं. यह असल संकट है. भारत का. ईमानदार अफसर महत्वहीन जगहों पर. चारण-चापलूस ड्राइविंग सीट पर. झारखंड का ताजा उदाहरण है. एक सज्जन जो महीने भर के अंदर रिटायर हो रहे हैं, उन्हें प्रोन्नत कर कमिश्नर बनाया गया. दो-दो जिलों का प्रभार दिया गया. यह बेशर्मी शायद ही कहीं मिले? एक-एक भ्रष्ट अफसर के पास कई-कई पद. पर कार्यकुशल शिवेंदु और मृदुला सिन्हा पोस्टिंग के लिए भटकें या महत्वहीन पदों पर रहें? झारखंड ने एक और परंपरा विकसित की है. विवशता में ईमानदार अफसर को कहीं-कहीं महत्वपूर्ण पद दे दो. पर हाथ-पांव बांध दो. मसलन झारखंड के डीजीपी या मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव. क्या ये लोग अपनी इच्छा से आज टीम बना सकते हैं? ट्रांसफर-पोस्टिंग कर सकते हैं? महत्वपूर्ण फैसले ले सकते हैं?

तो कैसे सुशासन होगा? या भ्रष्टाचार मिटेगा? सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट के फैसलों में भी अब निराशा ध्वनित होती है. क्योंकि राजनीति ने, शासन ने इस हद तक चीजों को तहस-नहस कर दिया है कि पुनर्निर्माण असंभव दिखता है? इसलिए अदालत भी ईश्वर का उल्लेख कर रही हैं. चीजें इतनी खराब हो गयी हैं कि सर्वोच्च अदालत की नजर में ईश्वर भी अवतार लेकर ठीक नहीं कर सकते.

ऐसी स्थिति में एक सामान्य नागरिक की क्या प्रार्थना हो सकती है, गीता की पंक्तियां ही न! .. यदा, यदाहि धर्मस्य, ग्लानिर भवति भारत….. अब इससे अधिक क्या पतन, अराजकता और कुशासन होगा? जिस न्यायपालिका के न्याय पर अंतिम भरोसा है, वह भी लाचार दीख रहा है. तो हे, ईश्वर अब तो आप अवतार लें?

10-08-2008

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