50 हजार से रह गये मात्र छह हजार कोल कटर
बेरमो : श्रम की कठोरता से बचने की चाहत और उत्पादन बढ़ाने के लोभ में लायी गयीं मशीनें अंतत: आदमी को ही निगलने लगीं. कोल इंडिया में श्रमिकों की गिरती संख्या इसका किस्सा बयां करती है. कोयला उद्योग की रीढ़ माने जानेवाले कोल कटर पर इस मशीनीकरण का सर्वाधिक असर पड़ा. राष्ट्रीयकरण के समय 50 […]
बेरमो : श्रम की कठोरता से बचने की चाहत और उत्पादन बढ़ाने के लोभ में लायी गयीं मशीनें अंतत: आदमी को ही निगलने लगीं. कोल इंडिया में श्रमिकों की गिरती संख्या इसका किस्सा बयां करती है. कोयला उद्योग की रीढ़ माने जानेवाले कोल कटर पर इस मशीनीकरण का सर्वाधिक असर पड़ा. राष्ट्रीयकरण के समय 50 हजार रहनेवाले कोल कटर आज पांच से छह हजार रह गये हैं.
कोलकटरों में अधिकांशत: ओड़िशा, बिलासपुर, चापा, छत्तीसगढ़, गोरखपुर, आजमगढ़, जौनपुर आदि स्थानों के मजदूर थे. ये मजदूर अधिकांशत: भूमिगत खदानों में ही कार्यरत थे. यूजी माइंस में कोयला काटने के बाद उसे टब में लोड करना तथा ओसी माइंस में ट्रकों में कोयला लोड किया करते थे. इसे रेलवे साइडिंग से बाहर भेजा जाता था. उस वक्त कोलकटरों को पीआर (पीस रेटेड) मजदूर कहा जाता था. ये पीआर मजदूर छह ग्रुपों (ग्रुप (1,2,3,4,5,6) में बांटे थे. इनमें कोल वाशरी में मलबा उठाने वालों को ग्रुप तीन, वैगन व ट्रक लोडर को ग्रुप चार, भूमिगत खदान के कोल कटर को ग्रुप पांच का मजदूर कहा जाता है.
40.5 सीएफटी कटिंग के बाद ही मजदूरी : भूमिगत खदान में काम करने वाले एक पीआर मजदूर को एक दिन में कम से कम 40.5 सीएफटी तथा ओपेन कास्ट माइंस में काम करने वाले मजदूरों को 65 सीएफटी वर्क लोड हुआ करता था. इतना वर्क लोड होने से ही कोलकटरों को पैसा मिलता था. फांकी मारने का कोई सवाल ही नहीं. किसी कारणवश बिजली नहीं रही या फिर कोई प्राकृतिक कारण रहा तभी उन्हें फॉल बैक मिलता था. उस दौर में कोल इंडिया में सिर्फ भूमिगत खदानें करीब साढ़े चार सौ हुआ करती थीं.
अभी भी काफी खदानें हैं, पर अधिकांशत: प्रबंधन के लिए घाटे का सौदा साबित हो रही हैं. इस दौरान कुछ नयी खदानें खुलीं तो कुछ यूडी माइंस बंद भी हुई हैं. हाल में ही कोल इंडिया प्रबंधन ने कोल इंडिया की कुल 37 खदानों को बंद करने का निर्णय लिया. इसमें कई खदानें बंद भी कर दी गयीं.
90 के दशक से बदल रही तसवीर : कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद कोल इंडिया की भूमिगत खदानों को केंद्र सरकार ने बजटरी सपोर्ट देना शुरू किया. वर्ष 1990 तक यह क्रम जारी रहा. वर्ष 1991 में केंद्र की नरसिंहा राव सरकार के आर्थिक सुधार के बाद यूजी खदानों का बजटरी सपोर्ट बंद कर दिया गया. समय के साथ कोयला उद्योग में भी काफी बदलाव हुआ. फिलहाल अधिकांश भूमिगत खदानें लोडर लेस बना दी गयी है. अब मशीन से उत्पादन हो रहा है. भूमिगत खदानों में एलएचडी (लोड होल डंप) तथा एसडीएल (साइड डंप लोडर) आदि बड़ी-बड़ी मशीनें लगा दी गयी हैं. इन मशीनों को बचे हुए पीआर मजदूर ऑपरेट कर रहे हैं.
नौवें-दसवें राष्ट्रीय सुरक्षा सम्मेलन में कोल इंडिया की सभी भूमिगत खदानों को लोडर लेस करने की सहमति बनी थी. इसके बाद जिन भूमिगत खदानों में ग्रेडिएंट ठीक मिला वहां एलएचडी व एसडीएल मशीन लगा दी गयी. कोल इंडिया की इकाई इसीएल, डब्ल्यूसीएल, एमसीएल, बीसीसीएल व एसइसीएल में अभी भी काफी भूमिगत खदानों से कोल प्रोडक्शन हो रहा है.
1945 में था मात्र 30 एमटी उत्पादन : वर्ष 1945 के आसपास देश में मात्र 30 मिलियन टन कोयले का उत्पादन होता था. राष्ट्रीयकरण के वक्त 1972 में उत्पादन बढ़कर 72 एमटी हो गया. इसके बाद 1979 में 89 मिलियन टन, 1992 में 200 मिलियन टन, 2001 में 345 मिलियन टन, 2011 में 526 मिलियन टन तथा 2017-18 में 567.37 मिलियन टन उत्पादन हुआ. राष्ट्रीकरण के वक्त तक कोल इंडिया के कोल कटर अपने दमखम से 72 एमटी तक उत्पादन करते थे. फिलहाल मशीनीकरण व आउटसोर्स ने तस्वीर बदल डाली.