कसमार, दीपक सवाल. झारखंड में विलुप्त होती विभिन्न कलाओं को पुनर्जीवित करने में कई कलाकार और कला प्रेमी जुटे हुए हैं. उनमें दुमका की डॉ स्टेफी टेरेसा जेरेड कला के संरक्षण का कार्य कर रही हैं तो साहेबगंज के श्याम विश्वकर्मा सोहराय भित्ति कला को टेराकोटा शैली में नया जीवन दे रहे हैं, लेकिन सरकारी प्रोत्साहन नहीं मिलने के कारण राज्यभर के कलाकारों में निराशा और हताशा व्याप्त है. अगर यही हाल रहा तो कला के मामले में समृद्ध कहा जाने वाला झारखंड आने वाले दिनों में अपनी यह पहचान खोता चला जायेगा.
ये बातें रविवार को कसमार प्रखंड के बगदा निवासी राज्य के जानेमाने कला समीक्षक व लेखक मनोज कुमार कपरदार ने ‘प्रभात खबर’ से विशेष बातचीत में कही. श्री कपरदार ने कहा कि झारखंड के जनमानस की भाषा, संस्कृति और रहन सहन दूसरे इलाकों से भिन्न है. सृजनात्मकता और कलात्मकता यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग है. यहां लोग जल-जंगल-जमीन से जुड़े होते हैं. प्रकृति के विभिन्न उपादान लोगों की कल्पनाशीलता को नया आयाम देते हैं. यहां की परंपरागत शैलियों की देश विदेश में भारी मांग भी है. लेकिन, आज झारखंड की कला और संस्कृति दोनों ही संक्रमण और संकट से गुजर रही है.
पिछले कई सालों से कला पर शोध कर रहे मनोज ने कहा कि राज्य की मूल कलाओं के संक्रमण में पश्चिमी संस्कृति के दबाव का प्रभाव भी देखने को मिला है. कुछ पुराना छूट रहा है तो कुछ नया भी जुड़ता जा रहा है. उन्होंने बताया कि झारखंड की कुछ हस्तकलाएं भी विलुप्त हो रही हैं. जबकि कुछ को प्रदर्शनी, पर्यटन आदि के कारण पुनर्जीवन मिला है. इन हस्तकलाओं ने यहां की आदिवासी महिलाओं को सशक्त करने में अहम भूमिका निभाई है. लेकिन इस कला का हस्तांतरण नयी पीढ़ी में नहीं हो पा रहा है.
झारखंड की इसी विलुप्त होती कला शैली और उभर कर आ रही नई कला को तलाशने के प्रयास में वह जुटे हैं. श्री कपरदार ने बताया कि झारखंड की जो भित्तिकला आज से सौ साल पहले कोलकाता विश्वविद्यालय में चर्चा का विषय बनी थी, आज लोग उसका नाम तक नहीं जानते हैं.
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दूसरी ओर ग्रेफिटी पेंटिंग, स्ट्रा आर्ट, संथाल ग्राफिक्स, टोटका कला जैसी कला शैली विकसित होने लगी है. ग्रेफिटी पेंटिंग में युवा चित्रकार समुदाय बनाकर कलम कूची, रंग-रोगन लेकर पठारों पर ही चित्र बना लेते हैं. टोटका कला पर गढ़वा और रांची जिले की कई महिलाएं कार्य कर रही हैं तो पूर्वी सिंहभूम की किरण संथाल ग्राफिक्स पर कार्य कर रही है. कई कलाकार अपनी पारंपरिक कला से हटकर कैनवास पर अलग पहचान बना रहे हैं.
श्री कपरदार का कहना है कि झारखंड में आधुनिक कला भी दस्तक दे चुकी है, लेकिन आज भी यहां की पारंपरिक कला की वैश्विक पहचान बनी हुई है. यहां की शिल्पकला को भी नया मुकाम मिल रहा है. इनका मानना है कि कोई भी कलाकृति तभी अर्थपूर्ण होती है जब उसमें सामाजिक सरोकार की अभिव्यक्ति हो. लेकिन यह राज्य का दुर्भाग्य है कि इसे बढ़ावा देने के लिए अब-तक कला नीति तक नहीं बनी है.
झारखंड में कॉमर्शियल आर्ट गैलरी और म्यूजियम होना चाहिए, पर सरकार ने कभी विचार नहीं किया. आज पीयूष लकड़ा जैसे कलाकार गुमनामी के अंधेरे में खो गये हैं. जबकि, पीयूष लकड़ा झारखंड के पहला आदिवासी कलाकार थे, जिन्होंने कला एवं शिल्प महाविद्यालय से कला की शिक्षा पायी थी. श्री कपरदार ने कहा कि राज्य में कला एवं शिल्प महाविद्यालय होता तो यहां के युवाओं को कला के व्याकरण का लाभ मिलता.