बेरमो (गिरिडीह), राकेश वर्मा: कहते हैं कि व्यक्ति के मरने के बाद उनके अच्छे कर्मों को लोग याद करते हैं. यही वजह है कि जननेता कॉमरेड महेंद्र सिंह आज भी पूरे झारखंड के साथ-साथ औद्योगिक नगरी बेरमो कोयलांचल के लोगों के दिलों पर राज करते हैं. कॉमरेड महेंद्र सिंह का शहादत दिवस 16 जनवरी को है. बताया जाता है कि बेरमो विधानसभा क्षेत्र के पेटरवार प्रखंड अंतर्गत चलकरी के शहीद तीन साथियों के नाम का शिलापट्ट महेंद्र सिंह ने पटना में बनवाया था. शहीदों का शिलापट्ट लेकर वे पटना से बेरमो स्थित जारंगडीह स्टेशन ट्रेन से पहुंचे. शिलापट्ट को कंधे पर लेकर वे संडेबाजार के माले कार्यकर्ता इंद्रजीत सिंह के आवास पर पहुंचे. आपको बता दें कि वर्ष 1990 में आईपीएफ के दाम बांधो काम दो के नारे के साथ कार्यकर्ता रैली में शामिल होने के लिए दिल्ली गए थे. यहां सड़क के किनारे लेटे तीन कार्यकर्ता मोहर रविदास, तिलक रविदास एवं रामदास रविदास की मौत ट्रक से कुचल देने के कारण हो गयी थी. उनकी याद में यहां हर साल शहादत दिवस मनाया जाता है.
एक ही थाली में कार्यकर्ता के साथ खाना खाते थे महेंद्र सिंह
चलकरी गांव निवासी व विस्थापित नेता काशीनाथ केवट कहते हैं कि महेंद्र सिंह जब कभी यहां आते थे तो रात में जमीन पर सोते थे और एक ही थाली में कार्यकर्ता के साथ खाना खाते थे. अपना, ड्राइवर सुखदेव का तथा कार्यकर्ताओं का कपड़ा भी खुद धोते थे. भाकपा माले व विस्थापित नेता विकास कुमार सिंह कहते हैं कि गांधीनगर में एक बार आईपीएफ की बड़ी सभा का आयोजन किया गया था. लोगों में महेंद्र सिंह को देखने व सुनने की उत्सुकता थी. अचानक एक व्यक्ति साधारण कपड़े में अपने कंधे पर मोटरसाइकिल का साइलेंसर लिए पहुंचा. पूछने पर मालूम हुआ कि यही महेंद्र सिंह हैं. श्री सिंह कहते हैं कि सभा में भाग लेने के लिए महेंद्र सिंह मोटरसाइकिल में उनके साथ आ रहे थे. इसी क्रम में साइलेंसर टूटकर गिर गया था. तब पीछे बैठे महेंद्र सिंह ने गर्म साइलेंसर को जंगल के पत्ते के सहारे अपने कंधे पर रख लिया था.
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महेंद्र सिंह के नेतृत्व में कई बड़े आंदोलन का गवाह रहा है बेरमो
80 के दशक से महेंद्र सिंह का काफी जीवंत संबंध यहां के लोगों के साथ रहा. 80 के दशक में जब वे विधायक नहीं थे, उस वक्त साधारण हाफ-पैंट व शर्ट पहने कंधे पर एक झोला लिए ट्रैक्टर से ही यहां आना-जाना किया करते थे. पार्टी के एक छोटे से कार्यकर्ता के घर में रुक कर एक ही थाली में उनके साथ खाना व कई किमी तक गांव-देहात में पैदल घूमना यही उनकी कार्यशैली थी. विधायक बनने के बाद भी उनकी कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं आया. यहां कई बड़े-बड़े आंदोलन के अलावा गरीबों के हक-अधिकार के लिए आईपीएफ व माले के बैनर तले संघर्ष हुए. इस दौरान यहां कई लोग शहीद भी हुए. कई लोग जेल गए व कई लोगों को प्रताड़ित भी किया गया. 1994 में जरीडीह प्रखंड के इलाके में मेजर नागेद्र प्रसाद की हत्या एक बड़ी घटना के रूप में सामने आयी.
1992 में भाकपा माले की स्थापना
महेंद्र सिंह के नेतृत्व में झुमरा मार्च, बालीडीह में ठेका मजदूरों की समस्याओं को लेकर विधायक समरेश सिंह के खिलाफ चलाया गया. आंदोलन, चलकरी में पुलिस पदाधिकारियों को बंधक बनाने की घटना, थाना का घेराव कर पुलिस पदाधिकारियों की पिटाई, डीआरएंडआरडी में फर्जी कागजात के आधार पर नौकरी लेने संबंधी मामले का पर्दाफाश सहित विस्थापित आंदोलन आदि कई ऐसी घटनाएं हैं जो आईपीएफ के आंदोलन के क्रम में हुए. आईपीएफ के उस वक्त के राष्ट्रीय अध्यक्ष कॉमरेड विनोद मिश्र (भीएम) व दीपांकर भट्टाचार्य जैसे नेताओं का भी बेरमो क्षेत्र से लगाव रहा. सीपीआईएमएल (लिबरेशन) नाम से पहले भूमिगत संगठन चला करता था. वर्ष 1988 में आईपीएफ का गठन हुआ. 22 अप्रैल 1992 भाकपा माले बना.
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महेंद्र सिंह के नेतृत्व में ग्रामीणों ने किया था झुमरा मार्च
कॉमरेड महेंद्र सिंह 1980 में हत्या के एक आरोप में गिरिडीह जेल में बंद थे. जेल में ही महेंद्र सिंह से बेरमो के विस्थापित व मजदूर नेता विकास सिंह व काशीनाथ केवट की मुलाकात हुई. काशीनाथ केवट ने छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथ मिलकर स्व सिंह की रिहाई में जोरदार आंदोलन चलाया. 87-88 में बेरमो के संडेबाजार में स्व सिंह ने जनसंस्कृति मंच का गठन किया. वहीं ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जनवादी मजदूर किसान संघ का गठन किया था. वर्ष 1994 में गोमिया प्रखंड के झुमरा में महेंद्र सिंह के नेतृत्व में हजारों ग्रामीणों ने परंपरागत हथियारों से लैश होकर झुमरा मार्च किया था. माओवादियों ने महेंद्र सिंह पर निशाना साधते हुए गोली चलायी थी, जिसमें अशोक महतो की मौत हो गयी थी. कई माओवादी भी इसमें मारे गये थे.
…जब लाल कपड़ा खरीदा, रंग-ब्रश लिए, नारे लिखकर सड़क पर बैठ गए
1989 के जमाने में बरकाकाना के पास घुटुआ गांव में आबकारी विभाग की छापेमारी के क्रम में गोलीकांड हुआ था. गोलीकांड के बाद डरे-सहमे ग्रामीण अपने-अपने घरों में ताला लगाकर चले गये थे. पूरा गांव खाली हो गया था. ऐसे में महेंद्र सिंह अकेले घुटुआ गांव पहुंचे. वहां सन्नाटा देखकर समझ गये कि गांव के लोग डर कर भाग चुके हैं. सड़क पर पुलिस वाहनों का आवागमन तेज था. पुलिसिया आंतक का माहौल था. माले कार्यकर्ताओं और समर्थकों को तलाश करना कठिन था. ऐसे में महेंद्र सिंह ने बाजार से लाल रंग का कपड़ा खरीदा. रंग और ब्रश लिया और आइपीएफ जिंदाबाद, घुटुआ गोलीकांड के दोषियों को बर्खास्त करो जैसे नारे लिखर कर गांव के बाहर सड़क पर अकेले बैठ गए. उनके धरना पर बैठते ही सशस्त्र पुलिस की गाड़ी रुकी. एक अधिकारी ने पूछा कौन हो जी? यहां कैसे बैठ गए? फिर सिपाहियों को आदेश दिया गया कि इनका झंडा, बैनर फेक दो. महेंद्र सिंह ने बड़े ही शांत भाव से कहा कि आपका संविधान इस बात की अनुमति देता है कि शांतिपूर्ण धरना पर बैठे व्यक्ति का झंडा, बैनकर फेंक देना चाहिए. अगर जनता से यह लोकतांत्रिक अधिकार छीन लेने की प्रशासनिक शक्ति आपको मिली है तो फेंक दीजिए. अधिकारी थोड़ा सहमा, फिर बोला, अच्छा ठीक है बैठे रहो, लेकिन हल्ला-गुल्ला मत करना. गाड़ी आगे चली गयी.
मैं हूं महेंद्र सिंह और सीने पर खा ली गोली
इस बीच ग्रामीणों को खबर मिली कि महेंद्र सिंह गांव के बाहर धरना पर बैठे है तो वे धीरे-धीरे अपने घरों की ओर वापस लौटने लगे. हजारीबाग जिले की अन्य इकाइयों को पता चला तो वे लोग भी एकत्र होने लगे. इसके बाद जन आंदोलन का ऐसा ज्वार फूटा कि पुलिस प्रशासन को बैकफुट पर आना पड़ा. गोलीकांड के दोषी को सजा मिली. जनता का उत्साह बढ़ा, संगठन का विस्तार हुआ. ऐसा साहसी जननेता बहुत मुश्किल से मिलता है. अपनी शहादत के समय भी वे चाहते तो बचकर निकल सकते थे, लेकिन आम जनता शूटरों का शिकार न बने इस सोच के तहत उन्होंने कहा था कि मैं हूं महेंद्र सिंह और अपने सीने पर गोली खाकर जन समुदाय को बचा लिया. ऐसे बहादुर जननेता को सलाम.