जर्मनी के भारत में प्रतिनिधि झारखंड के मुख्यमंत्री से मिलने के लिए दो माह पहले पत्र लिखते हैं, कोई जवाब नहीं देता. फोन करते हैं, फोन काट दिया जाता. इसी झारखंड में 15 सीनियर अधिकारियों को मुख्यालय में बिना काम के बैठाये रखा जाता. पोस्टिंग नहीं होती. कोयले की चोरी रोकने के लिए एनटीपीसी के चेयरमैन को मुख्यमंत्री को पत्र लिखना पड़ता है. नक्सलियों के आतंक के कारण रांची-चाईबासा सड़क की मरम्मत नहीं हो पाती, कोई टेंडर नहीं डाल पाता. झारखंड में यही कार्य-संस्कृति है. यही है हालात और सरकार है चुप.
नहीं बना सकी 50 किमी सड़क
सरकारी तंत्र बंदगांव-चक्रधरपुर रोड (चाइबासा रोड, एनएच-75 एक्सटेंशन) बनवाने में फेल हो गये हैं. नक्सलियों के खौफ के कारण सरकार चाईबासा घाटी के पहले से करीब 50 किमी आगे तक (घाटी क्षेत्र) सड़क नहीं बनवा पा रही. इस पर 11 पुल अधूरे हैं. इन्हें आधा भी नहीं बनवाया जा सका है. कहीं-कहीं, तो सिर्फ गड्ढे खोदने तक का ही काम हुआ है.
सड़क की स्थिति ऐसी है कि वाहन तो क्या पैदल चलना भी मुश्किल है. हर सौ कदम पर गड्ढे हैं. गाड़ियों को हर मिनट ब्रेक लगानी पड़ रही है. इन अधूरे पुलों में जिस छड़ का प्रयोग किया गया था, उनमें जंग लग गयी है. कई जगहों पर छड़ों को चोर काट कर ले गये हैं. फिलहाल इन अधूरे पुलों के बगल से संकीर्ण रास्ते से होकर गाड़ियों को आना-जाना पड़ रहा है. बड़ी गाड़ियों का यहां से गुजरना काफी खतरनाक है. फिलहाल तंत्र सड़क व पुल की हालत पर मूकदर्शक बना हुआ है.
क्यों हुई है यह स्थिति|
सड़क अब तक क्यों नहीं बन पा रही है, कोई अधिकारी स्पष्ट बयान देने को तैयार नहीं है. कुछ अधिकारी नक्सलियों का भय, तो कुछ इनवायरमेंटल क्लीयरेंस नहीं मिलने की बात कहते हैं. इस सड़क को पथ निर्माण विभाग के एनएच विंग की ओर से बनवाया जाना था. करीब दो साल पहले मेसर्स पाटील कंस्ट्रक्शन को काम दिया गया था. कंपनी ने काफी काम किया. पर घाटी में काम लटके रह गये. काम में काफी विलंब होने पर विभाग ने उसके खिलाफ कार्रवाई करते हुए उसे टर्मिनेट कर दिया. यह मामला बरसात के पहले का है. बरसात के पहले से पुल व सड़क का काम बंद है.
सीएम से मिलने को फोन करते रहे
रांची: जर्मनी के कांसुलेट जनरल रेनर स्किमेडचेन को झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलने में दो माह लग गये. पिछले साल नवंबर को वह सीएम से मिलने का प्रयास कर रहे थे. इसके लिए मुख्यमंत्री सचिवालय को पत्र लिखा था. कई बार मुख्यमंत्री सचिवालय को फोन भी किया था. आखिर 20 जनवरी को वह रांची पहुंचे. दो दिन के इंतजार के बाद वह बुधवार को मुख्यमंत्री से मिल पाये.
पहली बार 2012 में आये थे : जर्मनी के कांसुलेट जनरल कोलकाता में बैठते हैं. उनका कहना है कि झारखंड में वह पहली बार 2012 में आये थे. उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा से मुलाकात हुई थी.
यहां पर झामुमो के नेतृत्व में गंठबंधन की सरकार बनने के बाद उन्हें राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलने का आदेश मिला था. नवंबर के बाद उन्होंने कई बार मुख्यमंत्री सचिवालय के नंबर पर फोन भी किया. फोन उठानेवाला व्यक्ति कभी कहता कि मुख्यमंत्री अभी नहीं हैं, तो कभी कहता कि मुख्यमंत्री कार्य में व्यस्त हैं. कई बार बिना कुछ कहे ही फोन काट दिया जाता था.
काफी मर्माहत हुआ
जर्मनी के कांसुलेट जनरल बताते हैं : इससे काफी मर्माहत हुआ. मन में खीझ उठती थी कि आखिर ऐसा क्या है कि झारखंड के सीएम मुझसे नहीं मिलना चाहते हैं. वहीं इस बात पर भी संतोष था कि मेरी अंगरेजी अथवा हिंदी उतनी अच्छी नहीं है, जिसे सीएम सचिवालय के लोग नहीं समझ पा रहे हों. जर्मन अधिकारी की पत्नी हिंदी, संस्कृत, जर्मन, अंगरेजी और अन्य भाषा में पारंगत है. खुद जर्मन अधिकारी भी कामचलाऊ हिंदी बोल लेते हैं और समझ लेते हैं.
जर्मन कांसुलेट को 22 जनवरी को 3.30 बजे का समय दिया गया था. इसी समय वह मुख्यमंत्री से मिले भी. समय न देने की बात गलत है.
– सुनील कुमार श्रीवास्तव, मुख्यमंत्री के वरीय आप्त सचिव