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उरांव समाज में स्वशासी व्यवस्था

उरांव समाज में स्वशासी व्यवस्था के अंतर्गत पड़हा संस्था का गठन किया गया है, जो प्राचीन काल से ही पुरखों के द्वारा बनाई गई संस्था है. उरांव समाज की इस स्वशासन पद्धति के अंतर्गत तीन स्तरीय व्यवस्था की गयी है

By Prabhat Khabar News Desk | June 3, 2022 12:32 PM

डॉ रवींद्रनाथ भगत

झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है. इस राज्य का गठन आदिवासियों के हितों की रक्षा एवं उनके सर्वांगीण विकास के उद्देश्य से किया गया है. झारखंड में मुख्य रूप से उरांव, मुंडा, संथाल, हो खड़िया जैसी प्रमुख जनजातियों के साथ कई आदिम जनजातियां निवास करती हैं. इन जनजातियों के बीच विभिन्न प्रकार की पारंपरिक स्वशासन पद्धतियां प्रचलित हैं. अलग-अलग नामों से जैसे पड़हा, मानकी मुंडा, परगनैत एवं ढोकलो सोहोर जैसी संस्थाएं स्थापित हैं, जो पुरखों के द्वारा बनायी गयी व्यवस्था पर आधारित है एवं समाज के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

इन स्थापित संस्थाओं के द्वारा सभी प्रकार के प्रशासनिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं फौजदारी मामलों में न्यायपालिका की भूमिका निभायी जाती हैं. इसमें सभी निर्णय सामूहिक साझेदारी के आधार पर लोकतांत्रिक तरीके से गांवों के किसी सार्वजनिक स्थान अखड़ा या बागीचे में बैठक आयोजित कर लिए जाते हैं. समाज का का हरेक व्यक्ति इन निर्णयों को सहर्ष स्वीकार कर इनका सम्मान करते हुए इस का अनुपालन करता है. उरांव समाज में स्वशासी व्यवस्था के अंतर्गत पड़हा संस्था का गठन किया गया है, जो प्राचीन काल से ही पुरखों के द्वारा बनाई गई संस्था है. उरांव समाज की इस स्वशासन पद्धति के अंतर्गत तीन स्तरीय व्यवस्था की गयी है

ग्राम स्तरीय: इसमें महतो पाहन पुजार एवं पनभरा जैसे पदाधिकारियों का चयन किया जाता है. सभी पदाधिकारियों के बीच गांव से संबंधित विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियां बंटी होती हैं, जैसे महतो प्रशासनिक मुखिया होता है और बैठकों की अध्यक्षता करता है. पाहन सभी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों को संपादित करता है और इनमें पुजार एवं पनभरा उसकी मदद करते हैं.

पड़हा स्तरीय: इसमें कई गांवों के समूह को मिला कर एक पड़हा का गठन किया जाता है और इनमें शामिल गांवों की संख्या के आधार पर उसकी पहचान निर्धारित होती है. जैसे 5 पड़हा,10 पड़हा, 12 पड़हा इत्यादि. अलग अलग गांवों के बीच अनेक प्रकार की जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं, जैसे राजा, दीवान, कोटवार इत्यादि. राजा गांव से वहां के भूइंहर का चुनाव राजा के रूप में किया जाता है. उसी प्रकार दीवान गांव राजा के सहयोग के लिए मंत्री की भूमिका निभाता है. उदाहरणस्वरूप जरिया कटरमाली 10 पड़हा है, जिसमें विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियां निम्नांकित तरीके से बांटी गयी हैं : ़

कटरमाली – राजा, सहेजा – रानी, टेंगरिया – दीवान, जरिया – ठाकुर, हुलसी – सिपाही, मासू – लाल, मुड़ामू – खवास, डोला – फूल सोसारी, काला ताबेर – चिलम लदवा, खुर्द ताबेर -जूता ढोने वाला

अंतर पड़हा स्तरीय: इस व्यवस्था के अंतर्गत सभी पड़हा मिल कर एक वृहद ईकाई का निर्माण करते हैं, जिसमें आसपास के सभी पड़हा समूह शामिल होते हैं. ग्राम स्तरीय मामले अपने गांव में महतो पाहन द्वारा गांव के लोगों के बीच बैठक आयोजित कर निपटाये जाते हैं. एक पड़हा के दो या तीन गांवों के बीच हुए विवादों का निपटारा उस पड़हा में शामिल सभी गांवों की बैठक आयोजित कर किये जाते हैं. इस प्रकार दो या दो से अधिक पड़हा के बीच हुए अंतर पड़हा के मामले सभी पड़हा समूह को मिला कर निपटाए जाते हैं. इसके लिए हर वर्ष तीन दिवसीय बिसू शिकार का आयोजन किया जाता है जो अलग अलग क्षेत्रों में जंगल के बीच आयोजित किये जाते हैं, जिसमें सभी पड़हा गांवों के सभी पुरुषों की सहभागिता होती है.

उल्लेखनीय है कि अंग्रेजी शासन काल में भी इस व्यवस्था को कानूनी मान्यता दी गयी थी और पड़हा की बैठकों में लिए गए निर्णयों को लागू कराया जाता था. अंग्रेजी हुकूमत ने सभी गांवों में पड़हा के सफल संचालन के लिए विभिन्न पदधारियों के नाम पर लगानमुक्त भूमि चिह्नित किया था. इसकी उपज से सभी पदधारी कार्यक्रमों में होने वाले खर्च की व्यवस्था करते थे. इस प्रकार की भूमि को भूइंहरी जमीन के रूप में जाना जाता है, जिसकी खरीद बिक्री पर पूरी तरह से प्रतिबंध है.

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