हिंदी सिनेमा की प्रारंभिक पाश्र्व गायिकाओं में एक महत्वपूर्ण नाम रहा है शमशाद बेगम का. अपनी आवाज से कई गीतों को सदाबहार नगमों में शुमार करवानेवाली यह गायिका अब हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन उनके गाये गीत आज भी उतने मकबूल हैं, जितने कल थे. इन गीतों की लोकप्रियता जाहिर करती है कि इनसे हमेशा सिनेमाई संगीत गुलजार रहेगा.
शायद इसीलिए प्रसिद्ध संगीतकार ओपी नय्यर ने उनकी आवाज की तुलना मंदिर की घंटी की पवित्रता से की थी. शमशाद के साथ काम कर चुके लोगों के जेहन में वह एक बेहतरीन गायिका के साथ, एक खुशमिजाज, मिलनसार और जिंदादिल शख्सीयत के तौर जिंदा हैं. पद्मभूषण से सम्मानित शमशाद बेगम की गायिकी और व्यक्तित्व को याद करते हुए एक श्रद्धांजलि..
शमशाद बेगम
14 अप्रैल 1919-23 अप्रैल 2013
‘मैं रहूं न रहूं, मेरी आवाज हमेशा जिंदा रहेगी’
– उर्मिला कोरी –
आज से कुछ सालों पहले मुंबई के हीरानंदानी स्थित उनके घर पर मुझे उनसे मिलने का मौका मिला था. उनके घर पर पहुंचने से पहले मेरे जेहन में उनके व्यक्तित्व की एक संजीदा छवि थी, लेकिन जब वह व्हीलचेयर से कमरे में दाखिल हुईं, तो उनकी बच्चों की तरह खिलखिलाती मुस्कुराहट से एक अलग ही छवि जेहन में बस गयी. मुझे देख कर उनकी जो पहली प्रतिक्रिया थी,‘अरे आप तो अभी बच्ची हो.
खुशकिस्मत हो, जो आज के दौर में हो, वरना हमारे जमाने में बहुत पाबंदिया थीं. अच्छा लगता है जब लड़कियों को उनके मन का करते देखती हूं.’ शमशाद जी से मिले अभी बस दो मिनट ही हुए थे, लेकिन ऐसा लग रहा था मानो हम एक-दूसरे को बरसों से जानते हों. उन्होंने तहे दिल से न सिर्फ मेरा स्वागत किया, बल्कि किसी अभिभावक की तरह ही फिल्मों से इतर दुनिया के बारे में बातचीत की.
शमशाद जी की मशहूर गायिका की जगजाहिर छवि से आगे उनके व्यक्तित्व के और भी कई पहलू थे, जो उनसे मिल कर ही आप जान सकते थे. वे खुशमिजाज, नये लोगों की तारीफ करनेवाली महिला थीं. वे लोगों की हौंसलाअफजाई करने में विश्वास रखती थीं और जिंदगी से वे बेहद संतुष्ट थीं.
यही वे तत्व थे, जो उन्हें औरों से जुदा करते थे. बिना शिकवा- शिकायत के उन्होंने एक बेहतरीन जिंदगी जी. आज शमशाद बेगम नहीं हैं. लेकिन उनकी गायिकी और उनका खुशमिजाज चेहरा हमेशा जेहन में जिंदा रहेगा. उस मुलाकात में उन्होंने अपनी जिंदगी की कई बातें मुझसे साझा की थीं. शमशाद बेगम से हुई उस बातचीत के मुख्य अंश उन्हीं के शब्दों में.
और मैंने गुलाम हैदर का दिल जीत लिया
महज 12 साल की उम्र में जेनोफोन कंपनी से मैंने अपने कैरियर की शुरुआत की थी. मेरे चाचाजी मेरे प्रेरणास्त्रोत थे. उन्हें गाने का शौक था. उनसे ही यह गुण मुझमें आ गया था. मेरे चाचाजी को मेरी आवाज बहुत पसंद थी, इसलिए जेनोफोन (लाहौर) द्वारा आयोजित प्रतिस्पर्धा में वे मुझे ले गये,जहां मैंने बिना किसी संगीत के एक मुखड़ा गाकर संगीतकार उस्ताद गुलाम हैदर का मन जीत लिया.
मैं विजेता चुनी गयी और जेनोफोन कंपनी के साथ 12 गानों का कॉट्रैक्ट मिला. एक गाने के लिए उस वक्त बारह रुपये मिलते थे. इससे पहले मेरी विधिवत ट्रेनिंग नहीं हुई थी, लेकिन उस्ताद गुलाम हैदर ने मुझे संगीत की औपचारिक शिक्षा दी.
वही मेरे पहले और आखिरी गुरु थे. उस वक्त धार्मिक कट्टरता भी काफी हावी थी. मुझे याद है जेनोफोन कंपनी ने एक आरती‘जय जगदीश’ रिकॉर्ड करवायी थी, मगर धर्मिक कट्टरता की आशंका के डर से मेरी जगह उमा देवी का नाम दिया गया था.
रेडियो ने रखा मेरी गायिकी को जिंदा
जेनोफोन कंपनी में तो मैं गाने लगी थी, लेकिन हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में मेरे लिए बतौर गायिका शुरुआत करना आसान नहीं था. अम्मी गुलाम ए फातिमा जितनी नर्म मिजाज की थी, अब्बा हुसैन बख्श उतने ही सख्त मिजाज थे. महिलाएं उस वक्त परदे में रहती थीं. उन दिनों प्लेबैक का जमाना नहीं था.
अभिनेत्रियां अभिनय के साथ -साथ परदे पर गाती भी थीं. इसलिए लाहौर के पंचोली स्टूडियो ने मेरी आवाज सुनकर पहले मुझे स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाया था. आपको विश्वास नहीं होगा, मैं चुन ली गयी. स्क्रीन टेस्ट तो मैं अब्बाजान से छिपकर देने गयी थी, लेकिन जैसे ही शूटिंग की बात आयी, अब्बा से इजाजत लेना जरूरी हो गया था.
जैसे ही अभिनय के लिए मैंने उनसे बात की, उन्होंने फरमान सुना दिया कि अगर मैंने अभिनय के लिए जिद की, तो वे मेरा गाना भी बंद करवा देंगे. मेरे सपने चूर-चूर हो गए. मैंने ऑल इंडिया में रेडियो प्रोग्राम कर अपने अंदर की गायिका को जिंदा रखा था.
लेकिन अल्लाह को मुझ पर तरस आ गया और दो साल बाद प्लेबैक सिगिंग का दौर शुरु हो गया. एक बार फिर पंचोली स्टूडियो ने मुझे बुलाया और बतौर गायिका अपनी फिल्म ‘खजांची’ में मुझे ब्रेक दिया. इस तरह से मुझे मेरी पहली फिल्म मिल गयी.
जब मैं नरगिस की आवाज बनी
‘खजांची’ फिल्म के गीत सभी को इतने पसंद आए कि पाकिस्तान से हिंदुस्तान तक सभी मेरे प्रशंसक बन गए. इन्हीं में से एक फिल्मकार महबूब खान भी थे. मुझे मुंबई लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. वे मुझसे मिलने लाहौर आये और मेरे अब्बा को मनाया. अब्बा मान गए, लेकिन उन्होंने एक शर्त्त रखी कि मुंबई जाने के बाद भी मैं परदा करूंगी और अभिनय में कभी नहीं आऊंगी.
मैंने हां कर दी और मैं मुंबई आ गयी. महबूब खान की फिल्म ‘तकदीर’ में मैं नरगिस दत्त की आवाज बनी थी. इसके बाद सी रामचंद्रन,पंडित गोविंद, अनिल विश्वास जैसे संगीतकारों की जैसे लाइन लग गयी. एक के बाद एक सुपरहिट गीत आये और मैं मुंबई की होकर रह गयी.
लेकिन अपने अब्बा से किया वादा हमेशा निभाया. अपने कैरियर में मैंने हमेशा खुद को लाइम लाइट से दूर रखा. मेरी गिनी चुनी तस्वीरे ही होंगी. मैं सिर्फ गाना गाती, फिर घर आ जाती थी. यही वजह है कि इंडस्ट्री में मेरा कभी कोई दोस्त नहीं था.
गुटबाजी बढ़ गयी, तो मैंने इंडस्ट्री छोड़ दी
शुरुआत में नवोदित संगीतकार मेरे पास आकर कहते थे कि आप मेरी फिल्म में एक गाना गा दीजिए, लेकिन गाना हिट हो जाने के बाद वे मुझे पहचानते भी नहीं थे. मैं हमेशा से यही सोचती थी कि जो गीत मेरे लिए बना है, वह मुझे ही मिलेगा. नूरजहां, सुरैया, जोहराबाई अंबालेवाली, अमीरबाई कर्नाटकी, उमादेवी ये उस दौर में मेरी प्रतिद्वंद्वी थीं, जो गायकी के साथ-साथ अभिनय भी करती थीं.
लोग इन्हें आवाज और अभिनय दोनों से पहचानते थे, लेकिन मेरी आवाज ही काफी थी. लोगों ने मेरी आवाज को हमेशा ही पसंद किया और मुझे काम मिलता गया. मैंने कभी भी किसी संगीतकार से काम नहीं मांगा. यही वजह है कि जब इंडस्ट्री में ग्रुपिज्म (गुटबाजी) बढ़ गया, तो मैंने इंडस्ट्री छोड़ दी. मुझे खुशी थी कि जब मैंने इंडस्ट्री छोड़ी, उस वक्त मैं टॉप पर थी. फिल्म ‘किस्मत’ का ‘हाय मैं तेरे कुर्बान’ मेरा आखिरी गीत था, जो बहुत बडा हिट हुआ था. उस गीत के बाद मैंने कभी माइक नहीं पकड़ा.
रीमिक्स से मुझे परहेज नहीं
मौजूदा दौर में मुझे सोनू निगम की आवाज बहुत पसंद है. मुझे रिमिक्स गानों से कोई परहेज नहीं है. मेरे द्वारा गाये गए ‘सैंय्या दिल में आना रे’, ‘लेके पहला-पहला प्यार’ और ‘मेरे पिया गये रंगून’ जैसे गीतों के रीमिक्स वजर्न मैं चाव से सुनती हूं. मुझे खुशी है कि कम से कम रीमिक्स गानों की वजह से आज की पीढ़ी पुराने गानों से रूबरू है.
हमारे दौर में संगीत इबादत था
इस पीढ़ी की मुझे सिर्फ एक परेशानी नजर आती है, वह ये कि यह अपने बड़े-बुजुर्गो को उतना सम्मान नहीं देती, जितना हमारे वक्त में था. मुझे याद है, मैं मोहम्मद रफी के साथ फिल्म ‘रेल का डिब्बा’ का गीत ‘ला दे मुझे बालमा हरी हर चूड़ियां..’ गा रही थी. बिना सांस लिए गाना गाने की बात भले ही आज चर्चा में हो, लेकिन हमारे वक्त में भी हम ऐसे कई गीत गाते थे.
यह गीत भी कुछ ऐसा ही था, गाते हुए मोहम्मद रफी की सांस टूट जा रही थी, लेकिन मेरी नहीं टूट रही थी. फिर क्या था, रफी साहब ने आकर मेरे पैरों को छू लिया और कहा कि ‘आपा कैसे आप एक सांस में गा ले रही हैं.’ उस वक्त अपने से बड़ों का इस कदर सम्मान किया जाता था.
किशोर कुमार कोरस में वायलिन बजाता था. अक्सर गाने की रिकॉर्डिग के बाद मेरी कुरसी के पास आकर बैठ जाता और कहता कि मेरे भाई (अशोक कुमार) मुझसे कितने आगे हैं और मैं कहीं भी नहीं हूं, तब मैंने उससे कहा था कि वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब तू सबसे आगे निकल जाएगा. वाकई ऐसा ही हुआ. उसमें संगीत को लेकर जबरदस्त जुड़ाव था.
संगीत उस वक्त के लोगों के लिए सिर्फ व्यवसाय या आय का साधन नहीं था, बल्कि इबादत था. मुझे याद है राजकपूर को अपनी फिल्म ‘आवारा’ में मुझसे एक गाना गवाना था, लेकिन मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं था. क्योंकि उस वक्त एक बार में ही गाने की रिकॉर्डिग करनी पड़ती थी. इसलिए पहले ही मैं संगीतकार के साथ रियाज कर लेती थी, तब जाकर स्टूडियो में गाना गाती थी.
मगर राज साहब के लिए मेरे पास डेट्स ही नहीं थीं. मैंने उन्हें परेशानी बतायी और कहा कि अगर मैं मुश्किल से गाने के लिए एक दिन का समय निकाल लूंगी, लेकिन रिहर्सल के लिए समय कहां से लाऊं. तब राज जी ने मुझसे कहा कि आप उसके लिए परेशान न हों. शंकर-जयकिशन आपके घर आकर रिहर्सल करायेंगे. वाकई हर सुबह गाने की रिकॉर्डिग में जाने से पहले शंकर-जयकिशन और राज कपूर मेरे घर आकर रिहर्सल करवाते थे.
मुझे किसी से कोई शिकवा नहीं
मुझे किसी से कोई शिकवा नहीं है. फिल्म इंडस्ट्री ने मेरी कभी खबर नहीं ली. लेकिन मुझे किसी से शिकायत नहीं है. गायिकी मेरा जुनून है और मैंने उसे शिद्दत से जिया. इससे ज्यादा मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं थी. मुझे उस वक्त भी दुख नहीं हुआ था, जब अभिनेत्री सायरा बानो की दादी शमशाद बेगम के मरने पर सभी ने सोचा कि मैं नहीं रही. कई प्रतिष्ठित अखबार और चैनलों ने मेरी ही तसवीर दिखायी थी.
मेरी बेटी उषा ने कहा भी हमें इन पर केस करना चाहिए, लेकिन मैंने मना कर दिया. आखिरकार सच्चई सामने आ गयी. मैं एक बात जानती हूं कि मैं रहूं या न रहूं, लेकिन मेरी आवाज फिल्मों के माध्यम से हमेशा जिंदा रहेगी.
उस खनकदार आवाज का जादू..
– प्रीति सिंह परिहार –
हिंदी सिनेमा के शुरुआती दशकों में फिल्म गायकी में एक खनकदार आवाज हुआ करती थी. इस आवाज ने कई यादगार गीत दिये और संगीत प्रेमियों के जेहन में हमेशा के लिए दर्ज हो गयी. लेकिन इस आवाज की पहचान में लिपटी शख्सीयत शमशाद बेगम अरसे से गुमनाम खामोशी ओढ़े जी रही थीं.
इसी खामोशी के साथ उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. दुनिया से इस रुखसती से बहुत पहले से वह अपने आपको घर की चारदीवारी में समेटे हुए थीं. इस दौरान उनका जिक्र शायद ही कहीं था. आज जब वो नहीं हैं, उनके जाने की खबरें हैं. गुजर जाने के बाद याद करने का दस्तूर जो ठहरा.
इस हकीकत से बावस्ता शमशाद बेगम की सांसें बिना किसी शिकायत के चलते-चलते, थम गयीं. पीछे रह गये हैं उनके गाये सदाबहार गीत, जो कल भी उतनी ही शिद्दत से सुने जाते थे, आज भी उन्हें सुनने वालों की कमी नहीं. शमशाद बेगम का नाम हर उस शख्स की याद में जगह रखता है, जो संगीत से बाबस्ता रहा है.
ये अलग बात है कि शमशाद उन लोगों की यादों से दूर हो गयीं थीं, जिनकी सफलता का ताला खोलने की वह चाबी बनीं थीं. लंबे समय से वह मुंबई में ही, सिने जगत की चकाचौंध से दूर अपनी बेटी और दामाद के साथ गुमनाम जिंदगी बसर कर रही थीं. बीमार थीं. लेकिन उनकी फिक्र का कोई चरचा कभी उनके गीतों से आबाद रही फिल्मी दुनिया में नहीं सुनाई दिया.
चालीस से लेकर साठ के दशक तक अपनी अवाज से कई गीतों को सजाने वाली इस गायिका ने तकरीबन चार दशक पहले पाश्र्वगायन को अलविदा कह खुद को अपने घर-परिवार तक सीमित कर लिया था. शमशाद बेगम का अंतिम गीत 1968 में फिल्म ‘किस्मत’ के लिए आशा भोंसले के साथ ‘कजरा मोहब्बत वाला’ रिकॉर्ड किया गया था. रेडियो और दूरदर्शन के दौर में जिन गानों को सुनते हम बड़े हुए उनमें ‘ले के पहला-पहला प्यार’,‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’,‘बूझ मेरा क्या नाम रे’ में शमशाद बेगम की मैखुश आवाज घुली थी.
14 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृत्सर में जन्मी शमशाद के एल सहगल की गायिकी की मुरीद थीं. बचपन से संगीत से लगाव तो था, लेकिन इसकी विधिवत तालीम उन्हें नहीं मिली थी. किस्मत ने जरूर उन्हें खनकती आवाज के साथ सुरों को साधने का हुनर दिया था. इसी हुनर की बदौलत शमशाद बेगम को 1937 में लाहौर रेडियो से अपनी गायकी को आगे बढ़ाने की राह मिली.
1940 के आस-पास वह फिल्मों में बतौर प्लेबैक सिंगर गाने लगीं. उन्होंने नौशाद, ओपी नय्यर, मदन मोहन और एसडी बर्मन सहित उस दौर के तमाम संगीतकारों की लिए गाने गाये. ओपी नय्यर उनकी आवाज से इतने प्रभावित थे कि कहते थे,‘शमशाद की आवाज मंदिर की घंटी की मांनिद स्पष्ट और मधुर है.’
शमशाद ने गजल और भक्तिगीत भी गाये. उनके हिस्से विभिन्न भाषाओं में लगभग पांच हजार गीत गाने का श्रेय दर्ज है. फिल्मी दुनिया से उनके दूरी बना लेने के लंबे अतंराल के बाद 1998 में खबर सुनी गयी थी कि गायिका शमशाद बेगम नहीं रहीं.
लेकिन उनके कुछ प्रसंशक जब इस खबर की तह में गये, तो पता चला वे जीवित हैं और यह खबर नौसिखिया खबरियों की जल्दबाजी का नतीजा थी. शमशाद बेगम को खुदा ने दिलकश आवाज के साथ खूबसूरत चेहरा भी बख्शा था. लेकिन उन्हें अपनी तसवीर खिंचवाने से हमेशा परहेज रहा.
लंबे समय तक लोग उन्हें उनकी आवाज से ही पहचानते रहे. संगीत की दुनिया से खुद को दूर करने के कुछ समय पहले उन्होंने पहली बार एक साक्षात्कार के दौरान अपनी तसवीर लेने की इजाजत दी थी. वर्ष 2009 में लोगों ने व्हील चेयर पर बैठे राष्ट्राति से पद्मभूषण लेते समय इस गायिका की एक झलक देखी.
शमशाद बेगम की शख्सीयत से रूबरू होकर यही अहसास होता है कि उन्होंने सितारा बनने की सारी खूबियों के बाद भी चिराग बने रहना कबूल किया था. इस चिराग से रोशन कई जहां हुए, पर इसे अपने साये में बैठे अंधेरे का कोई मलाल न रहा.
शायद शमशाद ‘सुनहरे दिन’ फिल्म में गाये अपने गीत ‘मैंने देखी जग की रीत..’ की तर्ज पर इस जमाने की रीत से वाकिफ थीं. इसलिए किसी शिकायत को अपने दिल में न जगह देकर जिंदादिली से जीते हुए इस दुनिया से अलविदा हुईं.
उनकी गायिकी में थी एक जिंदादिली
शमशाद जी की गायिकी की एक खास बात यह भी थी कि वह खुशमिजाजी को हमेशा बरकरार रखती थीं. इसलिए उनकी गायिकी में भी वह जिंदादिली थी.
शमशाद बेगम जैसी आवाज की फनकार न तो कभी और आयी और न ही कभी आयेंगी. शमशाद बेगम जितनी शार्प आवाज में गाती थीं, इतनी शार्प आवाज में शायद ही और कोई गाता हो. वे अपनी रिकॉर्डिग के वक्त काफी रिहर्सल करती थीं. एक खास बात यह भी थी कि वह नये कलाकारों, गायक-गायिका का मजाक नहीं उड़ाती थीं.
वे सबको सम्मान देती थीं. वे कहती थीं कि रिस्पेक्ट सबसे ज्यादा जरूरी है. मैंने उनके साथ फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ में एक गाना गाया था- ‘सरकार के दीवाने हैं..’ लेकिन वह गाना बाद में के आसिफ ने हटा दिया था. क्योंकि उन्हें मेरी आवाज पतली लगी थी. बाद में पूरा गाना शमशाद ने ही गाया था. लेकिन उन्होंने मुझसे कहा था कि मन छोटा मत करो. ऐसे मौके हमेशा आते रहेंगे. इसके बाद हमें ‘औलाद’ फिल्म में साथ गाने का मौका मिला था. गाना था-‘आज घर वाले नहीं भईया..’ यह गीत हम दोनों ने गाया था और काफी लोकप्रिय हुआ था.
शमशाद जी की गायिकी की एक खास बात यह भी थी कि वह खुशमिजाजी को हमेशा बरकरार रखती थीं. इसलिए उनकी गायिकी में भी वह जिंदादिली थी. कभी खराब शब्द तो उनकी जुबां पर आ ही नहीं सकते थे. वे कभी किसी से ईष्र्या नहीं करती थीं, बल्कि हौंसलाअफजाई करती थीं. मैं जब भी नर्वस होती थी, सभी भले ही और डरा दें, वह कभी नहीं डराती थीं.
कई लोगों को कई दिनों तक लगा कि हम दोनों बहनें हैं, क्योंकि मेरा नाम भी बेगम था और शमशादजी का भी. लेकिन यह मेरी किस्मत थी कि उनके साथ जुड़ने का मौका मिला. मुझे याद है हमारे अब्बा ने हमारे लिए सलवार कमीज बनवाई थी. हम वह पहन कर एक दिन गये थे रिकॉर्डिग में, तो वहां पहुंचते ही शमशाद बेगम ने एकदम बच्चों की तरह आवाज लगायी कि वाह मुबारक आज तो साडी कुड्डी जवान लगती है. यही सारी बातें हमेशा याद आती रहेंगी.
यह सच है कि बाद के दौर में हमारी ज्यादा मुलाकातें नहीं हुईं. लेकिन फिर भी उनकी सिखायी गयी बातें हमेशा मुझे याद रहेंगी. वे हमेशा कहा करती थीं कि अपने काम की सबसे पहले खुद रिस्पेक्ट करो. फिर लोग करेंगे. खुद को छोटा न समझो और बस मेहनत से रियाज जारी रखो. शमशाद जी को दिल से नमन करती हूं.
प्रस्तुति : अनुप्रिया अनंत